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  • यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 21
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - यज्ञो देवता सर्वस्य छन्दः - गायत्री,निचृत् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वेऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। सं व॑पामि॒ समाप॒ऽओष॑धीभिः॒ समोष॑धयो॒ रसे॑न। सꣳ रे॒वती॒र्जग॑तीभिः पृच्यन्ता॒ सं मधु॑मती॒र्मधु॑मतीभिः पृच्यन्ताम्॥ २१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। सम्। व॒पा॒मि॒। सम्। आपः॑। ओष॑धीभिः। सम्। ओष॑धयः। रसे॑न। सम्। रे॒वतीः॑। जग॑तीभिः। पृ॒च्य॒न्ता॒म्। सम्। मधु॑मती॒रिति॒ मधु॑ऽमतीः। मधु॑मतीभि॒रिति॒ मधु॑ऽमतीभिः। पृ॒च्य॒न्ता॒म् ॥२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम् । सं वपामि समापऽओषधीभिः समोषधयो रसेन । सँ रेवतीर्जगतीभिः पृच्यन्ताम् सं मधुमतीर्मधुमतीभिः पृच्यन्ताम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवस्य। त्वा। सवितुः। प्रसव इति प्रऽसवे। अश्विनोः। बाहुभ्यामिति बाहुभ्याम्। पूष्णः। हस्ताभ्याम्। सम्। वपामि। सम्। आपः। ओषधीभिः। सम्। ओषधयः। रसेन। सम्। रेवतीः। जगतीभिः। पृच्यन्ताम्। सम्। मधुमतीरिति मधुऽमतीः। मधुमतीभिरिति मधुऽमतीभिः। पृच्यन्ताम्॥२१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 1; मन्त्र » 21
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    भावार्थ -

     ( देवस्य ) देव, ( सवितुः ) सर्वोत्पादक ईश्वर के ( प्रसवे ) शासन में या उसके बनाये संसार में ( अश्विनोः ) ब्राह्मण- क्षत्रिय या प्रजा और राजा की बाहुओं से और ( पूष्ण: ) पुष्टिकारक, सर्व पोषक वैश्यगण के (हस्ताभ्याम्) ) हाथों से ( त्वा ) तुझ को ( संवपामि ) स्थापित करता हूं । राष्ट्ररूप यज्ञ में (आपः)ओषधीभिः सम् पृच्यन्तान् ) जल जिस प्रकार औषधियों से मिलाये जाते हैं उसी प्रकार दोषों के नाश करने वाले विद्वान् सदाचारी ( आपः ) आप्त, सत्य व्यवहार युक्त प्रजाजन ( सम् पृच्यन्ताम् ) मिलें । ( ओषधयः ) ओषधियें जिस प्रकार ( रसेन सम् पृच्यन्ताम् ) वीर्यवान्, उत्तम रस से युक्त हों उसी प्रकार दोष दूर करने वाले पुरुष के 'साररूप बल से युक्त किये जायें । ( जगतीभिः रेवतीः सम्) और जिस प्रकार जगती अर्थात् ओषधियों के साथ रेवती अर्थात् शुद्ध जल मिल कर विशेष गुणकारी हो जाते हैं उसी प्रकार ( जगतीभि: ) निरन्तर गमन करने वाले दूरगामी रथ आदि साधनों के साथ ( रेवतीः  ) धनैश्वर्य सम्पन्न प्रजाएं युक्त होकर रहें। ये यानों द्वारा बराबर व्यापार करें। और (मधुमतीभिः मधुमतीः सं पृच्यन्ताम् ) जिस प्रकार मधुर रस वाली ओषधियां मधुर रस वाली ओषधियों से मिला दी जाती हैं उसी प्रकार ( मधुमतीः ) मधु = ज्ञान से समृद्ध प्रजाएं मधु अर्थात् अध्यात्म आनन्द से सम्पन्न तत्व ज्ञानी पुरुषों से मिलें और आनन्द लाभ करें || 
    शत० १ । २ । ६ । २ -२ ॥ 
    इसी मन्त्र में परस्पर विवाह सम्बन्ध करने के निमित्त भी प्रजाओं में गुणवान् पुरुष समान गुण की स्त्रियों से सम्बन्ध करके पुत्र लाभ करें, इसका भी उपदेश किया जानो । इसका सम्बन्ध आगे दर्शावेंगे । 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

     हविरापो यज्ञो वा देवताः ।( १ ) गायत्री । ऋषभ। (२) विराट् पंक्तिः } पचमः॥

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