यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 11
ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - स्वराट् जगती,
स्वरः - निषादः
2
भू॒ताय॑ त्वा॒ नारा॑तये॒ स्वरभि॒विख्ये॑षं॒ दृꣳह॑न्तां॒ दुर्याः॑ पृथि॒व्यामु॒र्वन्तरि॑क्ष॒मन्वे॑मि। पृ॒थि॒व्यास्त्वा॒ नाभौ॑ सादया॒म्यदि॑त्याऽउ॒पस्थेऽग्ने॑ ह॒व्यꣳ र॑क्ष॥११॥
स्वर सहित पद पाठभू॒ताय॑। त्वा॒। न। अरा॑तये। स्वः॑। अ॒भि॒विख्ये॑ष॒मित्य॑भि॒ऽविख्ये॑षम्। दृꣳह॑न्ताम्। दुर्य्याः॑। पृ॒थि॒व्याम्। उ॒रु। अ॒न्तरि॑क्षम्। अनु। ए॒मि॒। पृ॒थि॒व्याः। त्वा॒। नाभौ॑। सा॒द॒या॒मि॒। अदि॑त्याः। उ॒पस्थ॒ इत्यु॒पऽस्थे॑। अग्ने॑। ह॒व्यम् र॒क्ष॒ ॥११॥
स्वर रहित मन्त्र
भूताय त्वा नारातये । स्वरभिवि ख्येषम् । दृँहन्तां दुर्याः पृथिव्याम् । उर्वन्तरिक्षमन्वेमि । पृथिव्यास्त्वा नाभौ सादयाम्यदित्या उपस्थे ग्ने हव्यँ रक्ष ॥
स्वर रहित पद पाठ
भूताय। त्वा। न। अरातये। स्वः। अभिविख्येषमित्यभिऽविख्येषम्। दृꣳहन्ताम्। दुर्य्याः। पृथिव्याम्। उरु। अन्तरिक्षम्। अनु। एमि। पृथिव्याः। त्वा। नाभौ। सादयामि। अदित्याः। उपस्थ इत्युपऽस्थे। अग्ने। हव्यम् रक्ष॥११॥
विषय - दुष्टों के संतापक अग्नि रूप राजा की स्थापना ।
भावार्थ -
हे अन्न या अग्ने ! या हे राजन् ! मैं (त्वा ) तुझको ( भूताय ) उत्पन्न प्राणियों के हित के लिये उत्पन्न करता हूँ । ( अरातये न ) दान न देने के लिये , या किसी श्रेष्ठ कार्य में व्यय न होने के लिये नहीं , या शत्रु के हित के लिये नहीं , प्रत्युत सबके कल्याण के लिये स्थापित करता हूं । मैं पुरुष ( स्वः ) सुखकारक परमात्मा के परम तेज को ( अभिविख्येयम् ) निरन्तर देखूं । मेरे (दुर्याः ) घर और घर के समस्त प्राणी ( पृथिवीम् ) पृथिवी पर ( दृंहन्ताम् ) सदा बदें , उन्नति करें । और मैं ( ऊरु अन्तरिक्षम् ) विशाल अन्तरिक्ष में भी ( अनु एमि ) जाऊं और उस पर भी वश करूं । हे (अग्ने) सब के अग्रणी, ज्ञान प्रकाशक पुरुष ! ( त्वा ) तुझ को राजा के समान ( पृथिव्याः ) पृथिवी के, पृथिवीवासी पुरुषों के ( नाभौ ) केन्द्र में, मध्य में सब को व्यवस्थासूत्र में बांधने के कार्य में और ( अदित्याः ) इस अविनाशी, अखण्डित राजसत्ता या पृथिवी के ( उपस्थे ) पृष्ठ पर (सादयामि ) स्थापित करता हूं । हे अग्ने ! पर संतापक ! तू ( हव्यम् ) हव्य, ग्रहण करने योग्य , एवं ज्ञान योग्य समस्त अन्न आदि पदार्थों की ( रक्ष) रक्षा कर । शत० १।१।२।२०- २३ ॥
टिप्पणी -
टिप्पणी ११ – अग्निर्देवता । द० | ० हव्यं रक्षस्व ० ।`इतिकाण्व ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
हविः सूर्यगृहहव्यान्यग्निश्च देवताः । स्वराड् जगती । निषादः स्वरः ॥
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