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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 9/ मन्त्र 27
    सूक्त - अथर्वा देवता - शतौदना (गौः) छन्दः - पञ्चपदातिजागतानुष्टुब्गर्भा शक्वरी सूक्तम् - शतौदनागौ सूक्त

    अ॒पो दे॒वीर्मधु॑मतीर्घृत॒श्चुतो॑ ब्र॒ह्मणां॒ हस्ते॑षु प्रपृ॒थक्सा॑दयामि। यत्का॑म इ॒दम॑भिषि॒ञ्चामि॑ वो॒ऽहं तन्मे॒ सर्वं॒ सं प॑द्यतां व॒यं स्या॑म॒ पत॑यो रयी॒णाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒प: । दे॒वी: । मधु॑ऽमती: । घृ॒त॒ऽश्चुत॑: । ब्र॒ह्माणा॑म् । हस्ते॑षु । प्र॒ऽपृ॒थक् । सा॒द॒या॒मि॒ । यत्ऽका॑म: । इ॒दम् । अ॒भि॒ऽसि॒ञ्चामि॑ । व॒: । अ॒हम् । तत् । मे॒ । सर्व॑म् । सम् । प॒द्य॒ता॒म् । व॒यम् । स्या॒म॒ । पत॑य: । र॒यी॒णाम् ॥९.२७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपो देवीर्मधुमतीर्घृतश्चुतो ब्रह्मणां हस्तेषु प्रपृथक्सादयामि। यत्काम इदमभिषिञ्चामि वोऽहं तन्मे सर्वं सं पद्यतां वयं स्याम पतयो रयीणाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अप: । देवी: । मधुऽमती: । घृतऽश्चुत: । ब्रह्माणाम् । हस्तेषु । प्रऽपृथक् । सादयामि । यत्ऽकाम: । इदम् । अभिऽसिञ्चामि । व: । अहम् । तत् । मे । सर्वम् । सम् । पद्यताम् । वयम् । स्याम । पतय: । रयीणाम् ॥९.२७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 9; मन्त्र » 27

    भावार्थ -
    मैं यज्ञशील पुरुष (ब्रह्मणां हस्तेषु) ब्राह्मण, वेद के विद्वानों के हाथों में (देवीः) दिव्य गुण वाली (मधुमतीः) मधुर रसवाली (घृतश्चुतः) घृत आदि पुष्टिकारक पदार्थ और तेज को उत्पन्न करने वाली (अपः) जल रूप प्रजाओं को (प्र पृथक् सादयामि) पृथक् पृथक् सौंपता हूं (यत्कामः) जिस अभिलाषा से (इदम्) यह (अहम्) मैं (वः) आप लोगों का (अभिषिञ्चामि) अभिषेक करता हूं। अर्थात् प्रजाओं में आप लोगों को उच्च पद पर प्रतिष्ठित करता हूं (तत्) वह मेरी अभिलाषा (सर्वं सम्पद्यताम्) सब पूरी हो। और (वयम्) हम सब (रयीणां) धन सम्पत्तियों के स्वामी हों। जल हाथ में लेकर दान करने की शैली का यही मूल है। राजा विद्वान् ब्राह्मणों को पृथक् पृथक् प्रदेशों में मान आदरपूर्वक पवित्र जलों द्वारा अभिषिक्त कर उनको अधिकारी रूप से प्रतिष्ठित करें। और सब धन धान्य सम्पत्ति से युक्त हों। इस प्रकार विद्वानों के हाथ में राज्य के भागों को देना ही वेदसम्मत दान है। ऐसे विद्वानों के हाथ में भूमि के सौंपने से वह समस्त रत्नों, अन्नों, पशु और घी-दूध आदि पुष्टिकारक पदार्थों को प्रसव करती है। इस सूक्त से गौ मार कर होम करने आदि का जो अर्थ निकालते हैं वे भूल में हैं। समस्त सूक्त में कहीं मारने आदि का सम्बन्ध नहीं है। यदि मारने आदि का प्रसङ्ग होता तो उससे तो रुधिर, वसा, मांस आदि प्राप्त होता, घी, दूध, दही और मधु पदार्थ कभी प्राप्त न होते।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ता शतोदना देवता। १ त्रिष्टुप्, २- ११, १३-२४ अनुष्टुभः, १२ पथ्यापंक्तिः, २५ द्व्युष्णिग्गर्भा अनुष्टुप्, २६ पञ्चपदा बृहत्यनुष्टुप् उष्णिग्गर्भा जगती, २७ पञ्चपदा अतिजगत्यनुष्टुब् गर्भा शक्वरी। सप्तविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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