अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 3
सूक्त - मातृनामा
देवता - मातृनामा अथवा मन्त्रोक्ताः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - गर्भदोषनिवारण सूक्त
मा सं वृ॑तो॒ मोप॑ सृप ऊ॒रू माव॑ सृपोऽन्त॒रा। कृ॒णोम्य॑स्यै भेष॒जं ब॒जं दु॑र्णाम॒चात॑नम् ॥
स्वर सहित पद पाठमा । सम् । वृ॒त॒: । मा । उप॑ । सृ॒प॒: । ऊ॒रू इति॑ । मा । अव॑ । सृ॒प॒: । अ॒न्त॒रा । कृ॒णोमि॑ । अ॒स्यै॒ । भे॒ष॒जम् । ब॒जम् । दु॒र्ना॒म॒ऽचात॑नम् ॥६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
मा सं वृतो मोप सृप ऊरू माव सृपोऽन्तरा। कृणोम्यस्यै भेषजं बजं दुर्णामचातनम् ॥
स्वर रहित पद पाठमा । सम् । वृत: । मा । उप । सृप: । ऊरू इति । मा । अव । सृप: । अन्तरा । कृणोमि । अस्यै । भेषजम् । बजम् । दुर्नामऽचातनम् ॥६.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 3
विषय - कन्या के लिये अयोग्य और वर्जनीय वर और स्त्रियों की रक्षा।
भावार्थ -
हे दुर्नाम ! कुष्ठ रोगी पुरुष या कुष्ठ रोग ! (मा संवृतः) तू कभी वरण न किया जाय। और यदि भूल से किसी प्रकार कन्या के द्वारा वरण भी किया गया हो तो (ऊरू) कन्या के जंघा भागों के (मा उपसृप) समीप स्पर्श मत कर कर अर्थात् कन्या के साथ संग मत कर और (अन्तरा मा अव सूप) मकान के भीतर भी मत रह। (अस्यै) इस कन्या के लिये (दुर्नाम-चातनम्) दुष्ट नाम वाले दुष्ट रोग से पीड़ित पुरुष के दूर करने वाले (बजं) अभिगमनीय, सुन्दर पुरुष को ही (भेषजम्) उत्तम उपाय (कृणोमि) करता हूं।
दुष्ट रोगी पुरुष न वरे जायँ और वे कन्याओं का संग न करें। कन्याएं ऐसे रोगियों के हाथ न जायें, इसका सब से उत्तम उपाय उनके समक्ष उत्तम, शालीन वरों को स्थापित करना है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - मातृनामा ऋषिः। मातृनामा देवता। उत मन्त्रोक्ता देवताः। १, ३, ४-९,१३, १८, २६ अनुष्टुभः। २ पुरस्ताद् बृहती। १० त्र्यवसाना षट्पदा जगती। ११, १२, १४, १६ पथ्यापंक्तयः। १५ त्र्यवसाना सप्तपदा शक्वरी। १७ त्र्यवसाना सप्तपदा जगती॥
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