ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 100/ मन्त्र 11
ऋषिः - वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेवभयमानसुराधसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स जा॒मिभि॒र्यत्स॒मजा॑ति मी॒ळ्हेऽजा॑मिभिर्वा पुरुहू॒त एवै॑:। अ॒पां तो॒कस्य॒ तन॑यस्य जे॒षे म॒रुत्वा॑न्नो भव॒त्विन्द्र॑ ऊ॒ती ॥
स्वर सहित पद पाठसः । जा॒मिऽभिः॑ । यत् । स॒म्ऽअजा॑ति । मी॒ळ्हे । अजा॑मिऽभिः । वा॒ । पु॒रु॒ऽहू॒तः । एवैः॑ । अ॒पाम् । तो॒कस्य॑ । तन॑यस्य । जे॒षे । म॒रुत्वा॑न् । नः॒ । भ॒व॒तु॒ । इन्द्रः॑ । ऊ॒ती ॥
स्वर रहित मन्त्र
स जामिभिर्यत्समजाति मीळ्हेऽजामिभिर्वा पुरुहूत एवै:। अपां तोकस्य तनयस्य जेषे मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती ॥
स्वर रहित पद पाठसः। जामिऽभिः। यत्। सम्ऽअजाति। मीळ्हे। अजामिऽभिः। वा। पुरुऽहूतः। एवैः। अपाम्। तोकस्य। तनयस्य। जेषे। मरुत्वान्। नः। भवतु। इन्द्रः। ऊती ॥ १.१००.११
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 100; मन्त्र » 11
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
योऽपान्तोकस्य तनयस्य च मध्ये वर्त्तमानः सन् यन्मीह्ळ एवैर्जामिभिः सहित एवैरजामिभिः शत्रुभिर्वोदासीनैः सह विरुद्ध्यन् पुरुहूतो मरुत्वानिन्द्रः सेनाद्यधिपतिर्जेष एतान् स्वीयानुत्कर्ष्टुं शत्रून् विजेतुं वा समजाति तदा स न ऊती समर्थो भवतु ॥ ११ ॥
पदार्थः
(सः) (जामिभिः) बन्धुवर्गैः सह (यत्) यदा (समजाति) संजानीयात् (मीहळे) संग्रामे। मीह्ळे इति संग्रामनामसु पठितम्। निघं० २। १७। (अजामिभिः) अबन्धुवर्गैः शत्रुभिः (वा) उदासीनैः (पुरुहूतः) बहुभिः स्तुतो युद्ध आहूतो (एवैः) प्राप्तैः (अपाम्) प्राप्तानां मित्रशत्रूदासीनानां पुरुषाणां (मध्ये) (तोकस्य) अपत्यस्य (तनयस्य) पौत्रादेः (जेषे) उत्कर्ष्टुं विजेतुम्। अत्र जिधातोस्तुमर्थे से प्रत्ययः। सायणाचार्य्येणेदमपि पदमशुद्धं व्याख्यातमर्थगत्यासंभवात् (मरुत्वान्नः) इति पूर्ववत् ॥ ११ ॥
भावार्थः
नह्यत्र राज्यव्यवहारे केनचिद् गृहस्थेन विना ब्रह्मचारिणो वनस्थस्य यतेर्वा प्रवृत्तेर्योग्यतास्ति, न कश्चित्सुमित्रैर्बन्धुवर्गैर्विना युद्धे शत्रून् पराजेतुं शक्नोति, न खल्वेवंभूतेन धार्मिकेण विना कश्चित्सेनाद्यधिपतित्वमर्हतीति वेदितव्यम् ॥ ११ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जो (अपाम्) प्राप्त हुए मित्र, शत्रु और उदासीनों वा (तोकस्य) बालकों के वा (तनयस्य) पौत्र आदि बीच वर्त्ताव रखता हुआ (यत्) जब (मीह्ळे) संग्रामों में (एवैः) प्राप्त हुए (जामिभिः) शत्रुजनों के सहित (अजामिभिः) बन्धुवर्गों से अन्य शत्रुओं के सहित (वा) अथवा उदासीन मनुष्यों के साथ विरोधभाव प्रकट करता हुआ (पुरुहूतः) बहुतों से प्रशंसा को प्राप्त वा युद्ध में बुलाया हुआ (मरुत्वान्) अपनी सेना में उत्तम वीरों को रखनेवाला (इन्द्रः) परमैश्वर्य्यवान् सेना आदि का अधीश (जेषे) उक्त अपने बन्धु भाइयों को उत्साह और उत्कर्ष देने वा शत्रुओं के जीत लेने का (समजाति) अच्छा ढङ्ग जानता है (सः) वह (नः) हम लोगों के (ऊती) रक्षा आदि व्यवहार के लिये समर्थ (भवतु) हो ॥ ११ ॥
भावार्थ
इस राज्यव्यवहार में किसी गृहस्थ को छोड़ ब्रह्मचारी वनस्थ वा यति की प्रवृत्ति होने योग्य नहीं है, और न कोई अच्छे मित्र और बन्धुओं के विना युद्ध में शत्रुओं को परास्त कर सकता है, ऐसे धार्मिक विद्वानों के विना कोई सेना आदि का अधिपति होने योग्य नहीं है, यह जानना चाहिये ॥ ११ ॥
विषय
विजय
पदार्थ
१. (सः) = वह (पुरुहूतः) = बहुतों से पुकारे जानेवाले (मरुत्वान्) = मरुतोंवाले प्राणों व वायुओंवाले (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (यत्) = जब (मीळ्हे) = संग्राम में (जामिभिः) = बन्धुओं के साथ (अजामिभिः वा) = अथवा अबन्धुओं के साथ , अर्थात् जो प्रभु - सत्ता में विश्वास करते हुए प्रभुभक्त बनने के लिए यत्नशील हैं अथवा नास्तिकवृत्ति के कारण जिनका झुकाव प्रभु की ओर नहीं - उन सबके साथ (एवैः) = प्राणों के साथ (समजति) = मिलकर गतिशील होते हैं , अर्थात् काम - क्रोधादि के साथ संग्राम में जब प्राणसाधना होने पर इन प्राणों के द्वारा प्रभु सहायक होते हैं , तब ये प्रभु (अपाम्) = प्रजाओं के (तोकस्य) = उनके पुत्रों के (तनयस्य) = उनके पौत्रों के लिए (जेषे) = विजय प्राप्त करानेवाले होते हैं । यहाँ भाव यह है कि प्रभु को कोई माने या न माने , परन्तु जब वह प्राणसाधना द्वारा मन को वश में करनेवाला हो जाता है तब उसे प्रभु काम आदि शत्रुओं पर विजय प्राप्त कराते ही हैं ।
२. ये प्रभु (नः) = हमारी (ऊती) = रक्षा के लिए (भवतु) = हों । जब प्रभु अबन्धुओं को भी कामादि शत्रुओं पर विजय प्राप्त कराते हैं तब वे हमें क्यों न विजय प्राप्त कराएंगे?
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना [प्राणायाम] करने पर प्रभु हमें व हमारे सन्तानों को भी विजय प्राप्त कराते हैं । प्राणसाधना से सन्तान भी नीरोग व निर्मलवृत्ति के होते हैं ।
विषय
उसके कर्तव्य ।
भावार्थ
( यत् ) जब ( सः ) वह ( पुरुहूतः ) बहुतों से प्रशंसा को प्राप्त होकर, एवं बहुतसे शत्रुओं से युद्ध में ललकारा जाकर (जामिभिः) अपने बन्धुवर्गो से और (अजामिभिः) वा बन्धु रहित, अथवा बन्धु बान्धवों से भिन्न वीर पुरुषों से सहायवान् होकर (मीढ़े) संग्राम में (एवैः) युद्ध में तीव्र वेग से जाने वाले वीर भटों से (जेषे) विजय प्राप्ति के लिये ( सम् अजाति ) मिल कर शत्रुओं को उखाड़ देता है तव वह ( मरुत्वान् इन्द्रः ) वीरों का स्वामी, सेनापति (अपां) शरण में आये ( नः ) हम आप्त प्रजाजनों और ( तोकस्य तनयस्य च ) पुत्रों और पौत्रों क़ी ( ऊती ) रक्षा करने के लिये ( भवतु ) हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेव भयमानसुराघस ऋषयः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५ पङ्क्तिः ॥ २, १३, १७ स्वराट् पङ्क्तिः । ३, ४, ११, १८ विराट् त्रिष्टुप् । ६, १०, १६ भुरिक पङ्क्तिः । ७,८,९,१२,१४, १५, १९ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकोन विंशत्यृचसूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
राज्यव्यवहारात एखाद्या दुसऱ्या गृहस्थाशिवाय ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी व यती होण्याची प्रवृत्ती असणे योग्य नाही. चांगले मित्र, बंधू असल्याशिवाय युद्धात किंवा शत्रूंना कोणी परास्त करू शकत नाही. अशा धार्मिक विद्वानांशिवाय कोणी सेनेचा अधिपती बनू शकत नाही, हे जाणले पाहिजे. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
When invoked and called upon by many, Indra goes to battle with his friends, opponents and the indifferent ones with all his might and main, he fights at his best for victory for the future generations of sons and grandsons of the nation. May Indra, commander of the Maruts, be our leader and defender for our protection and progress.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Indra is taught further in the 11th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Only then Indra (Commander of the Army etc.) associated with his soldiers is able to protect us, when he being present with his sons and grandsons and among his friends, foes and neutrals, invoked by many, goes to battle with his kinsmen against his adversaries, knows well how to get victory over his foes, and to exalt his kinsmen and other good people, by his noble virtues and tactics.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(जामिभिः) बन्धुवर्गै: सह = With kith and kin. (समजाति) संजानीयात् = May know well. (सम्-अज-गतिक्षेपणयोः गतेस्त्रयोऽर्था ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च अत्र ज्ञानार्थग्रहणम् (अपाम् ) प्राप्तानां मित्रशत्रूदासीनानां मध्ये । = Among the friends, foes and neutrals.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is only a householder and not a Brahmachari, Banaprastha (hermit) or Sanyasi that is fit to rule. None can get victory in battles over his foes without the aid of his good friends and kith and kin. Men should know that none but a righteous person of the above type is fit to be the commander of an army.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal