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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 100 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 100/ मन्त्र 15
    ऋषिः - वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेवभयमानसुराधसः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    न यस्य॑ दे॒वा दे॒वता॒ न मर्ता॒ आप॑श्च॒न शव॑सो॒ अन्त॑मा॒पुः। स प्र॒रिक्वा॒ त्वक्ष॑सा॒ क्ष्मो दि॒वश्च॑ म॒रुत्वा॑न्नो भव॒त्विन्द्र॑ ऊ॒ती ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । यस्य॑ । दे॒वाः । दे॒वता॑ । न । मर्ता॑ । आपः॑ । च॒न । शव॑सः । अन्त॑म् । आ॒पुः । सः । प्र॒ऽरिक्वा॑ । त्वक्ष॑सा । क्ष्मः । दि॒वः । च॒ । म॒रुत्वा॑न् । नः॒ । भ॒व॒तु॒ । इन्द्रः॑ । ऊ॒ती ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न यस्य देवा देवता न मर्ता आपश्चन शवसो अन्तमापुः। स प्ररिक्वा त्वक्षसा क्ष्मो दिवश्च मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न। यस्य। देवाः। देवता। न। मर्ता। आपः। चन। शवसः। अन्तम्। आपुः। सः। प्रऽरिक्वा। त्वक्षसा। क्ष्मः। दिवः। च। मरुत्वान्। नः। भवतु। इन्द्रः। ऊती ॥ १.१००.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 100; मन्त्र » 15
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेतस्याः सर्वप्रजायाः कर्त्तेश्वरः कीदृशोऽस्तीत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    यस्येन्द्रस्य जगदीश्वरस्य शवसोऽन्तं देवता देवा न मर्त्ता नापश्च नापुः। यस्त्वक्षसा क्ष्मो दिवश्चान्यांश्च लोकान् प्ररिक्वा स मरुत्वानिन्द्रो न ऊती भवतु ॥ १५ ॥

    पदार्थः

    (न) निषेधे (यस्य) इन्द्रस्य परमैश्वर्यवतो जगदीश्वरस्य (देवाः) विद्वांसः (देवता) दिव्यजनानां मध्ये। निर्धारणेऽत्र षष्ठी सुपां सुलुगित्यामो लुक् च। (न) (मर्त्ताः) साधारणा मनुष्याः (आपः) अन्तरिक्षं प्राणा वा (चन) अपि (शवसः) बलस्य (अन्तम्) सीमानम् (आपुः) प्राप्नुवन्ति (सः) (प्ररिक्वा) यः सर्वाः प्रजाः प्रकृष्टतया निर्माय व्याप्तवान् (त्वक्षसा) स्वेन बलेन सामर्थ्येन। त्वक्ष इति बलना०। निघं० २। ९। (क्ष्मः) पृथिवीः (दिवः) सूर्यादिप्रकाशकलोकान् (च) एतद्भिन्नलोकसमुच्चये (मरुत्वान्नो०) इति पूर्ववत् ॥ १५ ॥

    भावार्थः

    किमनन्तगुणकर्मस्वभावस्य तस्य परमात्मनोऽन्तं ग्रहीतुं कश्चिदपि शक्नोति यः स्वसामर्थ्येनैव प्रकृत्याख्यात् परमसूक्ष्मात् सनातनात् कारणात्सर्वान्पदार्थान् संहत्य संरक्ष्य प्रलये छिनत्ति स सर्वैः कथं नोपासनीय इति ॥ १५ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब इस समस्त प्रजा का करनेवाला ईश्वर कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (यस्य) जिस परम ऐश्वर्यवान् जगदीश्वर के (शवसः) बल की (अन्तम्) अवधि को (देवता) दिव्य उत्तम जनों में (देवाः) विद्वान् लोग (न) नहीं (मर्त्ताः) साधारण मनुष्य (न) नहीं (चन) तथा (अपः) अन्तरिक्ष वा प्राण भी (आपुः) नहीं पाते, जो (त्वक्षसा) अपने बलरूप सामर्थ्य से (क्ष्मः) पृथिवी (दिवः) सूर्य्यलोक तथा (च) और लोकों को (प्ररिक्वा) रच के व्याप्त हो रहा है (सः) वह (मरुत्वान्) अपनी प्रजा को प्रशंसित करनेवाला (इन्द्रः) परम ऐश्वर्यवान् परमेश्वर (न) हम लोगों के (ऊती) रक्षा आदि व्यवहार के लिये निरन्तर उद्यत (भवतु) होवे ॥ १५ ॥

    भावार्थ

    क्या अनन्त गुण, कर्म, स्वभाववाले उस परमेश्वर का पार कोई ले सकता है कि जो अपने सामर्थ्य से ही प्रकृतिरूप अतिसूक्ष्म सनातन कारण से सब पदार्थों को स्थूलरूप उत्पन्न कर उनकी पालना और प्रलय के समय सबका विनाश करता है, वह सबके उपासना करने के योग्य क्यों न होवे ? ॥ १५ ॥

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    विषय

    स्तुतिविषयः

    व्याखान

    हे अनन्तबल ! (न यस्य) जिस आपका और आपके बलादि सामर्थ्य का (देवाः) इन्द्रिय (देवता:)  विद्वान्, सूर्यादि तथा बुद्ध्यादि (न मर्ताः) साधारण मनुष्य (आपश्चन) आप, प्राण, वायु, समुद्र इत्यादि सब (शवस:) आपके बल का (अन्तम् आपुः)  पार कभी नहीं पा सकते, किन्तु (सः प्ररिक्वा) वह आप प्रकृष्टता से इनमें व्यापक होके इनसे अतिरिक्त ( विलक्षण), भिन्न ही परिपूर्ण हो रहे हैं। जो (मरुत्वान्) अत्यन्त बलवान् (इन्द्रः) परमात्मा (त्वक्षसा) शत्रुओं के बल के छेदक बल से (क्ष्मः)  पृथिवी को (दिवश्च) स्वर्ग को धारण करता है, सो (इन्द्रः) परमात्मा (ऊती) हमारी रक्षा के लिए (भवतु) तत्पर हो ॥ ३२ ॥

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    विषय

    अनन्तशक्तिमान् प्रभु

    पदार्थ

    १. (यस्य देवता) = [देवस्य] जिस देव के (शवसः अन्तम्) = शक्ति के अन्त को (न देवाः) = न तो देवता और (न मर्ताः) = न ही मनुष्य (आपः न) = न ही अन्तरिक्षस्थ प्राणी भी (आपुः) = प्राप्त करते हैं । ‘देवाः’  द्युलोक के साथ हैं , ‘मर्ताः’ इस मर्त्यलोक में स्थित प्राणी हैं और ‘आपः’ इन दोनों के बीच के अन्तरिक्षस्थ प्राणी हैं । ये सबके सब उस महान् देव प्रभु के बल के अन्त को प्राप्त नहीं कर सकते । 

    २. (सः) = वे प्रभु (त्वक्षसा) = शत्रुओं को तनूकृत करने - [छील डालने] - वाले बल से (क्ष्मः) = पृथिवी से (च) = और (दिवः) = द्युलोक से (प्ररिक्वा) = अतिरिक्त हो रहे हैं , अर्थात् उस प्रभु का बल इस द्युलोक व भूलोक में समा नहीं पाता । ये (मरुत्वान्) = वायुओं व प्राणोंवाले (इन्द्रः) = सर्वशक्तिमान् प्रभु (नः ऊती) = हमारी रक्षा के लिए (भवतु) = हों । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु की शक्ति अजेय है । वह हमारे शत्रुओं को तनूकृत् करती हुई हमारा रक्षण करे । 
     

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    विषय

    उसके कर्तव्य ।

    भावार्थ

    ( यस्य ) जिस ( देवता ) दान, प्रकाश आदि ( अन्तम् ) परली सीमा को ( शवसा ) अपने बल, सामर्थ्य से ( न देवाः ) न देव अर्थात् योद्धा गण, (न मर्त्ता) न मरने वाले मनुष्य, ( आपः चन ) न आप्त जन, ( आपुः ) प्राप्त कर सकें ( सः ) वह ( त्वक्षसा ) शस्त्रास्त्र बल से ( क्ष्मः दिवः च ) पृथ्वी और अकाश तथा सामान्य प्रजा और राजवर्ग दोनों से ( प्ररिक्का ) बढ़ा हुआ ( मरुत्वान् ) वीरों और विद्वानों का स्वामी ( इन्द्रः नः ऊती भवतु ) ऐश्वर्यवान् राजा हमारी रक्षा के लिये हो । ( २ ) वह महान् देव, परमेश्वर जिसके परम पार को न कोई विद्वान्, न सूर्य आदि देव, न मरने वाले प्राणी और न (आपः) प्राणगण अपने सामर्थ्य से पा सके, वह ( त्वक्षसा प्ररिक्का ) अपने विवेचक और प्रकाशक ज्ञान और प्रलयकारी सर्व संहारकारी अनन्त बल से आकाश और पृथ्वी के विस्तार से कहीं बड़ा है। वह हमारी रक्षा करे। इति दशमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेव भयमानसुराघस ऋषयः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५ पङ्क्तिः ॥ २, १३, १७ स्वराट् पङ्क्तिः । ३, ४, ११, १८ विराट् त्रिष्टुप् । ६, १०, १६ भुरिक पङ्क्तिः । ७,८,९,१२,१४, १५, १९ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकोन विंशत्यृचसूक्तम् ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    अनंत गुण, कर्म, स्वभावाच्या परमेश्वराचा अंत कुणी जाणू शकतो काय? जो आपल्या सामर्थ्यानेच प्रकृतिरूपी अतिसूक्ष्म सनातन कारणाने सर्व पदार्थांना स्थूलरूपाने उत्पन्न करून त्यांचे पालन व प्रलयाच्या वेळी सर्वांचा नाश करतो, तो सर्वांनी उपासना करण्यायोग्य का असणार नाही? ॥ १५ ॥

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    विषय

    स्तुती

    व्याखान

    हे अनंतशक्तियुक्त [ईश्वरा]! (न यस्य) ज्या परमेश्वराचा आणि त्याच्या शक्ती व सामर्थ्याचा (देवाः) इंद्रिय, (देवताः) विद्वान, सूर्य, बुद्धिमान इत्यादींना (न मर्ताः) साधारण मनुष्याला (आपश्चन) जल, वायु, प्राण, समुद्र इत्यादींना त्याचा अंत कधीच लागू शकत नाही. (प्ररिक्वा) उत्कृष्टपणे तो त्यात व्याप्त असूनही विलक्षण व भिन्न रीतीने परिपूर्ण असतो. म्हणून (मरुत्वान्) अत्यंत शक्तियुक्त (इन्द्रः) परमेश्वर (त्वक्षसा) शत्रूच्या बलाला नष्ट करणारा व आपल्या शक्तीने (क्ष्मः) पृथ्वीला आणि (दिवश्च) स्वर्गाला धारण करतो. म्हणून (इन्द्रः) परमेश्वर (ऊती) आमच्या रक्षणासाठी (भवतु) सिद्ध होवो. ॥३२॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The end of whose power and potential, neither divinities, nor the mind and sense and imagination of any one, nor the human mortals, nor even the realised souls reach and comprehend, that Indra pervades and, with his subtle and mysterious omnipotence, transcends heaven and earth. May he, lord of Maruts, be our protector and saviour.

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    Purport

    O God of infinite Powers! The sense and motor organs, the learned, the sun etc., the intellect, the ordinary man, the waters, the vital air, the ocean etc. cannot find or know your end and capacity of Your strength. O God Almighty! With Your superiority you pervade the whole universe, but you remain totally distinct from it. O the Most Mighty Lord! With Your great powers, which crush the enemies you uphold the earth and the heavenly world. Indrah The Master of all powers and possessions should protect us. [or be ready to protect us].

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is Indra (God the Creator of all beings) is taught in the fifteenth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    May God the Almighty be our Protector whose might's limit can never be guaged or reached by either the most learned scholars, ordinary men or luminaries, the Pranas (vital forces) and firmament etc. He has made all these worlds including the earth, the heaven and others, and with His might has pervaded them all.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (देवा:) विद्वांसः = Enlightened persons. (आपः) अन्तरिक्षं प्राणा वा = Firmament or Pranas (vital forces.) (प्ररिक्वा) यः सर्वाः प्रजाः प्रकृष्टतया निर्माय व्याप्तवान् । = Who has created all subjects and has pervaded them. (त्वक्षसा) त्वक्ष इति बलनाम (निघ० २.६) स्वेन सामर्थ्यन = By His might.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Can any one guage or reach the limit of the strength of the Almighty or Infinite God who with His might has created all objects from the eternal cause-Primordial Matter, sustains them and at the end dissolves-them ? Why should He not be adored, worshipped or meditated upon by all ?

    Translator's Notes

    विद्वांसो हि देवाः (शतपथ० ३.७.३.१०) आप इत्यन्तरिक्षनाम (निघ० १.३ ) आपो वै प्राणाः ।। (शतपथ० ३.८.२.४) प्राणो ह्यापः ।। (जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मणो ३.१०.९ )

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    नेपाली (1)

    विषय

    स्तुतिविषयः

    व्याखान

    हे अनन्तबल ! न यस्य - जुन तपाईंको र तपाईंका बल आदि सामर्थ्य को देवाः = इन्द्रिय हरु देवता: = विद्वान्, सूर्यादि तथा बुद्धि आदि न मर्ताः = साधारण मनुष्य आपश्चन = आप अर्थात् पानी, प्राण, वायु, समुद्र इत्यादि सबैले शवस: = तपाईंका बल को अन्तम् आपुः = कहिल्यै पार पाउन सक्तैनन् तर सः परिक्वा = तेस्तो तपाईं प्रकृष्टता संग इनमा व्यापक भएर इनिहरु भन्दा अतिरिक्त [विलक्षण] भिन्न नै परिपूर्ण भइरहनु भएको छ । जुन मरुत्वान् =अत्यन्त बलवान्इन्द्र:=परमात्मा त्वक्षसा = शत्रु हरु को छेदक बल ले क्ष्म : = पृथिवी लाई र दिवश्च स्वर्ग लाई धारण गर्दछ । अतः इन्द्र = परमात्मा ऊती=हाम्रो रक्षाका लागी भवतु = तत्पर हुनुहोस् ||३२||

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