ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 100/ मन्त्र 5
ऋषिः - वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेवभयमानसुराधसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
स सू॒नुभि॒र्न रु॒द्रेभि॒रृभ्वा॑ नृ॒षाह्ये॑ सास॒ह्वाँ अ॒मित्रा॑न्। सनी॑ळेभिः श्रव॒स्या॑नि॒ तूर्व॑न्म॒रुत्वा॑न्नो भव॒त्विन्द्र॑ ऊ॒ती ॥
स्वर सहित पद पाठसः । सू॒नुऽभिः॑ । न । रु॒द्रेभिः॑ । ऋभ्वा॑ । नृ॒ऽसह्ये॑ । स॒स॒ह्वान् । अ॒मित्रा॑न् । सऽनी॑ळेभिः । श्र॒व॒स्या॑नि । तूर्व॑न् । म॒रुत्वा॑न् । नः॒ । भ॒व॒तु॒ । इन्द्रः॑ । ऊ॒ती ॥
स्वर रहित मन्त्र
स सूनुभिर्न रुद्रेभिरृभ्वा नृषाह्ये सासह्वाँ अमित्रान्। सनीळेभिः श्रवस्यानि तूर्वन्मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती ॥
स्वर रहित पद पाठसः। सूनुऽभिः। न। रुद्रेभिः। ऋभ्वा। नृऽसह्ये। ससह्वान्। अमित्रान्। सऽनीळेभिः। श्रवस्यानि। तूर्वन्। मरुत्वान्। नः। भवतु। इन्द्रः। ऊती ॥ १.१००.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 100; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः सेनाद्यध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
मरुत्वान्सासह्वानिन्द्रः सूनुभिर्न सनीडेभी रुद्रेभिर्ऋभ्वा च सह वर्त्तमानानि श्रवस्यानि संपाद्य नृषाह्येऽमित्रान् तूर्वन् प्रयतते स न ऊत्यूतये भवतु ॥ ५ ॥
पदार्थः
(सः) यः सत्यगुणकर्मस्वभावः (सूनुभिः) पुत्रैः पुत्रवद्भृत्यैर्वा (न) इव (रुद्रेभिः) दुष्टान् रोदयद्भिः प्राणैरिव वीरैः (ऋभ्वा) महता मेधाविना मन्त्रिणा। अत्र सुपां सुलुगित्याकारादेशः। (नृषाह्ये) शूरवीरैः सोढुमर्हे संग्रामे (सासह्वान्) तिरस्कर्त्ता। अत्र सह अभिभवे इत्यस्मात्क्वसुः। तुजादीनां दीर्घोऽभ्यासस्येति दीर्घः। (अमित्रान्) शत्रून् (सनीडेभिः) समीपवर्त्तिभिः (श्रवस्यानि) श्रवःसु धनेषु साधूनि वीरसैन्यानि (तूर्वन्) हिंसन् (मरुत्वान्नो०) इति पूर्ववत् ॥ ५ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यः सेनाद्यधिपतिः पुत्रवत्सत्कृतैः शस्त्रास्त्रयुद्धविद्यया सुशिक्षितैः सह वर्त्तमानां बलवतीं सेनां संभाव्यातिकठिनेऽपि संग्रामे दुष्टान् शत्रून् पराजयमानो धार्मिकान्मनुष्यान्पालयन् चक्रवर्त्ति राज्यं कर्त्तुं शक्नोति स एव सर्वैः सेनाप्रजापुरुषैः सदा सत्कर्त्तव्यः ॥ ५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह सेना आदि का अधिपति कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(मरुत्वान्) जिसकी सेना में प्रशंसित वीरपुरुष हैं वा (सासह्वान्) जो शत्रुओं का तिरस्कार करता है वह (इन्द्रः) परम ऐश्वर्य्यवान् सभापति (सूनुभिः) पुत्र वा पुत्रों के तुल्य सेवकों के (न) समान (सनीडेभिः) अपने समीप रहनेवाले (रुद्रेभिः) जो कि शत्रुओं को रुलाते हैं उनके और (ऋभ्वा) बड़े बुद्धिमान् मन्त्री के साथ वर्त्तमान (श्रवस्यानि) धनादि पदार्थों में उत्तम वीर जनों को इकठ्ठाकर (नृषाह्ये) जो कि शूरवीरों के सहने योग्य है, उस संग्राम में (अमित्रान्) शत्रुजनों को (तूर्वन्) मारता हुआ उत्तम यत्न करता है, (सः) वह (नः) हम लोगों के (ऊती) रक्षा आदि व्यवहार के लिये (भवतु) हो ॥ ५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो सेना आदि का अधिपति पुत्र के तुल्य सत्कार किये और शस्त्र-अस्त्रों से सिद्ध होनेवाली युद्धविद्या से शिक्षा दिये हुए सेवकों के साथ वर्त्तमान बलवान् सेना को अच्छे प्रकार प्रकट कर अति कठिन भी संग्राम में दुष्ट शत्रुओं को हार देता और धार्मिक मनुष्यों की पालना करता हुआ चक्रवर्त्ति राज्य कर सकता है, वही सब सेना तथा प्रजा के जनों को सदा सत्कार करने योग्य है ॥ ५ ॥
विषय
प्रभु के पुत्र ‘रुद्र’
पदार्थ
१. (सः) = वे प्रभु (सूनुभिः न) = पुत्रों के समान (रुद्रेभिः) = इन मरुतों से [मरुतः = रुद्राः] (ऋभ्वा) = महान् हैं । मरुत् प्रभु के मानो पुत्र हैं । पुत्र जैसे पिता के कार्य को सम्पन्न करता है , उसी प्रकार ये (रुद्र) = मरुत् व प्राण प्रभु के कार्य को सम्पन्न करते हैं । प्रभु इनके द्वारा ही तो हमारा रक्षण करते हैं । वे प्रभु (नृषाह्ये) = संग्राम में (अमित्रान्) = शत्रुओं को (सासह्वान्) = पूर्णरूप से पराभूत करते हैं । काम - क्रोधादि से हमारा जो अध्यात्म संग्राम चलता है , उस अध्यात्म - संग्राम में प्रभु ही इनका पराभव करते हैं - (
‘त्वयास्विद् युजा वयम्’ - प्रभुरूप साथी को प्राप्त करके ही हम इन शत्रुओं को जीतते हैं ।
३. (सनीळेभिः) = समान निलय [निवासस्थानवाले] इन मरुतों के द्वारा (श्रवस्यानि) = यशस्वी कार्यों को (तूर्वन्) = अतिशय से करता हुआ [तुर्व-to excel] (मरुत्वान्) = मरुतोंवाला (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (नः) = हमारे (ऊती) = रक्षण के लिए (भवतु) = हो । शरीर में सब प्राणों का निवास उसी प्रकर है , जैसे जीवात्मा का । जीवात्मा के साथ समान निलयवाले ये प्राण हैं । जब तक ये जीवात्मा के साथ समान निलयवाले बने रहते हैं तब तक ये शरीर में क्षीणता नहीं आने देते ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राण प्रभु के पुत्र के समान हैं । प्रभु इनके द्वारा ही हमारा रक्षण करते हैं ।
विशेष / सूचना
सूचना - राष्ट्र में मरुत् सैनिक होते हैं । ये भी लम्बी - लम्बी बैरकों में एक - साथ रहने से सनीड़ होते हैं । इन्हीं के द्वारा राजा राष्ट्र का रक्षण करता है । ये राजा के पुत्र - तुल्य होने चाहिएँ ।
विषय
वह संग्रामविजय, न्याय प्रकाश, अनुग्रह आदि का कर्त्ता हो ।
भावार्थ
( मरुत्वान् इन्द्रः ) तीव्र वेग वाले वायुओं सहित विद्युत्, जिस प्रकार ( श्रवस्यानि तूर्वत् नः ऊती ) अन्नों के उत्पादक जलों को अधात कर वृष्टि द्वारा हम लोगों की प्राणरक्षा के लिये होता है उसी प्रकार ( सः ) वह ( मरुत्वान् ) तीव्र, वायुवेग से जाने वाले, वीर सैनिकों का स्वामी, ( ऋभ्वा ) महान् ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् राजा या सेनापति ( सूनुभिः न ) पुत्रों के समान प्रिय, ( रुद्रेभिः ) शत्रुओं को रुलाने वाले, अति भयंकर, (सनीळेभिः) एक ही समान आश्रय या छावनी में रहने वाले वीरों, भटों से ( नृषाह्ये ) नायक पुरुषों द्वारा विजय करने योग्य संग्राम में ( अमित्रान् ) शत्रुओं को पराजित करने हारा और ( श्रवस्यानि ) अन्नादि वेतनों के लिये युद्ध करने वाले शत्रु सैन्यों को ( तूर्वन् ) विनाश करता हुआ ( नः ऊती भवतु ) हमारी रक्षा के लिये हो । अथवा—( नृषाह्ये श्रवस्यानि तूर्वन् ) संग्राम में बाज़ियें मारता हुआ अर्थात् विजय करता हुआ । इत्यष्टमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेव भयमानसुराघस ऋषयः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५ पङ्क्तिः ॥ २, १३, १७ स्वराट् पङ्क्तिः । ३, ४, ११, १८ विराट् त्रिष्टुप् । ६, १०, १६ भुरिक पङ्क्तिः । ७,८,९,१२,१४, १५, १९ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकोन विंशत्यृचसूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जो सेनापती पुत्राप्रमाणे असणाऱ्या शस्त्रास्त्र युद्धविद्येत प्रशिक्षित बलवान सेनेने अत्यंत कठीण युद्धात दुष्ट शत्रूंचा पराभव करतो व धार्मिक माणसांचे पालन करून चक्रवर्ती राज्य करू शकतो, तोच सेनेद्वारे व प्रजेद्वारे सत्कार करण्यायोग्य असतो. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, prudent and wise, commander of the Maruts, challenging his opponents in the battle of the brave with the assistance of Rudras, fierce fighters dear as his children, and overthrowing the shooting bowmen of the enemy with the force of his companions, may he, we pray, be our leader and protector on way to progress.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is indra (Commander in the Army) is taught in the fifth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
May Indra (Commander of the Army) be our Protector who is true in mind, word and deed, mighty with brave soldiers living together in his neighbourhood as his sons, who make their enemies weep by overcoming them in battles, who has a highly intelligent and wise person as his secretary or Minister, destroying all his adversaries by organising a strong army.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(रुद्रेभिः) दुष्टान् रोदयद्भिः प्रारणैरिव वीरैः = By brave soldiers causing their foes to weep, treated as life itself. (तुर्वन्) हिंसन् = Destroying or killing. (श्रवस्यानि) श्रवःसु धनेषु साधूनि-वीरसैन्यानि = Brave armies.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
That commander of the army who has a strong force consisting of well-trained brave persons respected and treated like sons, equipped with powerful weapons, destroying un-righteous wicked persons and preserving righteous men, can rule over a vast and good Government. He alone should be honoured by all men of the public and the army.
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