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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 100 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 100/ मन्त्र 14
    ऋषिः - वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेवभयमानसुराधसः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यस्याज॑स्रं॒ शव॑सा॒ मान॑मु॒क्थं प॑रिभु॒जद्रोद॑सी वि॒श्वत॑: सीम्। स पा॑रिष॒त्क्रतु॑भिर्मन्दसा॒नो म॒रुत्वा॑न्नो भव॒त्विन्द्र॑ ऊ॒ती ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्य॑ । अज॑स्रम् । शव॑सा । मान॑म् । उ॒क्थम् । प॒रि॒ऽभु॒जत् । रोद॑सी॒ इति॑ । वि॒श्वतः॑ । सी॒म् । सः । पा॒रि॒ष॒त् । क्रतु॑ऽभिः । म॒न्द॒सा॒नः । म॒रुत्वा॑न् । नः॒ । भ॒व॒तु॒ । इन्द्रः॑ । ऊ॒ती ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्याजस्रं शवसा मानमुक्थं परिभुजद्रोदसी विश्वत: सीम्। स पारिषत्क्रतुभिर्मन्दसानो मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्य। अजस्रम्। शवसा। मानम्। उक्थम्। परिऽभुजत्। रोदसी इति। विश्वतः। सीम्। सः। पारिषत्। क्रतुऽभिः। मन्दसानः। मरुत्वान्। नः। भवतु। इन्द्रः। ऊती ॥ १.१००.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 100; मन्त्र » 14
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    यस्य शवसा प्रजाः मानुमुक्थं सीं विश्वतोऽजस्रं परिभुजद्रोदसी च यः क्रतुभिर्मन्दसानः सुखैः प्रजाः पारिषत् स मरुत्वानिन्द्रो न ऊत्यजस्रं भवतु ॥ १४ ॥

    पदार्थः

    (यस्य) सभाद्यध्यक्षस्य (अजस्रम्) सततम् (शवसा) शरीरात्मबलेन (मानम्) सत्कारम् (उक्थम्) वेदविद्याः (परिभुजत्) सर्वतो भुञ्ज्यात् पालयेत्। अत्र भुजधातोर्लिटि विकरणव्यत्ययेन शः। (रोदसी) विद्याप्रकाशपृथिवीराज्ये (विश्वतः) सर्वतः (सीम्) धर्म्मन्यायमर्य्यादापरिग्रहे। सीमिति परिग्रहार्थीयः। निरु० १। ७। (सः) (पारिषत्) सुखैः प्रजाः पालयेत्। अत्र पृधातोर्लेटि सिप्। सिब्बहुलं छन्दसि णित्। इति वार्त्तिकेन णित्वाद् वृद्धिः। (क्रतुभिः) श्रेष्ठैः कर्मभिः सह (मन्दसानः) प्रशंसादियुक्तः (मरुत्वान्नो०) इति पूर्ववत् ॥ १४ ॥

    भावार्थः

    यः सत्पुरुषाणां मानं दुष्टानां परिभवं पूर्णां विद्याधर्ममर्य्यादां पुरुषार्थमानन्दं च कर्त्तुं शक्नुयात् स एव सभाद्यध्यक्षाद्यधिकारमर्हेत् ॥ १४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (यस्य) जिस सभा आदि के अधीश के (शवसा) शारीरिक तथा आत्मिक बल से युक्त प्रजाजन (मानम्) सत्कार (उक्थम्) वेदविद्या तथा (सीम्) धर्म न्याय की मर्यादा को (विश्वतः) सब ओर से (अजस्रम्) निरन्तर पालन और जो (रोदसी) विद्या के प्रकाश और पृथिवी के राज्य को भी (परिभुजत्) अच्छे प्रकार पालन करे। जो (क्रतुभिः) उत्तम बुद्धिमानी के कामों के साथ (मन्दसानः) प्रशंसा आदि से परिपूर्ण हुआ सुखों से प्रजाओं को (पारिषत्) पालता है (सः) वह (मरुत्वान्) अपनी सेना में उत्तम वीरों का रखनेवाला (इन्द्रः) परमैश्वर्य्यवान् सभापति (नः) हम लोगों के (ऊती) रक्षा आदि व्यवहार को सिद्ध करनेवाला निरन्तर (भवतु) होवे ॥ १४ ॥

    भावार्थ

    जो सत्पुरुषों का मान, दुष्टों का तिरस्कार, पूरी विद्या, धर्म की मर्यादा, पुरुषार्थ और आनन्द कर सके, वही सभाध्यक्षादि अधिकार के योग्य हो ॥ १४ ॥

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    विषय

    ‘मानं उक्थम्’ ज्ञान व स्तवन

    पदार्थ

    १. (यस्य) = उस प्रभु का (मानम्) = ज्ञान [मा = मापना] तथा (उक्थम्) = स्तवन (शवसा) = बल के द्वारा (अजस्रम्) = निरन्तर (रोदसी) = द्युलोक व पृथिवीलोक को (विश्वतः) = सब ओर से (सीम) = निश्चर्यपूर्वक (परिभजत्) = पालित करता है । जो भी व्यक्ति प्रभु का ज्ञान प्राप्त करने के लिए यत्नशील होता है और प्रभु का स्तवन करता है , उसे शक्ति प्राप्त होती है और इस शक्ति के द्वारा वह प्रभु की रक्षा का पात्र बनता है । 

    २. (क्रतुभिः) = हमारे यज्ञादि उत्तम कर्मों से (मन्दसानः) = मोद व हर्ष का अनुभव करता हुआ (सः) = वह प्रभु (पारिषत्) = हमें कष्टों से पार पहुँचाए । (मरुत्वान्) = ये वायुओं और प्राणोंवाले (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (नः) = हमारे (ऊती) = रक्षण के लिए (भवतु) = हों । वायु के द्वारा वे हमें जीवन दें तो प्राण के द्वारा हममें शक्ति का सञ्चार करें । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु का ज्ञान व स्तवन हमारा कल्याण करता है । हम यज्ञात्मक कर्मों के द्वारा प्रभु को प्रीणित करनेवाले होते हैं । 

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    विषय

    उसके कर्तव्य ।

    भावार्थ

    ( यस्य ) जिसका ( मानम् ) शत्रुओं को नाश करने का सामर्थ्य और ( उक्थम ) वचन अर्थात् आज्ञा वचन ( अजस्त्रं ) निरन्तर बेरोक, अखण्डित होकर ( रोदसी ) आकाश और भूमि के समान राजवर्ग और प्रजावर्ग दोनों को ( विश्वतः सीम् ) सब तरफ़ से, सब प्रकारों से ( शवसा ) बलपूर्वक ( परिभुजत् ) रक्षा करता है वह ( मन्दसानः ) स्तुति और हर्ष को प्राप्त होकर ( क्रतुभिः ) उत्तम २ विज्ञानों से ( पारिषत् ) प्रजा का पालन करे। वह ( मरुत्वान् ) वीरों और विद्वान् पुरुषों का स्वामी ( इन्द्रः ) राजा ( नः ऊती भवतु ) हमारा रक्षक हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेव भयमानसुराघस ऋषयः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५ पङ्क्तिः ॥ २, १३, १७ स्वराट् पङ्क्तिः । ३, ४, ११, १८ विराट् त्रिष्टुप् । ६, १०, १६ भुरिक पङ्क्तिः । ७,८,९,१२,१४, १५, १९ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकोन विंशत्यृचसूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो सत्पुरुषांचा मान, दुष्टांचा तिरस्कार, पूर्ण विद्या, धर्माची मर्यादा, पुरुषार्थ व आनंद देऊ शकतो, तोच सभाध्यक्षाच्या अधिकारायोग्य आहे. ॥ १४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Whose constant measure and grandeur divine, the heaven and earth with their power and potential share and celebrate all round, may that Indra, we pray, happy with our yajnic performances, take us across the seas of existence. May he, commanding the Maruts, be our protector in life and hereafter.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is Indra taught further in the fourteenth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    May Indra (President of the Assembly) be our protector by whose physical and spiritual power, the people enjoy on all sides honour and Vedic wisdom along with the light of knowledge and the kingdom of the earth. May he protect and preserve the subjects with happiness, being glorified on account of noble acts and always acting according to the proper limits of Dharma (righteousness) and justice.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (शवसा) शरीरात्मबलेन = By the physical and spiritual power. (रोदसी) विद्याप्रकाशपृथिवीराज्ये = The light of knowledge and kingdom of earth. (पारिषत् ) सुखै: प्रजा: पालयेत् = May protect the subjects with happiness. (ऋतुभिः) श्रेष्ठैः कर्मभिः सह = With noble deeds.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    He alone is fit to be the President of the Assembly or the council of Ministers, who is able to respect the virtuous, subdue the wicked, can set proper limit for everything and bring about bliss by making people industrious.

    Translator's Notes

    शव इति बलनाम (निघ० २.६) ऋतुरिति कर्मनाम ( निघ० २.१ )

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