ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 100/ मन्त्र 12
ऋषिः - वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेवभयमानसुराधसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स व॑ज्र॒भृद्द॑स्यु॒हा भी॒म उ॒ग्रः स॒हस्र॑चेताः श॒तनी॑थ॒ ऋभ्वा॑। च॒म्री॒षो न शव॑सा॒ पाञ्च॑जन्यो म॒रुत्वा॑न्नो भव॒त्विन्द्र॑ ऊ॒ती ॥
स्वर सहित पद पाठसः । व॒ज्र॒ऽभृत् । द॒स्यु॒ऽहा । भी॒मः । उ॒ग्रः । स॒हस्र॑ऽचेताः । श॒तऽनी॑थः । ऋभ्वा॑ । च॒म्री॒षः । न । शव॑सा । पाञ्च॑ऽजन्यः । म॒रुत्वा॑न् । नः॒ । भ॒व॒तु॒ । इन्द्रः॑ । ऊ॒ती ॥
स्वर रहित मन्त्र
स वज्रभृद्दस्युहा भीम उग्रः सहस्रचेताः शतनीथ ऋभ्वा। चम्रीषो न शवसा पाञ्चजन्यो मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती ॥
स्वर रहित पद पाठसः। वज्रऽभृत्। दस्युऽहा। भीमः। उग्रः। सहस्रऽचेताः। शतऽनीथः। ऋभ्वा। चम्रीषः। न। शवसा। पाञ्चऽजन्यः। मरुत्वान्। नः। भवतु। इन्द्रः। ऊती ॥ १.१००.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 100; मन्त्र » 12
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
यश्चम्रीषो न वज्रभृद्दस्युहा भीम उग्रः सहस्रचेताः शतनीथः पाञ्चजन्यो मरुत्वानिन्द्रः सेनाद्यधिपतिर्ऋभ्वा शवसा शत्रूत्समजाति स न ऊती भवतु ॥ १२ ॥
पदार्थः
(सः) (वज्रभृत्) यो वज्रं शस्त्रास्त्रसमूहं बिभर्त्ति सः (दस्युहा) दुष्टानां चौराणां हन्ता (भीमः) एतेषां भयङ्करः (उग्रः) अतिकठिनदण्डप्रदः (सहस्रचेताः) असंख्यातविज्ञानविज्ञापनः (शतनीथः) शतानि नीथानि यस्य सः (ऋभ्वा) महता (चम्रीषः) ये चमूभिः शत्रुसेना ईषन्ते हिंसन्ति ते (न) इव (शवसा) बलयुक्तेन सैन्येन (पाञ्चजन्यः) पञ्चसु सकलविद्येष्वध्यापकोपदेशकराजसभासेनासर्वजनाधीशेषु जनेषु भवः पाञ्चजन्यः। बहिर्देवपञ्चजनेभ्यश्चेति वक्तव्यम्। अ० ४। ३। ५८। (मरुत्वान्नो भवन्त्विन्द्र०) इति पूर्ववत् ॥ १२ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। नहि कश्चिन्मनुष्यो धनुर्वेदविज्ञानप्रयोगाभ्यां शत्रूणां हनने भयप्रदेन तीव्रेण सामर्थ्येन प्रवृद्धेन सैन्येन च विना सेनापतिर्भवितुं शक्नोति नैवं भूतेन विना शत्रुपराजयः प्रजापालनं च संभवतीति वेदितव्यम् ॥ १२ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(चम्रीषः) जो अपनी सेना से शत्रुओं की सेनाओं के मारनेहारों के (न) समान (वज्रभृत्) अति कराल शस्त्रों को बाँधने (दस्युहा) डाकू, चोर, लम्पट, लबाड़ आदि दुष्टों को मारने (भीमः) उनको डर और (उग्रः) अति कठिन दण्ड देने (सहस्रचेताः) हजारहों अच्छे प्रकार के ज्ञान प्रकट करनेवाला (शतनीथः) जिसके सैकड़ों यथायोग्य व्यवहारों के वर्त्ताव हैं (पाञ्चजन्यः) जो सब विद्याओं से युक्त पढ़ाने, उपदेश करने, राज्यसम्बन्धी सभा, सेना और सब अधिकारियों के अधिष्ठाताओं में उत्तमता से हुआ (मरुत्वान्) और अपनी सेना में उत्तम वीरों को राखनेवाला (इन्द्रः) परमैश्वर्य्यवान् सेना आदि का अधीश (ऋभ्वा) अतीव (शवसा) बलवान् सेना से शत्रुओं को अच्छे प्रकार प्राप्त होता है (सः) वह (नः) हम लोगों के (ऊती) रक्षा आदि व्यवहारों के लिये (भवतु) होवे ॥ १२ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को जानना चाहिए कि कोई मनुष्य धनुर्वेद के विशेष ज्ञान और उसको यथायोग्य व्यवहारों में वर्त्तने और शत्रुओं के मारने में भय के देनेवाले वा तीव्र अगाध सामर्थ्य और प्रबल बढ़ी हुई सेना के विना सेनापति नहीं हो सकता। और ऐसे हुए विना शत्रुओं का पराजय और प्रजा का पालन हो सके, यह भी सम्भव नहीं, ऐसा जानें ॥ १२ ॥
विषय
स्तुतिविषयः
व्याखान
हे दुष्टनाशक परमात्मन्! आप (वज्रभृत्) अच्छेद्य (दुष्टों के छेदक) सामर्थ्य से सर्वशिष्ट हितकारक, दुष्ट - विनाशक जो न्याय उसको धारण कर रहे हो, [ प्राणो वा वज्रः१ इत्यादि शतपथादि का प्रमाण है।] अतएव (दस्युहा) दुष्ट, पापी लोगों का हनन करनेवाले हो । (भीमः) आपकी न्याय आज्ञा को छोड़नेवालों को (उग्रः) भयङ्कर भय देनेवाले हो। (सहस्त्रचेताः) सहस्रों विज्ञानादि गुणवाले आप ही हो। (शतनीथः) सैकड़ों-असंख्यात पदार्थों की प्राप्ति करानेवाले हो । “ऋभ्वा" विज्ञानादि अत्यन्त प्रकाशवाले हो और सबके प्रकाशक हो तथा महान् वा महाबलवाले हो । (न, चम्रीषः) किसी की चमू (सेना) से वश को प्राप्त नहीं होते हो। (शवसा, पाञ्चजन्यः) स्वबल से आप पाञ्चजन्य (पाँच प्राणों के) जनक हो। (मरुत्वान्) सब प्रकार के वायुओं के आधार तथा चालक हो, सो आप (इन्द्रः) (नः) हमारी (ऊती) रक्षा के लिए (भवतु) प्रवृत्त हों, जिससे हमारा कोई काम न बिगड़े ॥ ३४ ॥
टिपण्णी
१. अनुपलब्ध मूल । - सं०
विषय
पाञ्चजन्य प्रभु
पदार्थ
१. (सः) = वे प्रभु (वज्रभृत्) = क्रियाशीलतारूप वज्र को धारण करनेवाले हैं , (दस्युहा) = हमारी दास्यव = आसुरी वृत्तियों को नष्ट करनेवाले हैं , (भीमः) = कामादि शत्रुओं के लिए भयंकर हैं । जहाँ प्रभु का स्मरण है वहाँ कामादि शत्रुओं का प्रवेश नहीं हो पाता , (उग्रः) = वे प्रभु अत्यन्त तेजस्वी हैं , उद्गूर्ण बलवाले हैं , (सहस्रचेताः) =अनन्त ज्ञानवाले हैं , (शतनीथः) = शतशः पदार्थों को प्राप्त करानेवाले हैं । (ऋभ्वा) = महान् हैं अथवा अत्यन्त भासमान हैं । इन सब शब्दों के द्वारा प्रभु का स्तवन हमें भी ऐसा ही बनने की प्रेरणा देता है - [क] हम भी क्रियाशील बनें , [ख] आसरीवृत्तियों को नष्ट करें , [ग] कामादि शत्रुओं के लिए भीम व उग्र हों , [घ] खूब ज्ञान प्राप्त करें , [ङ] खूब दानी बनें ।
२. (चम्रीषः न) = सोम की भांति वे प्रभु (शवसा) = शक्ति के द्वारा (पाञ्चजन्यः) = पञ्च जनों का - मनुष्यों का हित करनेवाले हैं । सोमशक्ति शरीर में सुरक्षित होकर हमारा कल्याण करती है । इसी प्रकार प्रभु का स्मरण हमें शक्तिसम्पन्न बनाता है और हमारी उन्नति का कारण होता है ।
३. ये (मरुत्वान्) = वायुओं व प्राणोंवाले (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (नः) = हमारी (ऊती) = रक्षा के लिए (भवतु) = हों । प्राणसाधना व प्रभुस्मरण से सोम का रक्षण होता है और यह सुरक्षित सोम हमारा कल्याण करता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभुस्तवन हमें शक्तिसम्पन्न बनाकर सुरक्षित करता है ।
विषय
उसके कर्तव्य ।
भावार्थ
( नः ऊती ) हमारी रक्षा के लिये ( सः ) वह ( मरुत्वान् ) वीर सैनिकों और विद्वानों सहित ( इन्द्रः ) शत्रुहन्ता राजा ( वज्रभृत् ) शस्त्रास्त्र का धारण करने वाला, ( दस्युहा ) प्रजा के नाशक पुरुषों को दण्ड द्वारा विनष्ट करने वाला, ( भीमः ) दुष्टों के चित्तों में भय उत्पन्न करने वाला, ( उग्रः ) शत्रुओं के भीतर उद्वेग उत्पन्न करने वाला, सदा दण्ड देने में समर्थ, ( सहस्र-चेताः ) सहस्रों विज्ञानों का जानने वाला तथा सहस्रों चित्तों तथा ज्ञानी पुरुषों का स्वामी, (शतनीथः) सैकड़ों पदार्थों को प्राप्त कराने वाला, ( ऋभ्वा ) स्वयं महान्, या बड़े भारी सामर्थ्य और सत्य ज्ञान से प्रकाशमान् तेजस्वी, (शवसा) बल से ही वह ( चम्रीषः न ) सेना द्वारा शत्रु नाशकारी महावीर के समान ( पाञ्चजन्यः ) पांचों जनो के बीच उनपर शासक रूप से विद्यमान ( भवतु ) हो ।
टिप्पणी
'पाञ्चजन्यः’—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और निषाद, अथवा—गन्धर्व, अप्सरस्, देव, असुर, राक्षस (सा०) । अथवा—अध्यापक, उपदेशक, सभाध्यक्ष, सेनापति, सर्वजनाध्यक्ष ये पांच ( द० )
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेव भयमानसुराघस ऋषयः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५ पङ्क्तिः ॥ २, १३, १७ स्वराट् पङ्क्तिः । ३, ४, ११, १८ विराट् त्रिष्टुप् । ६, १०, १६ भुरिक पङ्क्तिः । ७,८,९,१२,१४, १५, १९ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकोन विंशत्यृचसूक्तम् ॥
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. माणसांनी हे जाणले पाहिजे की, कुणीही माणूस धनुर्वेदाचे विशेष ज्ञान व ते यथायोग्य व्यवहारात आणणे आणि शत्रूंना मारण्यासाठी भय निर्माण करणे, तीव्र अगाध सामर्थ्य व प्रबल सेना याशिवाय सेनापती बनू शकत नाही. त्याशिवाय शत्रूंचा पराभव व प्रजेचे पालन होणे शक्य नाही, हे जाणावे. ॥ १२ ॥
विषय
स्तुती
व्याखान
हे दुष्टविनाशक परमेश्वरा! तू (वज्रभृत्) आपल्या दृष्टनाशक शक्तीने सर्वांना चांगला हितकारक व दुष्टविनाशक असा न्याय देतोस. (प्राणो वै वज्रः) हे शतपथ इत्यादीद्वारे प्रमाण मानले जाते. म्हणून (दस्युहा) दुष्ट पापी लोकांचे तू हनन करणारा आहेस. (भीमः) तुइया आशेचे उल्लंघन करणाऱ्यांना भयंकर भयभीत करतोस (सहस्रचेताः) हजारो विज्ञानांचा ज्ञाता तू आहेस. (शतनीथः) शेकडो [असंख्य] पदार्थाचा दाता तू आहेस. (ऋभ्वा) तूच विज्ञान प्रकाशक आहेस तसेच महाबलवान आहेस. सर्वांचा प्रकाशक तूच आहेस. (न चम्रीषः) तू कोणत्याही सेनेला वश होणारा नाहीस. (शवसा पाञ्चजन्यः) स्वसामर्थ्यवान तूपाचप्राणांचा जनक आहेस. (मरुत्वान्) सर्व प्रकारच्या वायूंचा आधार व चालक आहेस म्हणून तू (इन्द्रः) आमच्या रक्षणासाठी सिद्ध असतोस, ज्यामुळे आमचे कोणतेही काम बिघडू नये. ॥३४॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Indra is the wielder of the force of the thunderbolt, destroyer of the wicked, fierce, passionate, knowledgeable of a hundred things and problems, versatile with a hundred plans and policies, mighty, concentration of the force of armies as the centre of yajna congregations, manager of all the five communities with his power and intelligence. May be, commander of the Maruts, he our ruler and protector for freedom and progress.
Purport
The Destroyer of the wicked O Supreme Soul ! You by your irrefutable power (the power which is destroyer of the wicked) bear the Justice which is beneficial for all the learned, wise, cultured persons but destroyer of the wicked. You are the destroyer of the wicked and sinner and strike dreadful terror on those who go against Your Laws. You are the possessor of our devotees to obtain of thousands of attributes like true knowledge. You enable **ITY innumeralbe things (possessions). You are the Possessor of infinite Lustre of wisdom. You are the Illuminator of all, and You possess infinite Majesty. No army in the world can bring you under its control. With are the Master of all the contr With your own might you five types of mankind. You are the base and mover of all kinds of winds and physical forces in the world. Therefore, be kind enough for our safeguard, so that none of our enterprise, may suffer.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Indra is taught further in the 12th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
May Indra (Commander in-chief of the Army) associated with brave sol diers be our protector who like the destroyers of the armies of the enemies is the wielder of thunderbolt or powerful weapons, the slayer of robbers and thieves, fearful and fierce for the wicked, knowing about thousand and one things, a great scholar, a great leader, good towards highly learned teachers, preachers, President of the Assembly Commander of the army and leader of the public and who overthrows the inimical forces with mighty army.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(चम्त्रीष:) ये चमूभिः शत्रुसेना: ईषन्ते हिसन्ति ते । = Those who kill the enemies' armies with their powerful forces. (पांचजन्य:) पंचसु सकलविद्येषु अध्यापकोपदेशकराजसभासेनासर्वजनाधीशेषु जनेषु भवः पांचजन्यः बर्हिदेव पंचजनेभ्यश्चेति वक्तव्यम् (अष्टा ०४.३.५८) = Good for five kinds of people, learned teachers, preachers, presidents, the Assembly, Commanders of the Army, and public leaders.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
None can be the Commander in-chief of an army without the thorough knowledge and application of the Military science and without a strong power that can kill all enemies and strike terror into their hearts and organised powerful army. Without such a qualified Commander in-chief of the Army, it is not possible to defeat enemies and to protect or preserve the people.
नेपाली (1)
विषय
स्तुतिविषयः
व्याखान
हे दुष्टनाशक परमात्मन् ! तपाईं वज्रभृत् = अच्छेद्य सामर्थ द्वारा सर्वशिष्ट हितकारक, दुष्ट विनाशक जुन न्याय धारण गरी रहनु भएको छ [प्राणो वा वज्रः इत्यादि शतपथादि को प्रमाण छ] अतएव दस्युहा= दुष्ट, पापी हरु लाई हननकारी हुनुहुन्छ, भीमः = तपाईंको न्याय र आज्ञा त्याग्ने हरु लाई उग्रः = भयंकर त्रास दिने हुनुहुन्छ । सहस्स्रचेता : = सहस्रौं विज्ञानआदि गुण हरु ले युक्त तपाईं नै हुनुहुन्छ । शतनीथः = सयौं असंख्यात पदार्थ हरु को प्राप्ति गराउँने हुनुहुन्छ । ऋभ्वा = विज्ञान आदि अत्यन्त प्रकाश हरु ले युक्त र सबैका प्रकाशक तथा महान् वा महाबलशाली हुनुहुन्छ। न चम्रीष : = कसैका चमू अर्थात् सेना को बसमा प्राप्त हुनु हुन्न । शवसा, पाञ्चजन्य स्वशक्ति बाट तपाईं पाञ्चजन्य अर्थात् पाँचै प्राण हरु का जनक = हुनुहुन्छ। मरुत्वान् = सबैप्रकार का वायु हरु का आधार तथा सञ्चालक हुनुहुन्छ, अत एव तपाईं हे इन्द्रः = सर्वशक्तिमान. तपाईं नः = हाम्रो ऊती = रक्षाका लागि भवतु = प्रवृत्त हुनुहोस्, जसले हाम्रो कुनैकाम नबिग्रियोस् ॥३४॥
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