ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 100/ मन्त्र 4
ऋषिः - वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेवभयमानसुराधसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
सो अङ्गि॑रोभि॒रङ्गि॑रस्तमो भू॒द्वृषा॒ वृष॑भि॒: सखि॑भि॒: सखा॒ सन्। ऋ॒ग्मिभि॑रृ॒ग्मी गा॒तुभि॒र्ज्येष्ठो॑ म॒रुत्वा॑न्नो भव॒त्विन्द्र॑ ऊ॒ती ॥
स्वर सहित पद पाठसः । अङ्गि॑रःऽभिः । अङ्गि॑रःऽतमः । भू॒त् । वृषा॑ । वृष॑ऽभिः । सखि॑ऽभिः । सखा॑ । सन् । ऋ॒ग्मिऽभिः॑ । ऋ॒ग्मी । गा॒तुऽभिः॑ । ज्येष्ठः॑ । म॒रुत्वा॑न् । नः॒ । भ॒व॒तु॒ । इन्द्रः॑ । ऊ॒ती ॥
स्वर रहित मन्त्र
सो अङ्गिरोभिरङ्गिरस्तमो भूद्वृषा वृषभि: सखिभि: सखा सन्। ऋग्मिभिरृग्मी गातुभिर्ज्येष्ठो मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती ॥
स्वर रहित पद पाठसः। अङ्गिरःऽभिः। अङ्गिरःऽतमः। भूत्। वृषा। वृषऽभिः। सखिऽभिः। सखा। सन्। ऋग्मिऽभिः। ऋग्मी। गातुऽभिः। ज्येष्ठः। मरुत्वान्। नः। भवतु। इन्द्रः। ऊती ॥ १.१००.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 100; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।
अन्वयः
योऽङ्गिरोभिरङ्गिरस्तमो वृषभिर्वृषा सखिभिः सखा ऋग्मिभिर्ऋग्मी गातुभिर्ज्येष्ठः सन् भूदस्ति स मरुत्वानिन्द्रो न ऊती भवतु ॥ ४ ॥
पदार्थः
(सः) (अङ्गिरोभिः) अङ्गेषु रसभूतैः प्राणैः सह (अङ्गिरस्तमः) अतिशयेन प्राणवद्वर्त्तमानः (भूत्) भवति। अत्राडभावः। (वृषा) सुखसेचकः (वृषभिः) सुखवृष्टिनिमित्तैः (सखिभिः) सुहृद्भिः (सखा) सुहृत् (सन्) (ऋग्मिभिः) ऋच ऋग्वेदमन्त्राः सन्ति येषान्त ऋग्मयस्तैः। अत्र मत्वर्थीयो बाहुलकाद् ग्मिनिः प्रत्ययः। (ऋग्मी) ऋग्वेदी (गातुभिः) विद्यासुशिक्षिताभिर्वाणीभिः (ज्येष्ठः) अतिशयेन प्रशंसनीयः। अत्र ज्य च। अ० ५। ३। ६१। इति सूत्रेण प्रशस्यस्य स्थाने ज्यादेशः। (मरुत्वान्नो०) इति पूर्ववत् ॥ ४ ॥
भावार्थः
हे मनुष्या यो यथावदुपकारी सर्वोत्कृष्टः परमेश्वरो वा सभाद्यध्यक्षो विद्वानस्ति तं नित्यं भजध्वम् ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ।
पदार्थ
जो (अङ्गिरोभिः) अङ्गों में रसरूप हुए प्राणों के साथ (अङ्गिरस्तमः) अत्यन्त प्राण के समान वा (वृषभिः) सुख की वर्षा के कारणों से (वृषा) सुख सींचनेवाला वा (सखिभिः) मित्रों के साथ (सखा) मित्र वा (ऋग्मिभिः) ऋग्वेद के पढ़े हुओं के साथ (ऋग्मी) ऋग्वेद वा (गातुभिः) विद्या से अच्छी शिक्षा को प्राप्त हुई वाणियों से (ज्येष्ठः) प्रशंसा करने योग्य (सन्) हुआ (भूत्) है (सः) वह (मरुत्वान्) अपनी सृष्टि में प्रजा को उत्पन्न करनेवाला वा अपनी सेना में प्रशंसित वीरपुरुष रखनेवाला (इन्द्रः) ईश्वर और सभापति (नः) हम लोगों के (ऊती) रक्षा आदि व्यवहार के लिये (भवतु) हो ॥ ४ ॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो यथावत् उपकार करनेवाला सबसे अति उत्तम परमेश्वर वा सभा आदि का अध्यक्ष विद्वान् है, उसको नित्य सेवन करो ॥ ४ ॥
विषय
“अङ्गिरा , वृषा , सखा , ऋग्मी व गातु”
पदार्थ
१. (सः) = वे प्रभु (अङ्गिरोभिः) = अङ्गिरों से (अङ्गिरस्तमः भूत्) = अङ्गिरस्तम हैं । एक - एक अङ्ग में रसवाला व्यक्ति अङ्गिरस है । प्रभु सर्वमहान् अङ्गिरस हैं । प्रभु ही सबको अङ्गिरस बनाते हैं ।
२. वे प्रभु (वृषभिः वृषा भूत्) = शक्तिशालियों से शक्तिशाली हैं । सबको शक्ति देनेवाले हैं । प्रभु के सम्पर्क से हम अन्नमयकोश के दृष्टिकोण से वृषा होते हैं ।
३. (सखिभिः सखा सन्) = मित्रों से मित्र - सर्वमहान् मित्र होते हुए (ऋग्मिभिः ऋग्मी) = ज्ञानियों से उत्कृष्ट ज्ञानी हैं । सबसे बड़े सखा प्रभु हैं । संसार के अन्य व्यक्ति किसी के मित्र होते हैं तो किसी दूसरे के शत्रु भी । प्रभु मित्र - ही मित्र हैं - वे किसी के शत्रु नहीं । प्रभुभक्त भी मनोमयकोश के दृष्टिकोण से सखा बनता है और विज्ञानमयकोश के दृष्टिकोण से ज्ञानी बनता है ।
४. ये प्रभु (गातुभिः ज्येष्ठः) = गाने योग्य व्यक्तियों से , स्तोतव्यों से सर्वाधिक स्तोतव्य हैं । इस प्रभु के गुणों के गायन से ही सर्वोच्च आनन्द की प्राप्ति होती है । ये (मरुत्वान् इन्द्रः) = वायुओं व प्राणोंवाले प्रभु (नः) = हमारे (ऊती) = रक्षण के लिए (भवतु) = हों ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु सर्वमहान् “अङ्गिरा , वृषा , सखा , ऋग्मी व गातु” हैं । वे प्रभु हमारे रक्षण के लिए हैं । वस्तुतः रक्षण का मार्ग यही है कि हम भी अङ्गिरा आदि बनने का प्रयत्न करें ।
विषय
परम विद्वान्, परम सखा, आचार्य भी मरुत्वान् इन्द्र है।
भावार्थ
( सः ) वह पूर्वोक्त राजा ( अङ्गिरोभिः ) ज्ञानवान्, अग्नि के समान तेजस्वी और प्राणों के समान जीवनधारी पुरुषों सहित होकर भी उनमें सबसे अधिक ज्ञानी, तेजस्वी और जीवन शक्ति से युक्त ( भूत ) हो । वह ( वृषभिः वृषा भूत् ) वर्षणकारी मेघों के सहित सूर्य के समान प्रजा पर सुखों का वर्षक, परोपकारी और वीर पुरुषों के साथ रह कर भी सबसे अधिक बलवान् और सुखों का वर्षक हो । वह ( सखिभिः सखा सन् ) मित्रों के साथ सबसे बढ़ कर मित्र हो ( ऋग्मिभिः ऋग्मी ) वेद मन्त्र के ज्ञाता पुरुषों के साथ रह कर उनसे अधिक वेदों का अर्थज्ञ हो । वह ( गातुभिः ज्येष्ठः ) साम आदि गान करने और उत्तम स्तुति करने हारे भक्तों के साथ रह कर उत्तम सामज्ञ और उत्तम स्तुतिकारी, सबमें श्रेष्ठ हो । ऐसा ( मरुत्वान् इन्द्रः नः ऊती भवतु ) वीर सैनिकों और विद्वान् पुरुषों का स्वामी राजा और आचार्य हमारी रक्षा और ज्ञान वृद्धि के लिये हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेव भयमानसुराघस ऋषयः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५ पङ्क्तिः ॥ २, १३, १७ स्वराट् पङ्क्तिः । ३, ४, ११, १८ विराट् त्रिष्टुप् । ६, १०, १६ भुरिक पङ्क्तिः । ७,८,९,१२,१४, १५, १९ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकोन विंशत्यृचसूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! जो यथायोग्य उपकार करणारा, सर्वांमध्ये अत्यंत उत्तम परमेश्वर किंवा सभा इत्यादीचा अध्यक्ष विद्वान असतो, त्याचा नित्य स्वीकार करावा. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
With inflow of pranic energies, Indra is the life of life, mighty generous with showers of strength and joy, being a friend with friends. With scholars of Rks, he is master of divine knowledge and supreme of movement with those who are ever on the move. Lord and commander of Maruts, heroes of tempestuous speed and force, may he be our protector for progress and prosperity.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
May God who is the very life of the pranas or vital breaths, who is Rainer of happiness, Most Beautiful among the friends, venerable among those who claim veneration on account of their knowledge of the Rigveda, and other Vedic Mantras, and pre-eminent among those who deserve praise, be our Protector along with learned priests and other noble persons.(2) The Mantra is also applicable to the President of the Assembly who behaves with others like his own Prana, is showerer of happiness, an ideal friend and most admirable.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अगिंरोभिः) अंगेषु रसभूतैः प्रारणैः सह = With the Pranas or vital breaths. (अंगिरस्तमः) अतिशयेन गणवद् वर्तमानः = Like the very life of life. (गातुभिः) विद्यासुशिक्षिताभिर्वाणीभिः = With the most learned and cultured speech.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O man, you should adore that God who is Benevolent, the most exalted and the Best. You should also serve the most virtuous and admirable President of the Assembly.
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