ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 100/ मन्त्र 8
ऋषिः - वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेवभयमानसुराधसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तम॑प्सन्त॒ शव॑स उत्स॒वेषु॒ नरो॒ नर॒मव॑से॒ तं धना॑य। सो अ॒न्धे चि॒त्तम॑सि॒ ज्योति॑र्विदन्म॒रुत्वा॑न्नो भव॒त्विन्द्र॑ ऊ॒ती ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । अ॒प्स॒न्त॒ । शव॑सः । उ॒त्ऽस॒वेषु॑ । नरः॑ । नर॑म् । अव॑से । तम् । धना॑य । सः । अ॒न्धे । चि॒त् । तम॑सि । ज्योतिः॑ । वि॒द॒त् । म॒रुत्वा॑न् । नः॒ । भ॒व॒तु॒ । इन्द्रः॑ । ऊ॒ती ॥
स्वर रहित मन्त्र
तमप्सन्त शवस उत्सवेषु नरो नरमवसे तं धनाय। सो अन्धे चित्तमसि ज्योतिर्विदन्मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती ॥
स्वर रहित पद पाठतम्। अप्सन्त। शवसः। उत्ऽसवेषु। नरः। नरम्। अवसे। तम्। धनाय। सः। अन्धे। चित्। तमसि। ज्योतिः। विदत्। मरुत्वान्। नः। भवतु। इन्द्रः। ऊती ॥ १.१००.८
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 100; मन्त्र » 8
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे मनुष्या यं नरं शवसोऽप्सन्त तमुत्सवेषु सत्कुरुत तं नरोऽवसे धनायाप्सन्त। योऽन्धे तमसि ज्योतिश्चिदिव विजयं विदद्विन्दति स मरुत्वानिन्द्रो न ऊती भवतु ॥ ८ ॥
पदार्थः
(तम्) अतिरथं सेनाद्यधिपतिम् (अप्सन्त) प्राप्नुवन्तु। अत्र प्साधातोर्लङि छन्दस्युभयथेत्यार्द्धधातुकत्वादातो लोप इटि चेत्याकारलोपश्च। प्सातीति गतिकर्मा०। निघं० २। १४। (शवसः) बलानि (उत्सवेषु) आनन्दयुक्तेषु कर्मसु (नरः) नेतारो मनुष्याः (नरम्) नायकम् (अवसे) रक्षणाद्याय (तम्) (धनाय) उत्तमधनप्राप्तये (सः) (अन्धे) अन्धकारके (चित्) इव (तमसि) अन्धकारे (ज्योतिः) सूर्य्यादिप्रकाशः (विदत्) विन्दति। अत्र लडर्थे लुङडभावश्च। (मरुत्वान्नो०) इति पूर्ववत् ॥ ८ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यः शत्रून्विजित्य धार्मिकान् संरक्ष्य विद्याधने उन्नयति यं प्राप्य सूर्य्यप्रकाशमिव विद्याप्रकाशमाप्नुवन्ति तं जनमानन्ददिवसेषु सत्कुर्युः। नह्येवं विना कस्यचिच्छ्रेष्ठेषु कर्मसूत्साहो भवितुं शक्यः ॥ ८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह किस प्रकार का हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (नरम्) सब काम को यथायोग्य चलानेहारे जिस मनुष्य को (शवसः) विद्या, बल तथा धन आदि अनेक बल (अप्सन्त) प्राप्त हों (तम्) उस अत्यन्त प्रबल युद्ध करने से भी युद्ध करनेवाले सेना आदि के अधिपति को (उत्सवेषु) उत्सव अर्थात् आनन्द के कामों में सत्कार देओ तथा (तम्) उसको (नरः) श्रेष्ठाधिकार पानेवाले मनुष्य (अवसे) रक्षा आदि व्यवहार और (धनाय) उत्तम धन पाने के लिये प्राप्त होवें, जो (अन्धे) अन्धे के तुल्य करनेहारे (तमसि) अन्धेरे में (ज्योतिः) सूर्य्य आदि के उजेले रूप प्रकाश (चित्) ही को (विदत्) प्राप्त होता है (सः) वह (मरुत्वान्) अपनी सेना में उत्तम वीरों को राखनेहारा (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् सेनापति वा सभापति (नः) हम लोगों के (ऊती) अच्छे आनन्दों के लिये (भवतु) हो ॥ ८ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो शत्रुओं को जीत और धार्मिकों की पालना कर विद्या और धन की उन्नति करता है, जिसको पाकर जैसे सूर्य्यलोक का प्रकाश है वैसे विद्या के प्रकाश को प्राप्त होते हैं, उस मनुष्य को आनन्द-मङ्गल के दिनों में आदर-सत्कार देवें, क्योंकि ऐसे किये विना किसी को अच्छे कामों में उत्साह नहीं हो सकता ॥ ८ ॥
विषय
‘ज्योतिष्कर्ता’ प्रभु
पदार्थ
१. (नरः) = अपने को उन्नति - पथ पर ले - जानेवाले पुरुष (शवसः उत्सवेषु) = शक्तियों के उत्सवों , अर्थात् संग्रामों में (अवसे) = रक्षण के लिए (तं नरम्) = उस आगे ले - चलनेवाले प्रभु को (अप्सन्त) = प्राप्त करते हैं । प्रभु को ही तो इन संग्रामों में विजय प्राप्त करानी होती है । ये संग्राम शक्ति के उत्सव ही हैं । वीर पुरुष इनमें आनन्द का अनुभव करते हैं । ब्राह्मणों के उत्सव ज्ञानप्रधान होते हैं , क्षत्रियों के शक्ति - प्रधान ।
२. (तम्) = उस प्रभु को ही (धनाय) = धन के लिए भी प्राप्त होते हैं । सब ऐश्वर्यों के स्वामी वे प्रभु हैं । प्रभु ही हमें पुरुषार्थों के अनुरूप धन प्राप्त कराते हैं । (सः) = वे प्रभु (चित्) = ही (अन्धे तमसि) = अत्यन्त घने अन्धकार में (ज्योतिः विदत्) = प्रकाश प्राप्त कराते हैं । जिस समय जीवन में हमें चारों ओर अन्धकार - ही - अन्धकार दिखाई देता है , उस समय प्रभु ही प्रकाश की किरण प्राप्त कराते हैं । प्रभु के साथ होने पर हमारी सब व्याकुलता समाप्त हो जाती है । ये (मरुत्वान् इन्द्रः) = वायुओं व प्राणोंवाले प्रभु (नः) =हमारे (ऊती भवतु) = रक्षण के लिए हों । वायुओं से हमें जीवन प्राप्त होता है , प्राणसाधना से शरीर व मन के दोष दूर होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - संग्रामों में प्रभु ही रक्षण करते हैं । प्रभु ही जीवन - यात्रा के लिए आवश्यक धन देते हैं और घने अँधेरे में प्रकाश प्राप्त कराते हैं ।
विषय
उसके कर्तव्य ।
भावार्थ
( उत्सवेषु ) हर्षों के अवसरों पर और संग्राम के कालों में ( नरः ) प्रजाजन और नायक पुरुष और ( शवसः ) बलों के धारण करने वाले सैन्य से ( तम् ) उसी महारथी की शरण में ( अवसे ) रक्षा प्राप्त करने के लिये ( अप्सन्त ) आते हैं। और ( तम् ) उसी वीर पुरुष को वे ( धनाय ) धन प्राप्त करने के लिये भी प्राप्त होते हैं । ( सः ) वही ( अन्धे तमसि ) घोर अन्धकार में भी ( ज्योतिः ) सूर्य के समान ( विदत् ) प्रकाश देता और मार्ग दिखाता है। वह ( मरुत्वान् इन्द्रः ) वीर सैनिकों का स्वामी, ऐश्वर्यवान् राजा ( नः ऊती भवतु ) हम प्रजाजनों की रक्षा के लिये हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेव भयमानसुराघस ऋषयः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५ पङ्क्तिः ॥ २, १३, १७ स्वराट् पङ्क्तिः । ३, ४, ११, १८ विराट् त्रिष्टुप् । ६, १०, १६ भुरिक पङ्क्तिः । ७,८,९,१२,१४, १५, १९ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकोन विंशत्यृचसूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जो शत्रूंना जिंकून धार्मिक लोकांचे पालन करून विद्या व धन वृद्धिंगत करतो, सूर्य जसा प्रकाश देतो तशी त्याच्या संगतीने विद्या प्राप्त होते त्या माणसाचा आनंदाने सत्कार करावा. कारण असे केल्याखेरीज कुणालाही चांगल्या कामात उत्साह वाटणार नाही. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Him, in battles of greatness and celebrations, the people discover as a man among men for the sake of protection and prosperity. May he, creating light in the midst of utter darkness and commanding the force of Maruts, be our defender and promoter on way to peace and progress.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Indra is taught further in the eighth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men, honour that great leader in anniversaries or on joyful occasions, who is mighty and to whom other ordinary leaders approach for protection and wealth, as he grants them the light (of conquest) in the bewildering darkness (of battle). May that Indra (Commander in chief of the Army) be our protector, who is surrounded by brave warriors.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अप्सन्त) प्राप्नुवन्ति । अत्र साधातोर्लङि छन्दस्यु-भयथत्यार्धधातुकत्वात् आतोलोक इटि च इत्याकारलोपश्च प्सातीति गतिकर्मा (निघo २.१४) = Get or approach. (नरः) नेतारो मनुष्याः = Leaders.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men, honour that commander of the Army who conquers his enemies and protecting righteous persons, advances knowledge and wealth, having obtained whom, men get the light of wisdom like the light of the sun. Without this sort of encouragement, none can get stimulus for doing noble deeds.
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