ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 100/ मन्त्र 16
ऋषिः - वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेवभयमानसुराधसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
रो॒हिच्छ्या॒वा सु॒मदं॑शुर्लला॒मीर्द्यु॒क्षा रा॒य ऋ॒ज्राश्व॑स्य। वृष॑ण्वन्तं॒ बिभ्र॑ती धू॒र्षु रथं॑ म॒न्द्रा चि॑केत॒ नाहु॑षीषु वि॒क्षु ॥
स्वर सहित पद पाठरो॒हित् । श्या॒वा । सु॒मत्ऽअं॑शुः । ल॒ला॒मीः । द्यु॒क्षा । रा॒ये । ऋ॒ज्रऽअश्व॑स्य । वृष॑ण्ऽवन्तम् । बिभ्र॑ती । धूः॒ऽसु । रथ॑म् । म॒न्द्रा । चि॒के॒त॒ । नाहु॑षीषु । वि॒क्षु ॥
स्वर रहित मन्त्र
रोहिच्छ्यावा सुमदंशुर्ललामीर्द्युक्षा राय ऋज्राश्वस्य। वृषण्वन्तं बिभ्रती धूर्षु रथं मन्द्रा चिकेत नाहुषीषु विक्षु ॥
स्वर रहित पद पाठरोहित्। श्यावा। सुमत्ऽअंशुः। ललामीः। द्युक्षा। राये। ऋज्रऽअश्वस्य। वृषण्ऽवन्तम्। बिभ्रती। धूःऽसु। रथम्। मन्द्रा। चिकेत। नाहुषीषु। विक्षु ॥ १.१००.१६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 100; मन्त्र » 16
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ शिल्पिभिः सेनादिषु प्रयुक्तोऽग्निः कथम्भूतः सन्किं करोतीत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
या ऋज्राश्वस्य सम्बन्धिभिः शिल्पिभिः सुमदंशुर्ललामीर्द्युक्षा रोहिच्छ्यावा धूर्षु संप्रयुक्ता ज्वाला वृषण्वन्तं रथं बिभ्रती मन्द्रा नाहुषीषु विक्षु राये वर्त्तते, तां यश्चिकेत स आढ्यो जायते ॥ १६ ॥
पदार्थः
(रोहित्) अधस्ताद्रक्तवर्णा (श्यावा) उपरिष्टाच्छ्यामवर्णा ज्वाला (सुमदंशुः) शोभनोंऽशुर्ज्वलनं यस्याः सा (ललामीः) शिरोवदुपरिभागः प्रशस्तो यस्याः सा (द्युक्षा) दिवि प्रकाशे निवासो यस्याः सा। अत्र क्षि निवासगत्योरित्यस्मादौणादिको हः प्रत्ययः। (राये) धनप्राप्तये (ऋज्राश्वस्य) ऋज्रा ऋतुगामिनोऽश्वा वेगवन्तो यस्य तस्य सभाद्यध्यक्षस्य (वृषण्वन्तम्) वेगवन्तम् (बिभ्रती) (धूर्षु) अयःकाष्ठविशेषासु कलासु (रथम्) विमानादियानसमूहम् (मन्द्रा) आनन्दप्रदा (चिकेत) विजानीयाम् (नाहुषीषु) नहुषाणां मनुष्याणामिमास्तासु (विक्षु) प्रजासु ॥ १६ ॥
भावार्थः
यदा विमानचालनादिकार्य्येष्विन्धनैः संप्रयुक्तोऽग्निः प्रज्वलति तदा द्वे रूपे लक्ष्येते। एकं भास्वरं द्वितीयं श्यामञ्च। अतएवाग्नेः श्यामकर्णाश्व इति संज्ञा वर्त्तते। यथाऽश्वस्य शिरस उपरि कर्णौ दृश्यते तथाऽग्नेरुपरि श्यामा कज्जलाख्या शिखा भवति। सोऽयं कार्य्येषु सम्यक् प्रयुक्तो बहुविधं धनं प्रापय्य प्रजा आनन्दिताः करोति ॥ १६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब शिल्पी जनों का सेनादिकों में अच्छे प्रकार युक्त किया हुआ अग्नि कैसा होता है और क्या करता है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जो (ऋज्राश्वस्य) सीधी चाल से चले हुए जिसके घोड़े वेगवाले उस सभा आदि के अधीश का सम्बन्ध करनेवाले शिल्पियों को (सुमदंशुः) जिसका उत्तम जलाना (ललामीः) प्रशंसित जिसमें सौन्दर्य्य (द्युक्षा) और जिसका प्रकाश ही निवास है वह (रोहित्) नीचे से लाल (श्यावा) ऊपर से काली अग्नि की ज्वाला (धूर्षु) लोहे की अच्छी-अच्छी बनी हुई कलाओं में प्रयुक्त की गई (वृषण्वन्तम्) वेगवाले (रथम्) विमान आदि यान समूह को (बिभ्रती) धारण करती हुई (मन्द्रा) आनन्द की देनेहारी (नाहुषीषु) मनुष्यों के इन (विक्षु) सन्तानों के निमित्त (राये) धन की प्राप्ति के लिये वर्त्तमान है, उसको जो (चिकेत) अच्छे प्रकार जाने, वह धनी होता है ॥ १६ ॥
भावार्थ
जब विमानों के चलाने आदि कार्य्यों में इन्धनों से अच्छे प्रकार युक्त किया अग्नि जलता है, तब उसके दो ढङ्ग के रूप देख पड़ते हैं-एक उजेला लिये हुए दूसरा काला। इसीसे अग्नि को श्यामकर्णाश्व कहते हैं। जैसे घोड़े के शिर पर कान दीखते हैं, वैसे अग्नि के शिर पर श्याम कज्जल की चुटेली होती है। यह अग्नि कामों में अच्छे प्रकार जोड़ा हुआ बहुत प्रकार के धन को प्राप्त कराकर प्रजाजनों को आनन्दित करता है ॥ १६ ॥
विषय
उत्तम इन्द्रियाश्व
पदार्थ
१. प्रभु ने हमें शरीररूप रथ दिया है तो शरीर के साथ इन्द्रियाश्व भी दिये हैं । यह अश्वपङ्क्ति (रोहित् श्यावा) = ज्ञानेन्द्रियों के रूप में प्रादुर्भाव [रुह प्रादुर्भावे] व विकास की कारणभूत है और कर्मेन्द्रियों के रूप में गतिवाली है [श्यैङ् गतौ] । ज्ञानेन्द्रियाँ शरीररथ में प्रकाश [ज्ञान] देकर उन्नति की साधन बनती हैं और कर्मेन्द्रियाँ इस रथ को गति देनेवाली होती हैं । कर्मेन्द्रियों के कारण गति है और ज्ञानेन्द्रियों के कारण प्रकाश । यह अश्वपङ्क्ति (सुमदंशुः) = स्वयं [सुमत्] प्रकाशवाली [अंशु] है । प्रत्येक इन्द्रिय में प्रभु ने भिन्न - भिन्न कार्यों को करने की शक्ति रक्खी है । उन कार्यों को यह अश्वपति उत्तमता से कर रही है । (ललामीः) = यह अश्वपङ्क्ति इस शरीररथ की भूषणभूत है । इन इन्द्रियों से इस शरीररथ की शोभा नितान्त बढ़ गई है । (द्युक्षा) = यह प्रकाश में निवास करनेवाली है , मलिनता से रहित है ।
२. ऐसी यह अश्वपङ्क्ति (ऋज्राश्वस्य) = ऋजुगामी अश्वोंवाले पुरुष के (राये) = ऐश्वर्य के लिए होती है । जो भी व्यक्ति इन इन्द्रियाश्वों से सरल मार्ग पर गमन करता है , वह ऐश्वर्य को सिद्ध करनेवाला होता है ।
३. इस ऋत्राश्व की यह इन्द्रियाश्वपंक्ति (वृषण्वन्तं रथम्) = इस शक्तिशाली शरीररथ को (धूर्षु बिभ्रती) = उन - उन कार्यभारों में धारण करती हुई (मन्द्रा) = आनन्द की कारणभूत (चिकेत) = जानी जाती है । इन्द्रियाँ अपने - अपने कार्य को ठीक से करती चलें , यही सुख है । यह अश्वपङ्क्ति (नाहुषीषु विक्षु) = मानव प्रजाओं में ही है - उन प्रजाओं में ही है जोकि अपना सम्बन्ध उस प्रभु से स्थापित करने का प्रयत्न करती हैं [णह बन्धने] । पशु भोग - योनियों में होने से प्रभु के साथ अपना सम्बन्ध स्थापित नहीं कर पाते , वहाँ इन्द्रियों का इस प्रकार का विकास सम्भव नहीं । प्रभु के साथ सम्बन्ध जोड़नेवाले मनुष्यों में ये इन्द्रियाँ कल्याण का ही कारण बनती हैं । दौर्भाग्यवश इस मानवजीवन में भी हम भोगप्रधान जीवनवाले ही बन गये तो अकल्याण - ही - अकल्याण है ।
भावार्थ
भावार्थ - हमारे इन्द्रियाश्व सरल मार्ग से आगे बढ़ते हुए हमें प्रभु की ओर ले चलनेवाले हों ।
विषय
उसके कर्तव्य ।
भावार्थ
( ऋज्राश्वस्य ) खूब सधे हुए, युद्धकुशल अश्वों और अश्वारोहियों के स्वामी सेनापति की ( नाहुषीषु ) सुप्रबद्ध प्रजाओं के बीच में ( रोहित् ) लाल पोशाक वाली और ( श्यावा ) श्याम वर्ण के अस्त्र शस्त्रों से युक्त, ( सुमद्-अंशुः ) उत्तम व्यापक साधनों से युक्त, या स्वयं बहुत बड़ी ( ललामीः ) पौरुष युक्त, चीर पुरुषों से बनी, ( द्युक्षा ) विजय कार्य में लगी हुई सेना ( धूर्षु ) मुख्य २ केन्द्र स्थानों पर ( वृषण्वन्तम् ) शस्त्र वर्षण करने में समर्थ, बलवान्, ( रथं ) रथारोही महारथी को ( बिभ्रती ) धारण करती हुई ( मन्द्रा ) अति वेग से जाने वाली होकर ( राये ) ऐश्वर्य प्राप्त करने के लिये ( चिकेत ) जानी जाती है । (२) अग्नि के पक्ष में—अग्नि की ज्वाला ( रोहित-श्यावा ) लाल और नीली, उत्तम किरणों वाली ( ललामीः ) प्रदीप्त शिखा, धुरा स्थानों के बल परवेग वाले रथ को धारण करती हैं। वही सुखप्रद हो, वह प्रजाओं के बीच ज्ञान करने योग्य हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेव भयमानसुराघस ऋषयः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५ पङ्क्तिः ॥ २, १३, १७ स्वराट् पङ्क्तिः । ३, ४, ११, १८ विराट् त्रिष्टुप् । ६, १०, १६ भुरिक पङ्क्तिः । ७,८,९,१२,१४, १५, १९ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकोन विंशत्यृचसूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा विमान चालविण्याच्या कार्यात इंधन म्हणून संयुक्त केलेला अग्नी प्रज्वलित होतो, तेव्हा त्याची दोन रूपे असतात. एक प्रकाशमय व दुसरा अंधकारमय. त्यामुळे अग्नीला श्यामकर्णाश्व म्हणतात. जसे घोड्याच्या डोक्यावर कान दिसतात तसे अग्नीच्या डोक्यावर काळ्या रंगाची ज्वाला असते. हा अग्नी कामात चांगल्या प्रकारे प्रयुक्त होऊन पुष्कळ प्रकारचे धन प्राप्त करून देऊन प्रजेला आनंदित करतो. ॥ १६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Red and dark, bright and beautiful flames, as a banner mark, touching the heaven, carrying the mighty chariot of Indra, master of horse power, shooting straight on wheels for the target of wealth and knowledge, shine glorious for the people on earth, a blessed sight indeed.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Agni (Fire) used by artists in armies and other places is taught in the sixteenth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The flame of the fire which is used by great artists belonging to the President of the Assembly etc. whose horses are swift and who has controlled his senses, which (flame) has redness below and blackness above, which burns brightly and has beautiful head (or upper part), dwelling in light sustaining in machines made of wood and iron etc. the swift vehicles in the form of aero-planes etc., which cause delight and makes a man rich among human beings. He who knows its real nature, becomes wealthy by utilising it properly and scientifically.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(ललामी:) शिरोवत् उपरिभाग: प्रशस्तः यस्याः सा = The flame whose upper part is beautiful. (दध्युक्षा) दिविप्रकाशे निवासः यस्याः सा अत्रक्षि-निवासगत्योः इत्यस्मात् औणादिकः डः प्रत्ययः । = Whose dwelling is in light. (धूर्षु) अय: काष्ठ विशेषासु कलासु = In machines made of iron and wood etc. (नाहुषीषु विक्षु) नहुषाणां मनुष्याणाम् इमाः तासु प्रजासु । = Among human beings.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
When fire is kindled for the movement of various vehicles like the air-crafts, its two forms are visible, one is bright and the other is black. Therefore Agni (fire is called in Sanskrit by the name of श्याम कर्णाश्व As ears are seen above the head of a horse, in the same manner, above the fire there is a black flame. This fire when properly used in various works, enables a man to acquire much wealth and then leads to much material happiness.
Translator's Notes
नहुषा इति मनुष्यनाम (निघ० २.३ )
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