ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 100/ मन्त्र 13
ऋषिः - वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेवभयमानसुराधसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
तस्य॒ वज्र॑: क्रन्दति॒ स्मत्स्व॒र्षा दि॒वो न त्वे॒षो र॒वथ॒: शिमी॑वान्। तं स॑चन्ते स॒नय॒स्तं धना॑नि म॒रुत्वा॑न्नो भव॒त्विन्द्र॑ ऊ॒ती ॥
स्वर सहित पद पाठतस्य॑ । वज्रः॑ । क्र॒न्द॒ति॒ । स्मत् । स्वः॒ऽसाः । दि॒वः । न । त्वे॒षः । र॒वथः॑ । शिमी॑ऽवान् । तम् । स॒च॒न्ते॒ । स॒नयः॑ । तम् । धना॑नि । म॒रुत्वा॑न् । नः॒ । भ॒व॒तु॒ । इन्द्रः॑ । ऊ॒ती ॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्य वज्र: क्रन्दति स्मत्स्वर्षा दिवो न त्वेषो रवथ: शिमीवान्। तं सचन्ते सनयस्तं धनानि मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती ॥
स्वर रहित पद पाठतस्य। वज्रः। क्रन्दति। स्मत्। स्वःऽसाः। दिवः। न। त्वेषः। रवथः। शिमीऽवान्। तम्। सचन्ते। सनयः। तम्। धनानि। मरुत्वान्। नः। भवतु। इन्द्रः। ऊती ॥ १.१००.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 100; मन्त्र » 13
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
यस्य सभाद्यध्यक्षस्य स्मत्स्वर्षा रवथः शिमीवान्वज्रः क्रन्दति तस्य दिवस्त्वेषो न सूर्य्यस्य प्रकाश इव गुणकर्मस्वभावाः प्रकाशन्ते। य एवं भूतस्तं सनयः सचन्ते तं धनानि चेत्थं यो मरुत्वानिन्द्रो न ऊती प्रयतते सोऽस्माकं राजा भवतु ॥ १३ ॥
पदार्थः
(तस्य) (वज्रः) शस्त्रास्त्रसमूहः (क्रन्दति) श्रेष्ठानाह्वयति दुष्टान् रोदयति। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (स्मत्) तत्कर्मानुष्ठानोक्तम् (स्वर्षाः) स्वः सुखेन सनोति सः। अत्र स्वःपूर्वात् सन् धातोः कृतो बहुलमिति करणे विच्। (दिवः) प्रकाशस्य (न) इव (त्वेषः) यस्त्वेषति प्रदीप्तो भवति सः (रवथः) महाशब्दकारी (शिमीवान्) प्रशस्तानि कर्माणि भवन्ति यस्य सकाशात्। अत्र छन्दसीर इति मतुपो मकारस्य वत्वम्। शिमीति कर्मनाम०। निघं० २। १। (तम्) (सचन्ते) सेवन्ते (सनयः) उत्तमाः सेवाः (तम्) (धनानि) (मरुत्वान्नः) इति पूर्ववत् ॥ १३ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। सभासद्भृत्यसेनाप्रजाभिरीदृशान्युत्तमानि कर्माणि सेवनीयानि येभ्यो विद्यान्यायधर्मपुरुषार्था वर्धमानाः सूर्यवत्प्रकाशिताः स्युः। न हीदृशैः कर्मभिर्विनोत्तमानि सुखसेवनानि धनानि रक्षाश्च भवितुं शक्याः। तस्मादेवंभूतानि कर्माणि सभाद्यध्यक्षैः सेवनीयानि ॥ १३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जिस सभाद्यध्यक्ष का (स्मत्) काम के वर्त्ताव की अनुकूलता का (स्वर्षाः) सुख से सेवन और (रवथः) भारी कोलाहल शब्द करनेवाला (शिमीवान्) जिससे प्रशंसित काम होते हैं वह (वज्रः) शस्त्र और अस्त्रों का समूह (क्रन्दति) अच्छे जनों को बुलाता और दुष्टों को रुलाता है (तस्य) उसके (दिवः) सूर्य्य के (त्वेषः) उजेले के (न) समान गुण, कर्म और स्वभाव प्रकाशित होते हैं, जो ऐसा है (तम्) उसको (सनयः) उत्तम सेवा अर्थात् सज्जनों के किये हुए उत्साह (सचन्ते) सेवन करते और (तम्) उसको (धनानि) समस्त धन सेवन करते हैं, इस प्रकार (मरुत्वान्) जो सभाध्यक्ष अपनी सेना में उत्तम वीरों को रखनेवाला (इन्द्रः) परमैश्वर्य्यवान् तथा (नः) हम लोगों के (ऊती) रक्षादि व्यवहारों के लिये यत्न करता है, वह हम लोगों का राजा (भवतु) होवे ॥ १३ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। सभासद्, भृत्य, सेना के पुरुष और प्रजाजनों को चाहिये कि ऐसे उत्तम कामों का सेवन करें कि जिनसे विद्या, न्याय, धर्म वा पुरुषार्थ बढ़े हुए सूर्य के समान प्रकाशित हों, क्योंकि ऐसे कामों के विना उत्तम सुखों के सेवन, धन और रक्षा हो नहीं सकती, इससे ऐसे काम सभाध्यक्ष आदि को करने योग्य हैं ॥ १३ ॥
विषय
धन व धनदान के स्वामी
पदार्थ
१. (तस्य) = उस प्रभु का (वज्रः) = क्रियाशीलतारूप (वज्र स्मत्) = [भृशम्] खूब (क्रन्दति) = शत्रुओं को रुलाता है । क्रियाशीलतारूप वज्र से काम - क्रोधादि शत्रु नष्ट ही हो जाते हैं । इन कामादि शत्रुओं को नष्ट करके ही वे प्रभु (स्वर्षाः) = सुख व प्रकाश को प्राप्त करानेवाले हैं ।
२. उस प्रभु की (दिवः न) = देदीप्यमान सूर्य की भाँति (त्वेषः) = दीप्ति है - “ब्रह्म सूर्यसम ज्योतिः” तथा “दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद युगपत्थिता । यदि भाः सदृशी सा स्याद् भासस्तस्य महात्मनः” ॥ इन वाक्यों में यही बात कही गई है ।
३. (रवथः) = उस प्रभु का शब्द (शिमीवान्) = [शिमी = कर्म] कर्मोंवाला है । प्रभु ने सृष्टि के प्रारम्भ में अग्नि आदि ऋषियों के हृदयों में वेदज्ञान का उच्चारण किया । उस वेदज्ञान में नानाविध कर्मों का उपदेश दिया है - “एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे” ।
४. (सनयः) = सब धनों के दान (तं सचन्ते) = उस प्रभु के साथ समवेत व बद्ध हैं । (तं धनानि) = सब धनों का सम्बन्ध भी उस प्रभु के साथ है । वे प्रभु ही लक्ष्मीपति हैं । वे प्रभु धनों के आधार हैं और आवश्यक धनों को देनेवाले हैं ।
५. ये (मरुत्वान्) = प्राणों व वायुओंवाले (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (नः) = हमारी (ऊती) = रक्षा के लिए (भवतु) = हों । वायु के द्वारा वे दीर्घजीवन प्राप्त करते हैं , प्राणों के द्वारा शरीर में शक्ति का सञ्चार करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - वे प्रभु क्रियाशीलता के द्वारा हमारे कामादि शत्रओं का संहार करते हैं , प्रकाश प्राप्त कराते हैं , कर्मों का उपदेश देते हैं , आवश्यक धनों को प्राप्त कराते हैं ।
विषय
उसके कर्तव्य ।
भावार्थ
( तस्य ) उसका ( स्वर्षाः ) शत्रुओं को संताप देने वाला, घोर शब्दकारी ( रवथः ) महान घोष करने वाला, गर्जनशील ( वज्रः ) अस्त्र समूह ( शिमीवान् ) अतिशक्तिशाली ( स्मत् ) खूब, ( क्रन्दति ) गरजे और मानो शत्रुओं को ललकारे । और उसका ( त्वेषः ) तेज ( दिवः न त्वेषः ) सूर्य के तेज के समान चमचमाता हो । (तं) उसको ( सनयः ) सब ऐश्वर्य ( सचन्ते ) प्राप्त होते हैं । ( तं धनानि ) उसको सब प्रकार के धन प्राप्त होते हैं । ऐसा ( मरुत्वान् इन्द्रः नः ऊती भवतु ) वीर पुरुषों का स्वामी हमारी रक्षा के लिये नियुक्त हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेव भयमानसुराघस ऋषयः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५ पङ्क्तिः ॥ २, १३, १७ स्वराट् पङ्क्तिः । ३, ४, ११, १८ विराट् त्रिष्टुप् । ६, १०, १६ भुरिक पङ्क्तिः । ७,८,९,१२,१४, १५, १९ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकोन विंशत्यृचसूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. सभासद, भृत्य (सेवक) सेनेतील पुरुष व प्रजा यांनी असे उत्तम काम करावे की ज्यामुळे विद्या, न्याय, धर्म, पुरुषार्थ प्रखर सूर्याप्रमाणे प्रकाशित व्हावेत. अशा कर्माशिवाय उत्तम सुखाचे ग्रहण, धनप्राप्ती व रक्षण होऊ शकत नाही. अशी कामे सभाध्यक्षांनी करण्यायोग्य असतात. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The thunderbolt of Indra is vocal and effective appropriately: It is a call to action for the warrior, roar of terror for the wicked, soothing shower of rain for the generous, blaze of the sun for the hero, song of the cuckoo for the artist, and whirring of the wheels for the industrious. Varieties of wealth abound in him, streams of generosity flow from him. May Indra, commander of the Maruts, be our leader and protector on way to progress and prosperity in peace with freedom.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Indra is taught further in the thirteenth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
May Indra (President of the Assembly etc.) be our ruler, whose thunderbolt-like band' of powerful weapons draws cries (from his enemies) and applause from good men) is conveyer of happiness and whose merits, actions and temper shine like the light of the Sun or are brilliant as the luminary of heaven. His thunderbolt makes great noise and is the promoter of beneficent acts. He is served by all and upon him do donations and riches attend.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(स्वर्षा:) स्व: सुखेन सनोति सः । अत्रस्वः पूर्वात् सन् धातो: कृतोबहुलम् इति करणे विच् || = Promoter of happiness. (शिमीवान्) प्रशस्तानि कर्माणि भवन्ति यस्यसकाशात् शिमोतिकर्मनाम (निघ० २.१ ) = Doer of admirable deeds. (सनयः ) उत्तमाः सेवा: = Good services.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The members of the Assemblies, their attendants, persons of the army and general public should perform such noble deeds that knowledge, justice, Dharma (righteousness) and labour or exertion may ever grow and shine like the sun. Without such noble deeds, it is not possible to have the enjoyment of happiness, wealth and protection. Therefore presidents of the Assemblies etc. should always perform good deeds.
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