ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 100/ मन्त्र 3
ऋषिः - वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेवभयमानसुराधसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
दि॒वो न यस्य॒ रेत॑सो॒ दुघा॑ना॒: पन्था॑सो॒ यन्ति॒ शव॒साप॑रीताः। त॒रद्द्वे॑षाः सास॒हिः पौंस्ये॑भिर्म॒रुत्वा॑न्नो भव॒त्विन्द्र॑ ऊ॒ती ॥
स्वर सहित पद पाठदि॒वः । न । यस्य॑ । रेत॑सः॑ । दुघा॑नाः । पन्था॑सः । यन्ति॑ । शव॑सा । अप॑रिऽइताः । त॒रत्ऽद्वे॑षाः । स॒स॒हिः । पौंस्ये॑भिः । म॒रुत्वा॑न् । नः॒ । भ॒व॒तु॒ । इन्द्रः॑ । ऊ॒ती ॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवो न यस्य रेतसो दुघाना: पन्थासो यन्ति शवसापरीताः। तरद्द्वेषाः सासहिः पौंस्येभिर्मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती ॥
स्वर रहित पद पाठदिवः। न। यस्य। रेतसः। दुघानाः। पन्थासः। यन्ति। शवसा। अपरिऽइताः। तरत्ऽद्वेषाः। ससहिः। पौंस्येभिः। मरुत्वान्। नः। भवतु। इन्द्रः। ऊती ॥ १.१००.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 100; मन्त्र » 3
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।
अन्वयः
यस्य दिवो नेव रेतसः शवसाऽपरीता दुधानास्तरद्द्वेषाः पन्थासो यन्ति पौंस्येभिः सासहिर्मरुत्वानस्ति स इन्द्रो न ऊती भवतु ॥ ३ ॥
पदार्थः
(दिवः) प्रकाशकर्मणः सूर्य्यलोकस्य (न) इव (यस्य) जगदीश्वरस्याऽध्यापकस्यानूचानविदुषो वा (रेतसः) वीर्यस्य (दुधानाः) प्रपूरकाः। अत्र वर्णव्यत्ययेन हस्य घः। (पन्थासः) मार्गाः (यन्ति) प्राप्नुवन्ति गच्छन्ति वा (शवसा) बलेन (अपरीताः) अवर्जिताः (तरद्द्वेषाः) तरन्ति द्वेषान् येषु ते (सासहिः) अतिशयेन सहनशीलः। सहिवहिचलिपतिभ्यो यङन्तेभ्यः किकिनौ वक्तव्यौ। अ० ३। २। १७१। इति यङन्तात्सहधातोः किः प्रत्ययः। (पौंस्येभिः) बलैः सह वर्त्तमानाः। पौंस्यानीति बलनाम०। निघं० २। ९। (मरुत्वान्नो०) इति पूर्ववत् ॥ ३ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा सूर्य्यस्य प्रकाशेन सर्वे मार्गा सुदृश्या गमनीया अदृश्यदस्युचोरकण्टका भवन्ति तथैव वेदद्वारा परमेश्वरस्य विदुषो वा मार्गाः सुप्रकाशिता भवन्ति न किल तेषु गमनेन विना कश्चिदपि मनुष्यः द्वेषादिदोषेभ्यः पृथग्भवितुं शक्नोति तस्मात्सर्वैरेतन्मार्गैर्नित्यं गन्तव्यम् ॥ ३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे दोनों कैसे हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(यस्य) जिस ईश्वर वा सभाध्यक्ष वा उपदेश करनेवाले विद्वान् के (दिवः) सूर्य्यलोक के (न) समान (रेतसः) पराक्रम की (शवसा) प्रबलता से (अपरीताः) न छोड़े हुए (दुधानाः) व्यवहारों को पूर्ण करनेवाला (तरद्द्वेषाः) जिनमें विरोधों के पार हों वे (पन्थासः) मार्ग (यन्ति) प्राप्त होते और जाते हैं वा जो (पौंस्येभिः) बलों के साथ वर्त्तमान (सासहिः) अत्यन्त सहन करनेवाला (मरुत्वान्) जिसकी सृष्टि में प्रशंसित प्रजा है वह (इन्द्रः) परमैश्वर्य्यवान् परमेश्वर वा सभाध्यक्ष (नः) हम लोगों के (ऊती) रक्षा आदि व्यवहारों के लिये (भवतु) हो ॥ ३ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। जैसे सूर्य्य के प्रकाश से समस्त मार्ग अच्छे देखने और गमन करने योग्य वा डाकू, चोर और काँटों से यथायोग्य अप्रतीत होते हैं, वैसे वेदद्वारा परमेश्वर वा विद्वान् के मार्ग अच्छे प्रकाशित होते हैं। निश्चय है कि उनमें चले विना कोई मनुष्य वैर आदि दोषों से अलग नहीं हो सकता, इससे सबको चाहिये कि इन मार्गों से नित्य चलें ॥ ३ ॥
विषय
प्रकाश व शक्ति
पदार्थ
१. (यस्य) = जिस प्रभु के (पन्थासः) = मार्ग (दिवः न) = प्रकाश की भाँति (रेतसः) = शक्ति के भी (दुघानाः) = प्रपूरण करनेवाले होते हुए (यन्ति) = गति करते हैं । प्रभु का मार्ग - प्रभु की ओर चलना जहाँ प्रकाश की वृद्धि का कारण होता है , वहाँ शक्ति का भी सञ्चार करता है । प्रकृति की ओर झुक जाने से प्रकाश तो समाप्त हो ही जाता है , शक्ति भी क्षीण हो जाती है । ये प्रभु के मार्ग (शवसा) = बल से (अपरि इताः) = शत्रुओं से अनाप्त है - शत्रुओं से ये धर्षणीय नहीं होते । प्रभु प्राप्ति के मार्ग पर चलनेवाले को काम - क्रोधादि शत्रु आक्रान्त नहीं कर पाते । यह प्रभुभक्त (तरत् द्वेषाः) = सब द्वेषों को तैर जाता है - द्वेष की भावनाओं से ऊपर उठ जाता है , (पौंस्येभिः) = बलों से (सासहिः) = यह शत्रुओं का पराभव करनेवाला होता है । वस्तुतः प्रभु ही इस भक्त के लिए इन कामादि का पराभव कर रहे होते हैं ।
२. ये (मरुत्वान्) = वायुओं व प्राणोंवाले (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (नः) = हमारे (ऊती) = रक्षण के लिए (भवतु) = हों । वस्तुतः वायु तो जीवन देनेवाली है ही , प्राणसाधना शरीर व मन के सब दोषों को दूर करके हमारे जीवन को सुन्दरतम बना देती है । इस प्रकार प्रभु इन मरुतों के द्वारा हमारा रक्षण करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु के मार्ग पर चलने से प्रकाश व शक्ति प्राप्त होती है और मनुष्य द्वेष से ऊपर उठ जाता है ।
विषय
मरुत्वान् इन्द्र का निरूपण ।
भावार्थ
( दिवः ) सूर्य के ( पन्थासः न ) रश्मिगण जिस प्रकार ( रेतसः दुधानाः ) जलों को प्रदान करने वाले होते हैं और ( शवसा ) बल या व्यापक सामर्थ्य से (अपरि-इतः) युक्त या सब से बढ़ कर (यन्ति) दूर तक जाते हैं उसी प्रकार ( यस्य ) जिस महान् राजा के ( पन्थानः ) नीति के मार्ग ( रेतसः ) बल, वीर्य, पराक्रम को बढ़ाने वाले और ( शवसा ) सैन्य-बल से ( अपरि-इतः ) अवर्जित अर्थात् उससे युक्त रहते हैं । वह (तरद्-द्वेषाः) समस्त शत्रुओं को पार कर जाने हारा ( पौंस्येभिः ) बलों से ( मरुत्वान् इन्द्रः नः ऊती भवतु ) वीर सैनिकों और विद्वानों का स्वामी राजा हमारी रक्षा के लिये हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेव भयमानसुराघस ऋषयः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५ पङ्क्तिः ॥ २, १३, १७ स्वराट् पङ्क्तिः । ३, ४, ११, १८ विराट् त्रिष्टुप् । ६, १०, १६ भुरिक पङ्क्तिः । ७,८,९,१२,१४, १५, १९ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकोन विंशत्यृचसूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेष व उपमालंकार आहेत. जसा सूर्यप्रकाशात संपूर्ण मार्ग चांगल्या दृश्य स्वरूपात व गमन करण्यायोग्य असतो, चोर व कंटक यांच्यापासून सुरक्षित असतो, तसा वेदाद्वारे परमेश्वर किंवा विद्वानांचा मार्ग चांगला प्रकाशित होतो. निश्चयाने हे सांगता येईल की त्याच मार्गाने गेल्याखेरीज कोणी मनुष्य वैर इत्यादी दोषांपासून पृथक होऊ शकत नाही. त्यासाठी सर्वांनी या मार्गाने सदैव चालावे. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The showers of the favours of Indra overflow like the rays of light from heaven. They hurry on apace uninterrupted on their paths with force and overwhelm hate, fear and enmity. May he, lord of courage and valour, commander of tempestuous Maruts, with his irresistible forces be our protector for progress and prosperity.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
May God be our protector along with noble persons, whose course, like that of the sun is not to be overtaken and whose Power is un-paralleled, fulfiller of all good desires, who being Almighty in every battle is the slayer of wicked person, the witherer of the un-righteous, who with His might is enduring but overcoming all. (2) The Mantra is also applicable in the case of a noble teacher and Vedic Scholar true in mind, word and deed.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(यस्य) जगदीश्वस्य अध्यापकस्य अनूचानविदुषो वा । =Of God. of a teacher or of the observer of Vedic teachings. (अपरीता:) अवर्जिता: = Not left off. (पौंस्येभिः) बलै: सह वर्तमाना: पौंस्यानीति बलनाम (निघ० २.६)
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As all paths become visible and clearly passable in the light of the sun, and free from the fear of robbers and thieves, in the same manner, the paths of the learned and of God become illuminated by the teachings of the Vedas. Without treading upon them, none can be devid of amimosity and other evils. Therefore all should tread upon those paths.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal