ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 100/ मन्त्र 17
ऋषिः - वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेवभयमानसुराधसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
ए॒तत्त्यत्त॑ इन्द्र॒ वृष्ण॑ उ॒क्थं वा॑र्षागि॒रा अ॒भि गृ॑णन्ति॒ राध॑:। ऋ॒ज्राश्व॒: प्रष्टि॑भिरम्ब॒रीष॑: स॒हदे॑वो॒ भय॑मानः सु॒राधा॑: ॥
स्वर सहित पद पाठए॒तत् । त्यत् । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । वृष्णे॑ । उ॒क्थम् । वा॒र्षा॒गि॒राः । अ॒भि । गृ॒ण॒न्ति॒ । राधः॑ । ऋ॒ज्रऽअश्वः॑ । प्रष्टि॑ऽभिः । अ॒म्ब॒रीषः॑ । स॒हऽदे॑वः । भय॑मानः । सु॒ऽराधाः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एतत्त्यत्त इन्द्र वृष्ण उक्थं वार्षागिरा अभि गृणन्ति राध:। ऋज्राश्व: प्रष्टिभिरम्बरीष: सहदेवो भयमानः सुराधा: ॥
स्वर रहित पद पाठएतत्। त्यत्। ते। इन्द्र। वृष्णे। उक्थम्। वार्षागिराः। अभि। गृणन्ति। राधः। ऋज्रऽअश्वः। प्रष्टिऽभिः। अम्बरीषः। सहऽदेवः। भयमानः। सुऽराधाः ॥ १.१००.१७
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 100; मन्त्र » 17
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कथम्भूत इत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे इन्द्र वार्षागिरा यदेतत्ते तवोक्थमभिगृणन्ति त्यद्राधो वृष्णे जायते। योऽम्बरीषः सहदेवो भयमानः सुराधा ऋज्राश्वो भवान् प्रष्टिभिः पृष्टः समादधाति सोऽस्माभिः कथं न सेवनीयः ॥ १७ ॥
पदार्थः
(एतत्) प्रत्यक्षम् (त्यत्) अग्रस्थमानुमानिकं च (ते) तव (इन्द्र) परमविद्यैश्वर्ययुक्त (वृष्णे) शरीरात्मसेचकाय (उक्थम्) प्रशंसनीयं वचनं कर्म वा (वार्षागिराः) वृषस्योत्तमस्य गीर्भिर्निष्पन्नाः पुरुषाः (अभि) आभिमुख्ये (गृणन्ति) वदन्ति (राधः) धनम् (ऋज्राश्वः) ऋज्रा ऋजवोऽश्वा महत्यो नीतयो यस्य सः। अश्व इति महन्ना०। निघं० ३। ३। (प्रष्टिभिः) प्रश्नैः पृष्टः सन् (अम्बरीषः) शब्दविद्यावित्। अत्र शब्दार्थादबिधातोरौणादिक ईषन् प्रत्ययो रुगागमश्च। (सहदेवः) देवैः सह वर्त्तते सः (भयमानः) अधर्माचरणाद्भीत्वा पृथग्वर्त्तमानो दुष्टानां भयङ्करः (सुराधाः) शोभनै राधोभिर्धनैर्युक्तः ॥ १७ ॥
भावार्थः
यदा विद्वांसः सुप्रीत्योपदेशान् कुर्वन्ति तदाऽज्ञानिनो जना विश्वस्ता भूत्वोपदेशाञ्छ्रुत्वा सुविद्या धृत्वाऽऽढ्या भूत्वाऽऽनन्दिता भवन्ति ॥ १७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (इन्द्र) परमविद्या ऐश्वर्य से युक्त सभाध्यक्ष ! जो (वार्षागिराः) उत्तम प्रशंसित विद्वान् की वाणियों से प्रशंसित पुरुष (एतत्) इस प्रत्यक्ष (ते) आपके (उक्थम्) प्रशंसा करने योग्य वचन वा काम को सब लोग (अभिगृणन्ति) आपके मुख पर कहते हैं वह और (त्वत्) अगला वा अनुमान करने योग्य आपका (राधः) धन (वृष्णे) शरीर और आत्मा की प्रसन्नता के लिये होता है तथा जो (अम्बरीषः) शब्दशास्त्र के जानने (सहदेवः) विद्वानों के साथ रहने (भयमानः) अधर्माचरण से डरकर उससे अलग वर्त्ताव वर्त्तने और दुष्टों को भय करनेवाले (सुराधाः) जो कि उत्तम-उत्तम धनों से युक्त (ऋज्राश्वः) जिनकी सीधी बड़ी-बड़ी राजनीति हैं और (प्रष्टिभिः) प्रश्नों से पूछे हुए समाधानों को देते हैं, वे हम लोगों को सेवने योग्य कैसे न हों ? ॥ १७ ॥
भावार्थ
जब विद्वान् उत्तम प्रीति के साथ उपदेशों को करते हैं, तब अज्ञानी जन विश्वास को पा उन उपदेशों को सुन अच्छी विद्याओं को धारणकर धनाढ्य होके आनन्दित होते हैं ॥ १७ ॥
विषय
वृषागिर् पुरुष [सच्चे प्रभुभक्त]
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = सम्पूर्ण ऐश्वर्यों के अधिष्ठान प्रभो ! (वृष्णः ते) = शक्तिशाली व सब सुखों के वर्षण करनेवाले आपके (त्यत् एतत् उक्थम्) = उस प्रसिद्ध स्तवन को जोकि (राधः) = प्रत्येक कार्य में सफलता देनेवाला है वा (वार्षागिराः) = वृषागिर् के सन्तान , अर्थात् उत्तम वृषागिर पुरुष ही (अभिगृणन्ति) = दिन के प्रारम्भ व अन्त में उच्चारण किया करते हैं । वृषागिर व्यक्ति वे हैं जिनकी वाणी ज्ञान का ही वर्षण करती है और जो सदा औरों के लिए सुखकर शब्दों का ही उच्चारण करते हैं ।
२. इन वृषागिर् व्यक्तियों में प्रथम (ऋज्राश्वः) = ऋज्राश्व है । इसके इन्द्रियरूप अश्व सरल मार्ग से ही चलनेवाले हैं । ऋजुगामी अश्वोंवाला यह व्यक्ति कभी कुटिलता को नहीं अपनाता । यह (प्रष्टिभिः अम्बरीषः) = [अवि शब्दे] जिज्ञासुओं के दृष्टिकोण से ही पूछने की वृत्तिवाला होता है । यह विविध प्रश्न करता हुआ उस प्रभु के समीप पहुँचने के लिए प्रबल भावनावाला होता है । यह व्यर्थ की बातें करता हुआ ‘वाचोविग्लापन’ नहीं करता रहता । इसी कारण (सह देवः) = यह देववृत्तियोंवाला होता है , (भयमानः) = सदा प्रभु के भय में चलता है , अर्थात् प्रभु की सर्वव्यापकता का स्मरण करता हुआ पाप से भयभीत रहता है , (सुराधाः) = सदा उत्तम मार्ग से ही धन कमाता है । वस्तुतः जीवन की सर्वप्रधान शुचिता यही है कि हम अन्याय - मार्ग से धनार्जन न करें ।
भावार्थ
भावार्थ - हम वृषागिर् बनकर प्रभु का सच्चा स्तवन करनेवाले हों ।
विषय
उसके कर्तव्य ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) राजन् ! ऐश्वर्यवन् ! (ऋज्राश्वः) बेगवान्, सरल, सधे अश्वों का नायक, ( अम्बरीषः ) शब्दविद्या या महान् घोष और भयंकर शब्द उत्पन्न करने की विद्या को जानने वाला, ( सहदेवः ) विजिगीषु युद्धार्थी सैनिकों के साथ रहने वाला, ( मयमानः ) शत्रुओं को भय दिलाने वाले, उनमें भय सञ्चार करने के साधनों का वेत्ता और ( सुराधाः ) उत्तम धनों और वशकारी उपायों का वेत्ता, ये सब विद्वान् और साधना सम्पन्न पुरुष ( एतत् त्यत् ) इन और उन नवीन और प्राचीन, समीप और दूर के और प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष अपने और पराये सब प्रकार के ( राधः ) शत्रु को वश करने के उपायों का ( ते वृष्णे ) तुझ बलवान् सेनापति या राजा को ( अभि गृणन्ति ) उपदेश करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेव भयमानसुराघस ऋषयः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५ पङ्क्तिः ॥ २, १३, १७ स्वराट् पङ्क्तिः । ३, ४, ११, १८ विराट् त्रिष्टुप् । ६, १०, १६ भुरिक पङ्क्तिः । ७,८,९,१२,१४, १५, १९ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकोन विंशत्यृचसूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा विद्वान प्रेमाने उपदेश करतात तेव्हा अज्ञानी लोक त्यावर विश्वास ठेवून त्या उपदेशांना ऐकून विद्या धारण करून धनाढ्य बनतात व आनंदित होतात. ॥ १७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of power and prosperity, this is that song of praise which the children of divine voice alongwith friends and companions sing as a gift of love and homage for the lord of eternal prosperity and infinite generosity: they are Rijrashvas, sages of simple thought and honest conduct, Ambarisha, scholar of holy word and knowledge, Sahadeva, who loves to be with lovers of divinity, Bhayamana, who fears the Divine and whom the wicked and the crooked fear, and Suradha, man of honest wealth and versatile genius.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Indra is taught further in the seventeenth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (President of the Assembly) endowed with the wealth of wisdom) all men trained by noble persons, praise thy words and acts who art showerer of happiness for the body and soul. Why should we not serve thee who art to be enquired about or to whom questions are asked, who art the knower of the science of language or grammar, whose great policies are straight forward, who is surrounded by learned persons, who keepest thyself away from all un-righteous acts and art fierce for the wicked and endowed with good wealth.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(वार्षागिरा:) वृषस्य-उत्तमस्य गिर्भिः निष्पन्ना: पुरुषा: = Trained by the words of noble persons. (ऋज्त्राश्वाः) ऋज्ञाः-ऋजव: अश्वा: महत्य: नीतयः यस्य सः अश्व इति महन्नाम (निघ० ३.३) (अम्बरीष:) शब्दविद्यावित् अत्र शब्दार्थात् अबि धातो: औरग्णादिकः ईषन् प्रत्यय: रुगागमश्च । = Knower of Grammar. (सहदेव:) देवैः सह वर्तते सः = He who is surrounded by enlightened persons. (भयमानः) अधर्माचररणाद्भीत्वा पृथग्वर्तमान: दुष्टानां भयंकरः । = He who is afraid of doing un-righteous acts and keeping himself away from all evil is fierce for the wicked.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
When learned persons deliver sermons with love, then ignorant persons are convinced of the truth of what they preach and having acquired knowledge, become wealthy and happy.
Translator's Notes
It is wrong on the part of Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and others to take Rijrashva, Ambareesha, Sahadeva, Bhayamana, Suradha and other words as proper nouns. According to the Meemansa and other Shastras, Vedas being eternal can not contain proper nouns denoting particular historical persons. Therefore, these words denote various attributes as explained by Rishi Dayananda Sarasvati, according to their derivation. It is strange that Sayanacharya has gone against his own principle of the Vedic terminology expounded by him in his introduction to the Commentary of the Rigveda on the basis of आख्या प्रवचनात् परन्तु ति सामान्य मात्रम् and other aphorisms of the Meemansa.
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