ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 108/ मन्त्र 11
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - इन्द्राग्नी
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यदि॑न्द्राग्नी दि॒वि ष्ठो यत्पृ॑थि॒व्यां यत्पर्व॑ते॒ष्वोष॑धीष्व॒प्सु। अत॒: परि॑ वृषणा॒वा हि या॒तमथा॒ सोम॑स्य पिबतं सु॒तस्य॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑ । दि॒वि । स्थः । यत् । पृ॒थि॒व्याम् । यत् । पर्व॑तेषु । ओष॑धीषु । अ॒प्ऽसु । अतः॑ । परि॑ । वृ॒ष॒णौ॒ । आ । हि । या॒तम् । अथ॑ । सोम॑स्य । पि॒ब॒त॒म् । सु॒तस्य॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदिन्द्राग्नी दिवि ष्ठो यत्पृथिव्यां यत्पर्वतेष्वोषधीष्वप्सु। अत: परि वृषणावा हि यातमथा सोमस्य पिबतं सुतस्य ॥
स्वर रहित पद पाठयत्। इन्द्राग्नी इति। दिवि। स्थः। यत्। पृथिव्याम्। यत्। पर्वतेषु। ओषधीषु। अप्ऽसु। अतः। परि। वृषणौ। आ। हि। यातम्। अथ। सोमस्य। पिबतम्। सुतस्य ॥ १.१०८.११
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 108; मन्त्र » 11
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 6
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ भौतिकाविन्द्राग्नी क्व क्व वर्त्तेते इत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
यदिन्द्राग्नी दिवि यत् पृथिव्यां यत् पर्वतेष्वप्स्वोषधीषु स्थो वर्त्तेते। अतः परिवृषणौ तौ ह्यायातमागच्छतोऽथ सुतस्य सोमस्य रसं पिबतम् ॥ ११ ॥
पदार्थः
(यत्) यतः (इन्द्राग्नी) पवनविद्युतौ (दिवि) प्रकाशमान आकाशे सूर्य्यलोके वा (स्थः) वर्त्तेते (यत्) यतः (पृथिव्याम्) भूमौ (यत्) यतः (पर्वतेषु) (अप्सु) (अतः०) इति पूर्ववत् ॥ ११ ॥
भावार्थः
यौ धनञ्जयवायुकारणाख्यावग्नी सर्वपदार्थस्थौ विद्येते तौ यथावद्विदितौ संप्रयोजितौ च बहूनि कार्य्याणि साधयतः ॥ ११ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब भौतिक इन्द्र और अग्नि कहाँ-कहाँ रहते हैं, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है ।
पदार्थ
(यत्) जिस कारण (इन्द्राग्नी) पवन और बिजुली (दिवि) प्रकाशमान आकाश में (यत्) जिस कारण (पृथिव्याम्) पृथिवी में (यत्) वा जिस कारण (पर्वतेषु) पर्वतों (अप्सु) जलों में और (ओषधीषु) ओषधियों में (स्थः) वर्त्तमान हैं (अतः) इस कारण (परि, वृषणौ) सब प्रकार से सुख की वर्षा करनेवाले वे (हि) निश्चय से (आ, यातम्) प्राप्त होते (अथ) इसके अनन्तर (सुतस्य) निकाले हुए (सोमस्य) जगत् के पदार्थों के रस को (पिबतम्) पीते हैं ॥ ११ ॥
भावार्थ
जो धनञ्जय पवन और कारणरूप अग्नि सब पदार्थों में विद्यमान हैं, वे जैसे के वैसे जाने और क्रियाओं में जोड़े हुए बहुत कामों को सिद्ध करते हैं ॥ ११ ॥
विषय
त्रिलोकस्थ इन्द्र व अग्नि
पदार्थ
१. हे (इन्द्राग्नी) = शक्ति व प्रकाश के तत्त्वो ! (यत्) = जो आप (दिवि) = द्युलोक में (स्थः) = स्थित हो । द्युलोकस्थ सूर्य प्रकाश को तो सर्वत्र फैलाता ही है , अपनी किरणों के द्वारा प्राणशक्ति का भी सर्वत्र सञ्चार करता है । (यत्) = जो आप (पृथिव्याम्) = इस विस्तृत अन्तरिक्ष में हो । अन्तरिक्षस्थ मेघ - जल व अन्तरिक्ष में विचरनेवाली वायु हमारे जीवनों में नीरोगता व शक्ति देनेवाले होते हैं । (यत्) = जो आप (पर्वतेषु) = पर्वतों में हो तथा (ओषधिषु) = ओषधियों में हो तथा (अप्सु) = जलों में हो । वानस्पतिक भोजन व जलों का प्रयोग मस्तिष्क व शरीर दोनों के लिए हितकर है । इन्द्र व अग्नि की स्थिति तीनों लोकों में है ,
२. (अतः) = इसलिए इन तीनों लोकों से हे (वृषणौ) = सब सुखों की वर्षा करनेवाले इन्द्र व अग्निदेवो ! (हि) = निश्चय से (परि आयातम्) = आप हमें सर्वथा प्राप्त होओ (अथ) = और (सुतस्य सोमस्य) = उत्पन्न हुई - हुई सोमशक्ति का (पिबतम्) = शरीर में ही पान करनेवाले होओ । शक्ति के संवर्धन के लिए साधनभूत आसन व व्यायाम आदि क्रियाओं में लगना तथा ज्ञानवृद्धि के लिए स्वाध्याय में लगना - सोमरक्षण के लिए साधनभूत होते हैं । इनमें लगे रहने से मनुष्य सोम को शरीर में ही सुरक्षित कर पाता है । यही इन्द्राग्नी का सोमपान है ।
भावार्थ
भावार्थ - इन्द्र व अग्नि - तत्त्वों का निवास तीनों लोकों में है ।
विषय
विद्वानों के कर्तव्य ।
भावार्थ
( यत् ) क्योंकि ( इन्द्राग्नी ) वायु और अग्नि ये दोनों तत्व ( दिवि ष्ठः ) सूर्य में भी हैं । ( यत् पृथिव्याम् ) पृथिवीं में ( पर्वतेषु ) पर्वतों में ( ओषधीषु ) ओषधियों में और ( अप्सु ) समुद्र, नदी आदि जलों में भी विद्यामान हैं, वे दोनों इसी कारण से सुखों के देने वाले होकर सर्वव्याप्त हैं । वे दोनों ( सुतस्य सोमस्य पिबतम् ) उत्पादित अन्नादि रस में भी रहते हैं । ( २ ) वायु अग्नि के उपकारक जन ( दिवि ) विद्वानों के बीच, ( पृथिव्यां ) प्रजावासियों के बीच, (पर्वतेषु) मेघों के समान पालक, शिक्षक पर्वतों के समान अचल राजाओं के बीच ( ओषधीषु ) ओषधियों के समान शत्रुओं के नाशक सैन्यों में और ( अप्सु ) प्राणों के समान आप्तजनों में भी आदरपूर्वक रहते हैं । इसलिये वे सर्व सुखप्रद होकर प्राप्त हों और ऐश्वर्य का भोग करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्राग्नी देवते ॥ छन्दः- १, ८, १२ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ३, ६, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ७, ९, १०, १३ त्रिष्टुप् । ४ भुरिक् पंक्तिः । ५ पंक्तिः । त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे धनंजय वायू व कारणरूपी अग्नी सर्व पदार्थांत विद्यमान आहेत ते जसे आहेत तसे जाणावे, ते क्रियेत संप्रयोजन करून पुष्कळ कामात सिद्ध करता येतात. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra and Agni, as you stay in the region of heaven, on the earth, in the mountains and the clouds, in the herbs and in the waters, from there come, powers generous and life-giving, and then drink of the soma of life distilled.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Where are material Indra and Agni is further taught in the 11th Mantra
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Indra and Agni (air and electricity) that are in heaven or solar world or upon earth, in the mountains, in the herbs or in the waters, being showerers of happiness, come here and drink of the effused juice of the various articles of the world.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Dhananjaya air and air in the causal form are present ia all things of the world. When properly known and used methodically they accomplish various works.
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