ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 108/ मन्त्र 8
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - इन्द्राग्नी
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यदि॑न्द्राग्नी॒ यदु॑षु तु॒र्वशे॑षु॒ यद्द्रु॒ह्युष्वनु॑षु पू॒रुषु॒ स्थः। अत॒: परि॑ वृषणा॒वा हि या॒तमथा॒ सोम॑स्य पिबतं सु॒तस्य॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑ । यदु॑षु । तु॒र्वशे॑षु । यत् । द्रु॒ह्युषु॑ । अनु॑षु । पू॒रुषु॑ । स्थः । अतः॑ । परि॑ । वृ॒ष॒णौ॒ । आ । हि । या॒तम् । अथ॑ । सोम॑स्य । पि॒ब॒त॒म् । सु॒तस्य॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदिन्द्राग्नी यदुषु तुर्वशेषु यद्द्रुह्युष्वनुषु पूरुषु स्थः। अत: परि वृषणावा हि यातमथा सोमस्य पिबतं सुतस्य ॥
स्वर रहित पद पाठयत्। इन्द्राग्नी इति। यदुषु। तुर्वशेषु। यत्। द्रुह्युषु। अनुषु। पूरुषु। स्थः। अतः। परि। वृषणौ। आ। हि। यातम्। अथ। सोमस्य। पिबतम्। सुतस्य ॥ १.१०८.८
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 108; मन्त्र » 8
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे इन्द्राग्नी युवां यद् यदुषु तुर्वशेषु यद्द्रुह्युष्वनुषु पूरुषु यथोचित व्यवहारवर्त्तिनौ स्थोऽतः कारणात्सर्वेषु वृषणौ सन्तावायातं हि खल्वथ सुतस्य सोमस्य रसं परि पिबतम् ॥ ८ ॥
पदार्थः
(यत्) यतः (इन्द्राग्नी) पूर्वोक्तौ (यदुषु) प्रयत्नकारिषु मनुष्येषु (तुर्वशेषु) तूर्वन्तीति तुरस्तेषां वशा वशं कर्त्तारो मनुष्यास्तेषु (यत्) यतः (द्रुह्युषु) द्रोहकारिषु (अनुषु) प्राणप्रदेषु (पूरुषु) परिपूर्णसद्गुणविद्याकर्मसु मनुष्येषु। यदव इत्यादि पञ्चविंशतिर्मनुष्यना०। निघं० २। ३। (स्थः) (अतः) (परि०) इति पूर्ववत् ॥ ८ ॥
भावार्थः
यौ न्यायसेनाधिकृतौ मनुष्येषु यथायोग्यं वर्त्तेते तावेव तत्कर्मसु सर्वैर्मनुष्यैः स्थापयित्वा कार्यसिद्धिः संपादनीया ॥ ८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (इन्द्राग्नी) स्वामि शिल्पिजनो ! तुम दोनों (यत्) जिस कारण (यदुषु) उत्तम यत्न करनेवाले मनुष्यों में वा (तुर्वषु) जो हिंसक मनुष्यों को वश में करें उनमें वा (यत्) जिस कारण (द्रुह्युषु) द्रोही जनों में वा (अनुषु) प्राण अर्थात् जीवन सुख देनेवालों में तथा (पूरुषु) जो अच्छे गुण, विद्या वा कामों में परिपूर्ण हैं उनमें यथोचित अर्थात् जिससे जैसा चाहिये वैसा वर्तनेवाले (स्थः) हो (अतः) इस कारण से सब मनुष्यों में (वृषणौ) सुखरूपी वर्षा करते हुए (आ, यातम्) अच्छे प्रकार आओ (हि) एक निश्चय के साथ, (अथ) इसके अनन्तर (सुतस्य) निकासे हुए (सोमस्य) जगत् के पदार्थों के रस को (परि, पिबतम्) अच्छी प्रकार पिओ ॥ ८ ॥
भावार्थ
जो न्याय और सेना के अधिकार को प्राप्त हुए मनुष्यों में यथायोग्य वर्त्तमान हैं, सब मनुष्यों को चाहिये कि उनको ही उन कामों में स्थापन अर्थात् मानकर कामों की सिद्धि करें ॥ ८ ॥
विषय
यदु , तुवंश , द्रुह्य , अनु , पुरु
पदार्थ
१. हे( इन्द्राग्नी) = इन्द्र व अग्नि देवो - शक्ति व प्रकाश के तत्त्वो ! (यत्) = जो आप (यदुषु स्थः) = यदुओं में निवास करते हैं । यदु यत्नशील हैं , यत्नशील पुरुषों में शक्ति व प्रकाश का निवास होता है । अकर्मण्य पुरुष इनके निवासस्थान नहीं बनते ।
२. (तुर्वशेषु) = त्वरा से काम - क्रोधादि को वश करनेवालों में आपका निवास है । कामादि से अभिभूत व्यक्ति में शक्ति व प्रकाश का निवास सम्भव नहीं ।
३. (यत्)= जो (द्रुह्युषु) = बुराई के प्रति विद्रोह की भावनावालों में आपका निवास है । जैसे राज्य - क्रान्तियों को विद्रोही पुरुष ही किया करते हैं , सामाजिक क्रान्तियाँ भी कुरीतियों के प्रति विद्रोह की प्रबल भावनावाला ही कर पाता है , इसी प्रकार जीवन में आ जानेवाली कमियों के प्रति विद्रोह की भावनावाला व्यक्ति ही जीवन में क्रान्ति ला - पाता है । इन क्रान्तिकारियों में “इन्द्र व अग्नि” का निवास होता है ।
४. (अनुषु) = [अन प्राणने] प्राणशक्तिसम्पन्न वीरों में इन्द्र व अग्नि रहते हैं तथा
५. (पूरुषु) = जो अपना पालन व पूरण करते हैं - जो व्यक्ति शरीर को रोगों का शिकार नहीं होने देते और जो व्यक्ति अपने मनों में आई हुई कमियों को दूर करके उनका पूरण करते हैं , उनमें “इन्द्र और अग्नि” का निवास होता है ,
६. (अतः) = इसलिए यदु आदि में निवास करनेवाले इन्द्र व अग्नि - तत्त्वो ! आप (हि) = निश्चय से (वृषणौ) = सुखों का वर्षण करनेवाले हो । आप (परि आयातम्) = सब प्रकार से हमें प्राप्त होओ (अथ) = और (सुतस्य सोमस्य) = उत्पन्न हुए सोम का (पिबतम्) = पान करनेवाले बनो । रसादि क्रम से उत्पन्न सोमशक्ति को शरीर में ही सुरक्षित करो ।
भावार्थ
भावार्थ - हम “यदु , तुर्वश , द्रुह्यु , अनु व पुरु” बनकर इन्द्र व अग्नि का निवासस्थान बनें । हमारा जीवन शक्ति व प्रकाश से युक्त हो ।
विषय
क्षत्र, ब्रह्म, और स्त्री पुरुषों के परस्पर कर्तव्य ।
भावार्थ
हे ( इन्द्राग्नी ) ऐश्वर्यवान् और ज्ञानवान् स्त्री पुरुषो ! ( यत् ) क्योंकि ( यदुषु ) यत्नवान्, यम नियमों में निष्ठ पुरुषों में ( तुर्वशेषु ) शत्रुओं के नाशकारी धर्मार्थ-काम-मोक्ष चारों के अभिलाषी, हिंसक दुष्ट पुरुषों के वश करने वाले पुरुषों में ( द्रह्युषु ) द्रोहकारी या धनाभिलाषा से एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करने वाले, पुरुषों में, ( अनुषु ) प्राणमात्र पर आजीविका करने वाले या अन्यों को प्राणप्रद पदार्थ अन्नादि देने वाले पुरुषों में और ( पुरुषु ) सबको विद्यादि से परिपूर्ण करने वाले उच्च कोटि के पुरुषों में ( स्थः ) आदरपूर्वक रहते हो ( अतः ) इस कारण से समस्त सुखों और ज्ञानों के वर्षक होकर आप दोनों ( परि आयातम् ) सर्वत्र आओ जाओ और ( सुतस्य सोमस्य पिबतम् ) उत्पन्न हुए ऐश्वर्ययुक्त बलवर्धक पदार्थों का उपभोग करो, सुख पूर्वक जीवन व्यतीत करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्राग्नी देवते ॥ छन्दः- १, ८, १२ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ३, ६, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ७, ९, १०, १३ त्रिष्टुप् । ४ भुरिक् पंक्तिः । ५ पंक्तिः । त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जो न्याय व सेनेचा यथायोग्य अधिकारी असतो त्यालाच त्या जागी नेमावे अर्थात् कार्य सिद्ध करावे. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra and Agni, generous and abundant, holy and heroic, whether you are among the industrious or the victorious, or the malicious, or followers or leaders, from there come and drink of the soma distilled.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra and Agni (wealthy master and artisan teacher and the taught etc.) you deal in a proper manner with industrious persons, with the controllers or subduers of the violent, the malevolent or tyrannical, with those who are givers of life or inspiration, with those who are endowed with all good virtues, knowledge and actions. Therefore being showerers of happiness among men, you come and drink the effused juice of the various articles in the world,
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(यदुषु) प्रयत्नकारिषु मनुष्येषु = Among industrious persons. (तुर्वशेषु) तूर्वन्तीतितुरवस्तेषां वशाः-वशंकर्तारो मनुष्या-स्तेषु = Among the controllers of the violent. तुर्वी-हिसायाम् द्रुह्य षु ) द्रोहकारिषु = Among the malevolent or tyrannical. (पूरुष) परिपूर्ण सद्गुणविद्याकर्मसु मनुष्येषु = Among men full of noble virtues, wisdom and good actions.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons of the Judicial and Military department, who behave with men in proper manner should be appointed for such purposes and all works should be accomplished.
Translator's Notes
It is gratifying to note that even Sayanacharya takes these words like Yadu यदु तुवंश, अनु, पुरु not as proper nouns but as derivatives denoting. Certain attributes. For instance he explains यदुषु as नियतेषु परेषामहंसकेषुमनुष्येषु तुर्वशेषु-हिंसकेषु मनुष्येषु । अनुषु प्राणत्सु, सबलैः प्राणैर्युक्तेषु ज्ञानिष्वनुष्ठा तृमनुष्येषु पूरुषु कामै: पूरयितव्येषु अन्येषु स्तोतृजनेषु । यदवः यमउपरमे नियम्यन्त इन्द्रियाण्येभिरिति यदवः तुर्की हिंसार्थः ।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal