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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 108 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 108/ मन्त्र 4
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    समि॑द्धेष्व॒ग्निष्वा॑नजा॒ना य॒तस्रु॑चा ब॒र्हिरु॑ तिस्तिरा॒णा। ती॒व्रैः सोमै॒: परि॑षिक्तेभिर॒र्वागेन्द्रा॑ग्नी सौमन॒साय॑ यातम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम्ऽइ॑द्धेषु । अ॒ग्निषु॑ । आ॒न॒जा॒ना । य॒तऽस्रु॑चा । ब॒र्हिः । ऊँ॒ इति॑ । ति॒स्ति॒रा॒णा । ती॒व्रैः । सोमैः॑ । परि॑ऽसिक्तेभिः । अ॒र्वाक् । आ । इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑ । सौ॒म॒न॒साय॑ । या॒त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समिद्धेष्वग्निष्वानजाना यतस्रुचा बर्हिरु तिस्तिराणा। तीव्रैः सोमै: परिषिक्तेभिरर्वागेन्द्राग्नी सौमनसाय यातम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्ऽइद्धेषु। अग्निषु। आनजाना। यतऽस्रुचा। बर्हिः। ऊँ इति। तिस्तिराणा। तीव्रैः। सोमैः। परिऽसिक्तेभिः। अर्वाक्। आ। इन्द्राग्नी इति। सौमनसाय। यातम् ॥ १.१०८.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 108; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 26; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यूयं यौ यतस्रुचा तिस्तिराणानजानेन्द्राग्नी तीव्रैः सोमैः परिषिक्तेभिः समिद्धेष्वग्निषु सत्स्वर्वाग् बर्हिर्यातमु सौमनसायायातं गमयतस्तौ सम्यक् परीक्ष्य कार्य्यसिद्धये प्रयोज्यौ ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (समिद्धेषु) प्रदीप्तेषु (अग्निषु) कलायन्त्रस्थेषु (आनजाना) प्रसिद्धौ प्रसिद्धिकारकौ। अत्राञ्जू धातोर्लिटः स्थाने कानच्। (यतस्रुचा) यता उद्यता स्रुचः स्रुग्वत्कलादयो ययोस्तौ। अत्र सर्वत्र सुपां सुलुगिति द्विवचनस्थान आकारादेशः। (बर्हिः) अन्तरिक्षे (उ) (तिस्तिराणा) यन्त्रकलाभिराच्छादितौ (तीव्रैः) तीक्ष्णवेगादिगुणैः (सोमैः) रसभूतैर्जलैः (परिषिक्तेभिः) सर्वथा कृतसिञ्चनैः सहितौ (अर्वाक्) पश्चात् (आ) समन्तात् (इन्द्राग्नी) वायुविद्युतौ (सौमनसाय) अनुत्तमसुखाय (यातम्) गमयतः ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    यदा शिल्पिभिः पवनस्सौदामिनी च कार्य्यसिद्ध्यर्थं संप्रयुज्येते तदैते सर्वसुखलाभाय प्रभवन्ति ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो तुम (यतस्रुचा) जिनमें स्रुच् अर्थात् होम करने के काम में जो स्रुचा होती हैं, उनके समान कलाघर विद्यमान (तिस्तिराणा) वा जो यन्त्रकलादिकों से ढांपे हुए होते हैं (आनजाना) वे आप प्रसिद्ध और प्रसिद्धि करनेवाले (इन्द्राग्नी) वायु और विद्युत् अर्थात् पवन और बिजुली (तीव्रैः) तीक्ष्ण और वेगादिगुणयुक्त (सोमैः) रसरूप जलों से (परिषिक्तेभिः) सब प्रकार की किई हुई सिचाइयों के सहित (समिद्धेषु) अच्छी प्रकार जलते हुए (अग्निषु) कलाघरों की अग्नियों के होते (अर्वाक्) पीछे (बर्हिः) अन्तरिक्ष में (यातम्) पहुँचाते हैं (उ) और (सौमनसाय) उत्तम से उत्तम सुख के लिये (आ) अच्छे प्रकार आते भी हैं, उनकी अच्छी शिक्षाकर कार्यसिद्धि के लिये कलाओं में लगाने चाहिये ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    जब शिल्पियों से पवन और बिजुली कार्यसिद्धि के अर्थ कलायन्त्रों की क्रियाओं से युक्त किये जाते हैं, तब ये सर्वसुखों के लाभ के लिये समर्थ होते हैं ॥ ४ ॥

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    विषय

    सौमनस्य की प्राप्ति [Cheerful Mind]

    पदार्थ

    १. (अग्निषु समिद्धेषु) = शरीर में जाठराग्नि के , हृदय में उत्साह व सत्त्वरूप अग्नि के तथा मस्तिष्क में ज्ञानाग्नि के समिद्ध होने पर (आनजाना) = [अञ्जू] अपने जीवनों को स्वास्थ्य , विजय व ज्ञान से सुभूषित करते हुए (यतस्रुचा) = [स्रुच - वाङ्नाम - नि०] वाणी का नियमन करनेवाले (उ) = और (बहिः) = वासनाशून्य हृदय को (तिस्तिराणा) = फैलाते हुए [Extend] (इन्द्राग्नी) = शक्ति व प्रकाश के तत्त्व (तीव्रै:) = अत्यधिक (परिषिक्तेभिः) = शरीर में सर्वत्र सिक्त (सोमैः) = सोमकणों से (सौमनसाय) = उत्तम मन के लिए (अर्वाक् आयातम्) = हमें इस शरीर में प्रास हों । 

    २. जीवन में इन्द्र व अग्नि - तत्वों के ठीक होने पर शरीर में सब अग्नियों का ठीक प्रकार से उद्भव होता है , मनुष्य संयत वाक् बनता है तथा हृदय को वासनाशून्य बना पाता है । इन दोनों तत्वों का समन्वय होने पर मनुष्य का मन अति प्रसन्न रहता है - उसे सौमनस्य प्राप्त होता है । इन दोनों तत्त्वों के समन्वय के लिए आवश्यक है कि हम शरीर को सोमशक्ति से सिक्त करें । शरीर में उत्पन्न सोम को शरीर में ही सुरक्षित करने का प्रयत्न करें । यह सुरक्षित सोम शरीर को सबल बनाएगा व मस्तिष्क को प्रकाशमय करेगा । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - सोम को शरीर में सुरक्षित करने पर सौमनस्य प्राप्त होता है , शरीर सबल और मस्तिष्क प्रकाशमय बनता है । 
     

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    विषय

    इन्द्र और अग्नि, के समान राजा अमात्य, प्रकाशप्रद भ्राचार्य और अध्यात्म में जीव परमेश्वर का वर्णन

    भावार्थ

    ( १ ) ( समिद्वेषु अग्निषु ) यज्ञ में अग्नियों के प्रज्वलित हो जाने पर चरुओं को ( आनजाना ) घृतों से मिलाते हुए ( यतस्रुचा ) स्रुचा को हाथ में स्थिर करते हुए ( उ बर्हिः तिस्तिराणा ) कुश आसन बिछाते हुए अध्वर्यु और प्रतिप्रस्थाता दोनों तीव्र सोम रसों से सबके लिये सुचित्त भाव के हो जाते हैं उसी प्रकार ( इन्द्राग्नी ) इन्द्र और अग्नि के समान तेजस्वी, ऐश्वर्यवान् और विद्वान् पुरुष राजा और मन्त्री, या वायु और अग्नि के समान सेनापति और राजा दोनों ( अग्निषु समिद्धेषु ) अग्नियों के समान तेजस्वी नायकों के खूब उत्तेजित हो जाने पर ( आनजाना ) अपने गुणों का खूब प्रकाश करते हुए ( यतस्रुचा ) बाहुओं के समान सेनाओं को तथा राष्ट्र के स्त्री पुरुषों, भूमियों तथा वाणी और प्रजा लोकों को नियम में बद्ध, सुसंयत करके ( ऊ ) साथ ही ( बर्हिः ) विस्तृत शास्य प्रजाजन को ( तिस्तिराणा ) खूब विस्तृत करते हुए ( तीव्रैः ) अति तीव्र, शत्रुओं के प्रति वेग से जाने वाले, ( सोमैः ) जलों के समान सोम्य गुण वाले, उत्तम पदों पर ( परिविक्तेभिः ) अभिषिक्त हुए नायकों सहित ( सौमनसाय ) उत्तम सुखप्रदाताप प्रजा के वित्तनुरंजन करने के लिये ( अर्वाक् आयातम् ) हमारे प्रति आवें । इस मन्त्र में नीचे लिखे स्रुच् के शब्दार्थों पर विचार करने से स्त्री पुरुषों के परस्पर प्रजोत्पत्ति और गुरु शिष्य के ज्ञानप्राप्ति के उत्तम सिद्धान्तों पर भी प्रकाश पड़ता है।

    टिप्पणी

    'स्रुच्'—स्रुचश्वेतद्वेदीश्चाह । विश्वा वेदि घृताची स्रुक् । श० ९।२।३।१७॥ योषा हिस्रुक् । श० १।४। ४। ४॥ युजौ हवा एते यज्ञस्य यत् स्रुचौ । श० १। ८। ३। २७॥ बाहू वै स्रुचौ । श० ७। ४। १। ३६॥ वाग वैस्रुक् । श० ६। ३। १। ८॥ गौर्वस्रुचः॥ तै० ३॥ ३॥ ५॥ ४॥ इमे वै लौका स्रुचः । तै० ३। ३। १॥ २॥ यजमानः स्रुचः । तै० ३। ३। ६।३ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्राग्नी देवते ॥ छन्दः- १, ८, १२ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ३, ६, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ७, ९, १०, १३ त्रिष्टुप् । ४ भुरिक् पंक्तिः । ५ पंक्तिः । त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जेव्हा कारागिरांकडून वायू व विद्युत कार्यसिद्धीसाठी कलायंत्राच्या क्रियांनी युक्त केले जातात तेव्हा ते सर्व सुखाच्या प्राप्तीसाठी समर्थ होतात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The flames of yajna fire are blazing, the ladles are full and raised, the holy seats are spread and occupied in anticipation of Indra and Agni for whom the yajna is organised. And now Indra and Agni, we pray, come and join us with brilliant soma showers for the sake of joy.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are they is taught further in the 4th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men, you should utilize the air and electricity for the accomplishment of various works after testing or experimenting with them well. When the fires in machines are kindled, these famous fire and air set them in motion like the ladles in the hands of the priests covered with mechanical instruments sprinkled with swift and speedy waters, going to the firmament for bringing about good delight.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (आनजाना) प्रसिद्धौ प्रसिद्धिकारकौ = Famous or leading to fame. (यतस्त्रु चा) यता उद्यताः स्रुचः स्रुग्वत् कलादयो ययोस्तौ । अत्र सर्वत्र सुषां सुलुगिति द्विवचनस्थान आकारादेशः ॥ = Which have mechanical instruments like the ladles in the hands of the priests. (सोमैः) रसभूतैर्जलैः = With Juices in the form of waters.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    When technicians utilize the air and electricity for the accomplishment of various works, they lead to all kinds of happiness.

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