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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 108 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 108/ मन्त्र 9
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यदि॑न्द्राग्नी अव॒मस्यां॑ पृथि॒व्यां म॑ध्य॒मस्यां॑ पर॒मस्या॑मु॒त स्थः। अत॒: परि॑ वृषणा॒वा हि या॒तमथा॒ सोम॑स्य पिबतं सु॒तस्य॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑ । अ॒व॒मस्या॑म् । पृ॒थि॒व्याम् । म॒ध्य॒मस्या॑म् । प॒र॒मस्या॑म् । उ॒त । स्थः । अतः॑ । परि॑ । वृ॒ष॒णौ॒ । आ । हि । या॒तम् । अथ॑ । सोम॑स्य । पि॒ब॒त॒म् । सु॒तस्य॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदिन्द्राग्नी अवमस्यां पृथिव्यां मध्यमस्यां परमस्यामुत स्थः। अत: परि वृषणावा हि यातमथा सोमस्य पिबतं सुतस्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। इन्द्राग्नी इति। अवमस्याम्। पृथिव्याम्। मध्यमस्याम्। परमस्याम्। उत। स्थः। अतः। परि। वृषणौ। आ। हि। यातम्। अथ। सोमस्य। पिबतम्। सुतस्य ॥ १.१०८.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 108; मन्त्र » 9
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरेतौ भौतिकौ च कीदृशावित्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे इन्द्राग्नी यद् युवामवमस्यां मध्यमस्यामुतापि परमस्यां पृथिव्यां स्वराज्यभूमावधिकृतौ स्थस्तौ सर्वदा सर्वे रक्षणीयौ स्तः। अतोऽत्र परिवृषणौ भूत्वाऽऽयातं हि खल्वथ तत्रस्थं सुतस्य सोमस्य रसं पिबतमित्येकः ॥ १ ॥ यद् याविमाविन्द्राग्नी अवमस्यां मध्यमस्यामुतापि परमस्यां पृथिव्यां स्थोऽतोऽत्र परिवृषणौ भूत्वाऽऽयातमागच्छतो हि खल्वथ यौ सुतस्य सोमस्य रसं पिबतं पिबतस्तौ कार्यसिद्धये प्रयुज्य मनुष्यैर्महालाभः संपादनीयः ॥ ९ ॥

    पदार्थः

    (यत्) यौ (इन्द्राग्नी) न्यायसेनाध्यक्षौ वायुविद्युतौ वा (अवमस्याम्) अनुत्कृष्टगुणायाम् (पृथिव्याम्) स्वराज्यभूमौ (मध्यमस्याम्) मध्यमगुणायाम् (परमस्याम्) उत्कृष्टगुणायाम् (उत) अपि (स्थः) भवथो भवतो वा (अतः०) इति पूर्ववत् ॥ ९ ॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषालङ्कारः। उत्तममध्यमनिकृष्टगुणकर्मस्वभावभेदेन यद्यद्राज्यमस्ति तत्र तत्रोत्तममध्यमनिकृष्टगुणकर्मस्वभावान्मनुष्यान् संस्थाप्य चक्रवर्त्तिराज्यं कृत्वाऽऽनन्दः सर्वैर्भोक्तव्यः। एवमेतत्सृष्टिस्थौ सर्वलोकेष्ववस्थितौ पवनविद्युतौ विज्ञाय संप्रयुज्य कार्यसिद्धिं संपाद्य दारिद्र्यादिदुःखं सर्वैर्विनाशनीयम् ॥ ९ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे और भौतिक इन्द्र और अग्नि कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (इन्द्राग्नी) न्यायाधीश और सेनाधीश ! (यत्) जो तुम दोनों (अवमस्याम्) निकृष्ट (मध्यमस्याम्) मध्यम् (उत) और (परमस्याम्) उत्तम गुणवाली (पृथिव्याम्) अपनी राज्यभूमि में अधिकार पाए हुए (स्थः) हो वे सब कभी सबकी रक्षा करने योग्य हो (अतः) इस कारण इस उक्त राज्य में (परि, वृषणौ) सब प्रकार सुखरूपी वर्षा करनेहारे होकर (आ, यातम्) आओ (हि) एक निश्चय के साथ (अथ) इसके उपरान्त उस राज्यभूमि में (सुतस्य) उत्पन्न हुए (सोमस्य) संसारी पदार्थों के रस को (पिबतम्) पिओ, यह एक अर्थ हुआ ॥ १ ॥ (यत्) जो ये (इन्द्राग्नी) पवन और बिजुली (अवमस्याम्) निकृष्ट (मध्यमस्याम्) मध्यम (उत) वा (परमस्याम्) उत्तम गुणवाली (पृथिव्याम्) पृथिवी में (स्थः) हैं (अतः) इससे यहाँ (परि, वृषणौ) सब प्रकार से सुखरूपी वर्षा करनेवाले होकर (आ, यातम्) आते और (अथ) इसके उपरान्त (हि) एक निश्चय के साथ जो (सुतस्य) निकाले हुए (सोमस्य) पदार्थों के रस को (पिबतम्) पीते हैं, उनको काम सिद्धि के लिये कलाओं में संयुक्त करके महान् लाभ सिद्ध करना चाहिये ॥ ९ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। उत्तम, मध्यम, और निकृष्ट गुण, कर्म और स्वभाव के भेद से जो-जो राज्य है, वहाँ-वहाँ वैसे ही उत्तम, मध्यम, निकृष्ट गुण, कर्म और स्वभाव के मनुष्यों को स्थापनकर और चक्रवर्त्ती राज्य करके सबको आनन्द भोगना-भोगवाना चाहिये। ऐसे ही इस सृष्टि में ठहरे और सब लोकों में प्राप्त होते हुए पवन और बिजुली को जान और उनका अच्छे प्रकार प्रयोग कर तथा कार्य्यों की सिद्धि करके दारिद्र्य दोष सबको नाश करना चाहिये ॥ ९ ॥

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    विषय

    त्रिलोकी के तीन रत्न

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्राग्नी) = इन्द्र और अग्निदेवो ! शक्ति और प्रकाश के तत्वो ! (यत्) = जो आप (अवमस्याम्) = इस सबसे निचली (पृथिव्याम्) = पृथिवी में (स्थः) = हो , (मध्यमस्याम्) = मध्यम पृथिवी , अर्थात् अन्तरिक्षलोक में हो (उत) = और (परमस्याम्) = सर्वोत्कृष्ट पृथिवी अर्थात् द्युलोक में हो [पृथिवीशब्दस्त्रिष्वपि लोकेषु वर्तते - सा०] , (अतः) = इसलिए आप (वृषणौ)= सुखों के वर्षण करनेवाले (हि) = निश्चय से (परि आयातम्) = हमें सब प्रकार से प्राप्त होओ (अथ) = और (सुतस्य सोमस्य) = उत्पन्न सोम का (पिबतम्) = पान करो । 

    २. यहाँ अध्यात्म में “अवमपृथिवी” शरीर है , “मध्यमपृथिवी" हृदयान्तरिक्ष है और “परमपृथिवी" मस्तिष्करूप द्युलोक है । शरीर , मन व मस्तिष्क में इन्द्र व अग्नि - तत्त्वों का समन्वित निवास होने पर शरीर दृढ़ बना रहता है , मन निर्मल बनता है और मस्तिष्क ज्ञानज्योति से दीप्त हो उठता है । स्वास्थ्य , नैर्मल्य व ज्ञानदीप्ति तीनों ही क्रमशः तीन पृथिवियों के रत्न हैं - इन तीनों का समानरूप से महत्त्व है । तीनों अलग - अलग अपना महत्त्व खो बैठते हैं । तीनों का समन्वय ही तीनों को महत्त्वपूर्ण बनाता है । 

    ३. इनको एक - जैसा ही महत्त्व देना चाहिए । स्वास्थ्य को सबसे पहले कहा है , अतः स्वास्थ्य सर्वाधिक महत्त्व रखता है - यह भ्रान्ति उत्पन्न न हो जाए इस दृष्टिकोण से अग्निम मन्त्र में क्रम परिवर्तन कर देते हैं । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - स्वास्थ्य , नैर्मल्य और ज्ञानदीप्ति - ये त्रिलोकी के तीन रत्न हैं । 
     

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    विषय

    सभाध्यक्ष, न्यायाध्यक्षों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( यत् ) जिस कारण से ( इन्द्राग्नी ) वायु और विद्युत् के समान न्यायाध्यक्ष और सेनाध्यक्ष ( अवमस्याम् ) उत्तम गुण से रहित ( मध्यमस्यां ) मध्यम गुण वाली और ( परमस्यां ) अति उत्तम गुणों बाली तीनों प्रकार की ( पृथिव्यां ) पृथिवी में अधिकार, मान और सत्कार पूर्वक ( स्थः ) रहते हैं ( अतः ) उसी से वे दोनों सब प्रजा को सुखप्रद होकर प्राप्त हों और प्राप्त ऐश्वर्य का भोग करें

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्राग्नी देवते ॥ छन्दः- १, ८, १२ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ३, ६, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ७, ९, १०, १३ त्रिष्टुप् । ४ भुरिक् पंक्तिः । ५ पंक्तिः । त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. उत्तम, मध्यम व निकृष्ट गुण, कर्म, स्वभावाच्या फरकाने जे जे राज्य आहे . तेथे तेथे उत्तम, मध्यम, निकृष्ट गुण, कर्म, स्वभावाच्या माणसांना नेमून चक्रवर्ती राज्य करून सर्वांनी आनंद भोगावा व भोगवावा. तसेच या सृष्टीत सर्व गोलात वायू व विद्युत स्थित आहेत, हे जाणावे व त्यांचा चांगल्या प्रकारे प्रयोग करून कार्यसिद्धी करावी. दारिद्र्य दोषाचा सर्वांनी नाश केला पाहिजे. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra and Agni, whether you abide in the lower region of the earth, or in the middle region of the sky, or in the highest region of heaven, from there, powers generous and heroic, come and then drink of the soma of joy distilled from the life of existence.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are these (Indra and Agni) is taught further in the ninth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra and Agni (Chief Judicial Officer and Chief Commander of the Army.) You who have sway over the best, middle and low kind of the land, should be always protected and guarded by all men. Being showerers of happiness, come hither from wherever you may be and drink of the effused juice of the various articles in the world.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (इन्द्राग्नी) न्यायसेनाध्यक्षो वायुविद्युतौ वा The heads of the judicial department and Army or air and electricity.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (1) The State may be divided into three categories on account of the best, the middle and mean attributes and habits of its inhabitants Persons of the same nature, habits temparament should be established in the above regions and should enjoy bliss by having a vast and good Government. (2) All men should know the attributes of the air and electricity which reside in all worlds. They should be utilized properly, in order to destroy the misery of poverty etc. having the accomplishment of various works.

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