ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 108/ मन्त्र 12
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - इन्द्राग्नी
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यदि॑न्द्राग्नी॒ उदि॑ता॒ सूर्य॑स्य॒ मध्ये॑ दि॒वः स्व॒धया॑ मा॒दये॑थे। अत॒: परि॑ वृषणा॒वा हि या॒तमथा॒ सोम॑स्य पिबतं सु॒तस्य॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑ । उत्ऽइ॑ता । सूर्य॑स्य । मध्ये॑ । दि॒वः । स्व॒धया॑ । मा॒दये॑थे॒ इति॑ । अतः॑ । परि॑ । वृ॒ष॒णौ॒ । आ । हि । या॒तम् । अथ॑ । सोम॑स्य । पि॒ब॒त॒म् । सु॒तस्य॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदिन्द्राग्नी उदिता सूर्यस्य मध्ये दिवः स्वधया मादयेथे। अत: परि वृषणावा हि यातमथा सोमस्य पिबतं सुतस्य ॥
स्वर रहित पद पाठयत्। इन्द्राग्नी इति। उत्ऽइता। सूर्यस्य। मध्ये। दिवः। स्वधया। मादयेथे इति। अतः। परि। वृषणौ। आ। हि। यातम्। अथ। सोमस्य। पिबतम्। सुतस्य ॥ १.१०८.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 108; मन्त्र » 12
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 7
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।
अन्वयः
यत् याविन्द्राग्नी उदिता सूर्यस्य दिवो मध्ये स्वधया सर्वान् मादयेथे हर्षयतोऽतो वृषणौ पर्य्यायातं परितो बाह्याभ्यन्तरत आगच्छतो हि खल्वथ सुतस्य सोमस्य रसं पिबतं पिबतः ॥ १२ ॥
पदार्थः
(यत्) यतः (इन्द्राग्नी) पूर्वोक्तौ (उदिता) उदित्तौ प्राप्तोदयौ (सूर्य्यस्य) सवितृमण्डलस्य (मध्ये) (दिवः) अन्तरिक्षस्य (स्वधया) उदकेनान्नेन वा सह वर्त्तमानौ (मादयेथे) हर्षयतः (अतः, परि०) इति पूर्ववत् ॥ १२ ॥
भावार्थः
नहि पवनविद्युद्भ्यां विना कस्यापि लोकस्य प्राणिनो वा रक्षा जीवनं च संभवति तस्मादेतौ जगत्पालने मुख्यौ स्तः ॥ १२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(यत्) जिस कारण (इन्द्राग्नी) पवन और बिजुली (उदिता) उदय को प्राप्त हुए (सूर्य्यस्य) सूर्य्यमण्डल के वा (दिवः) अन्तरिक्ष के (मध्ये) बीच में (स्वधया) अन्न और जल से सबको (मादयेथे) हर्ष देते हैं (अतः) इससे (वृषणा) सुख की वर्षा करनेवाले (परि) सब प्रकार से (आ, यातम्) आते अर्थात् बाहर और भीतर से प्राप्त होते और (हि) निश्चय है कि (अथ) इसके अनन्तर (सुतस्य) निकासे हुए (सोमस्य) जगत् के पदार्थों के रस को (पिबतम्) पीते हैं ॥ १२ ॥
भावार्थ
पवन और बिजुली के विना किसी लोक वा प्राणी की रक्षा और जीवन नहीं होते हैं, इससे संसार की पालना में ये ही मुख्य हैं ॥ १२ ॥
विषय
प्रातः व मध्याह्न में “इन्द्राग्नी”
पदार्थ
१.हे (इन्द्राग्नी) = शक्ति व प्रकाश के अधिष्ठातृदेवो ! (यत्) = जो (उदिता सूर्यस्य) = सूर्य के उदयकाल में अथवा (दिवः मध्ये) = सूर्य के द्युलोक के मध्य में पहुँचने पर (स्वधया) = अपनी धारणशक्ति से (मादयेथे) = आनन्दित करते हो , (अतः) = इसलिए (वृषणौ) = हे सुखों के वर्षण करनेवाले इन्द्राग्नी आप (हि) = निश्चय से (परि आयातम्) = सब प्रकार से हमें प्राप्त होओ ही (अथ) = और (सुतस्य सोमस्य) = उत्पन्न हुए - हुए सोम [वीर्य] का (पिबतम्) = पान करो ।
२. उदय होता हुआ सूर्य अपनी किरणों से सब रोगकृमियों का संहार करता है और हिरण्यपाणि होता हुआ हमारे शरीर में शक्तियों का सञ्चार करता है , प्रकाश को तो फैलाता ही है । मध्याह्न का सूर्य भी यद्यपि सामान्यतः हमारे लिए असह्य तापवाला होता है तो भी वह वनस्पतियों में प्राणशक्ति की स्थापना करता ही है । इस प्रकार क्या प्रातः और क्या मध्याह्न में , इन्द्र व अग्नि अपनी धारणशक्ति से हमें हर्षित करते हैं । ये इन्द्र व अग्नि हमपर सुखों का वर्षण करनेवाले हैं । शक्ति व प्रकाश को अपना लक्ष्य बनानेवाला पुरुष शरीर में सोम का रक्षण करता है । यही इन्द्राग्नी का सोमपान है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रातः और मध्याह्न में इन्द्र और अग्नि अपनी धारणशक्ति से हमें हर्षित करते हैं ।
विषय
विद्वानों के कर्तव्य ।
भावार्थ
( यत् ) जिस कारण से ( उद् इता ) ऊपर की तरफ़ गये हुए ( इन्द्राग्नी ) वायु और अग्नितत्व दोनों ( सूर्यस्य ) सूर्य ( दिवः ) और अन्तरिक्ष के बीच में ( स्वधया ) जल के साथ युक्त होकर स्वयं तृप्त, जलपूर्ण होते और ( मादयेथे ) सब प्राणियों को सुखकारी होते हैं । ( अतः ) इसी से वे दोनों ( वृषणौ ) जलों के वर्षणकारी होते हैं । वे प्राप्त होते और जल को भूपृष्ठ परसे पान करते हैं। इसी प्रकार ( सूर्यस्य दिवः मध्ये ) सूर्य के समान तेजस्वी प्रकाश देने वाले पुरुष के ज्ञान प्रकाश के मध्य में रह कर उदय को प्राप्त होने वाले इन्द्र और अग्नि, ऐश्वर्यवान् और ज्ञानी पुरुष ( स्वधया ) अपने शरीर को धारण करने वाली आजीविका या अन्न से तृप्त हों। वे बलवान् हष्ट पुष्ट होकर आवें । पुनः ( सुतस्य सोमस्य ) प्राप्त वीर्य, ऐश्वर्य आदि गृहस्थोचित पदार्थों का भोग करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्राग्नी देवते ॥ छन्दः- १, ८, १२ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ३, ६, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ७, ९, १०, १३ त्रिष्टुप् । ४ भुरिक् पंक्तिः । ५ पंक्तिः । त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
वायू व विद्युतशिवाय कोणताही लोक (गोल) किंवा प्राणी यांचे रक्षण होऊ शकत नाही व जीवन जगणे शक्य नसते. त्यासाठी जगाचे पालन करण्यात हे मुख्य आहेत. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra and Agni, generated of the sun in the midst of heaven, inspire and enlighten with their essential power of energy and food for life. From there, powers generous and brilliant, come and then delight with a drink of soma distilled for you and all.
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