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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 108 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 108/ मन्त्र 2
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    याव॑दि॒दं भुव॑नं॒ विश्व॒मस्त्यु॑रु॒व्यचा॑ वरि॒मता॑ गभी॒रम्। तावाँ॑ अ॒यं पात॑वे॒ सोमो॑ अ॒स्त्वर॑मिन्द्राग्नी॒ मन॑से यु॒वभ्या॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याव॑त् । इद॒म् । भुव॑नम् । विश्व॑म् । अ॒स्ति॒ । उ॒रु॒ऽव्यचा॑ । व॒रि॒मता॑ । ग॒भी॒रम् । तावा॑न् । अ॒यम् । पात॑वे । सोमः॑ । अ॒स्तु॒ । अर॑म् । इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑ । मन॑से । यु॒वऽभ्या॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यावदिदं भुवनं विश्वमस्त्युरुव्यचा वरिमता गभीरम्। तावाँ अयं पातवे सोमो अस्त्वरमिन्द्राग्नी मनसे युवभ्याम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यावत्। इदम्। भुवनम्। विश्वम्। अस्ति। उरुऽव्यचा। वरिमता। गभीरम्। तावान्। अयम्। पातवे। सोमः। अस्तु। अरम्। इन्द्राग्नी इति। मनसे। युवऽभ्याम् ॥ १.१०८.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 108; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यूयं यावदुरुव्यचा वरिमता सह वर्त्तमानं गभीरं भुवनमिदं विश्वमस्ति तावानयं सोमोऽस्ति मनस इन्द्राग्नी अरमतो युवभ्याम् पातवे तावन्तं बोधं पुरुषार्थं च स्वीकुरुत ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (यावत्) (इदम्) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षलक्षणम् (भुवनम्) सर्वेषामधिकरणम् (विश्वम्) जगत् (अस्ति) वर्त्तते (उरुव्यचा) बहुव्याप्त्या (वरिमता) बहुस्थूलत्वेन सह (गभीरम्) अगाधम् (तावान्) तावत्प्रमाणः (अयम्) (पातवे) पातुम् (सोमः) उत्पन्नः पदार्थसमूहः (अस्तु) भवतु (अरम्) पर्याप्तम् (इन्द्राग्नी) वायुसवितारौ (मनसे) विज्ञापयितुम् (युवभ्याम्) एताभ्याम् ॥ २ ॥

    भावार्थः

    विचक्षणैः सर्वैरिदमवश्यं बोध्यं यत्र यत्र मूर्त्तिमन्तो लोकाः सन्ति तत्र तत्र वायुविद्युतौ व्यापकत्वस्वरूपेण वर्त्तेते। यावन्मनुष्याणां सामर्थ्यमस्ति तावदेतद्गुणान् विज्ञाय पुरुषार्थेनोपयोज्यालं सुखेन भवितव्यम् ॥ २ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम (यावत्) जितना (उरुव्यचा) बहुत व्याप्ति अर्थात् पूरेपन और (वरिमता) बहुत स्थूलता के साथ वर्त्तमान (गभीरम्) गहिरा (भुवनम्) सब वस्तुओं के ठहरने का स्थान (इदम्) यह प्रकट अप्रकट (विश्वम्) जगत् (अस्ति) है (तावान्) उतना (अयम्) यह (सोमः) उत्पन्न हुआ पदार्थों का समूह है, उसका (मनसे) विज्ञान कराने को (इन्द्राग्नी) वायु और अग्नि (अरम्) परिपूर्ण हैं, इससे (युवभ्याम्) उन दोनों से (पातवे) रक्षा आदि के लिये उतने बोध और पदार्थ को स्वीकार करो ॥ २ ॥

    भावार्थ

    विचारशील पुरुषों को यह अवश्य जानना चाहिये कि जहाँ-जहाँ मूर्त्तिमान् लोक हैं, वहाँ-वहाँ पवन और बिजुली अपनी व्याप्ति से वर्त्तमान हैं। जितना मनुष्यों का सामर्थ्य है, उतने तक इनके गुणों को जानकर और पुरुषार्थ से उपयोग लेकर परिपूर्ण सुखी होवें ॥ २ ॥

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    विषय

    भुवन की विशालता के अनुपात में सोमपान का महत्त्व

    पदार्थ

    १. (यावत्) = जितना (इदम्) = यह (भुवनं विश्वम्) = भुवन व्यापक (अस्ति) = है , जितना यह (उरुव्यचा) = अधिक विस्तारवाला है और (वरिमता) = विशालता के कारण (गभीरम्) = जितना यह गम्भीर है (तावान्) = उतना ही (अयम्) = यह (सोमः) = सोम [वीर्य] (पातवे) = आप दोनों के पीने के लिए (अस्तु) = हो । सोमपान के अनुपात में ही हम इस भुवन का ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे । जितनी भुवन की विशालता व गम्भीरता है , उतनी ही सोमपान की आवश्यकता है । भुवन अनन्त - सा है , सोमपान या वीर्यरक्षण भी जितना हो उतना ही ठीक है । 

    २. हे (इन्द्राग्नी) = इन्द्र व अग्नि देवो ! शक्ति व प्रकाश के देवताओ ! (युवभ्याम्) = आप दोनों के लिए (मनसे) = मनन के लिए , विचार के लिए यह सुरक्षित हुआ - हुआ सोम (अरम्) = पर्याप्त व समर्थ (अस्तु) = हो । इस सोम के द्वारा जहाँ शरीर में शक्ति की वृद्धि हो वहाँ मस्तिष्क में यह ज्ञानाग्नि का ईन्धन बने । इस प्रकार हममें इन्द्र व अग्नि - तत्त्वों का विकास हो । इनके विकास से हम ब्रह्माण्ड के तत्त्वज्ञान को प्राप्त करने के योग्य होंगे , एवं जितना विशाल यह ब्रह्माण्ड , उतना ही अधिक सोमपान का महत्त्व । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - सोम के शरीर में रक्षण से ही इन्द्र व अग्नि - तत्त्वों का विकास होता है । इसी से ब्रह्माण्ड के तत्त्वों का ज्ञान होता है , अतः सोमपान का उतना ही महत्त्व है जितना ब्रह्माण्ड की विशालता का । 
     

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    विषय

    इन्द्र और अग्नि, के समान राजा अमात्य, प्रकाशप्रद भ्राचार्य और अध्यात्म में जीव परमेश्वर का वर्णन

    भावार्थ

    (इदं) यह ( विश्वम् भुवनम् ) समस्त भुवन, लोक (यावत्) जितना विस्तृत है और जितना यह ( उरुव्यचा ) बहुत विस्तृत ( वरिमता ) विशालता से ( गभीरम् ) गंभीर, अगाध है ( तावान् ) उतना ही ( अयं ) यह ( सोमः ) ऐश्वर्यमय राष्ट्र भी हे ( इन्द्राग्नी ) इन्द्र और अग्नि सूर्य और वायु और सूर्य के समान तेजस्वी राजन् और सेनापते ! ( युवभ्यां ) तुम दोनों के ( मनसे ) चित्त के संतोष और ज्ञान और ( पातवे ) पालन करने और भोग करने के लिये ( अरम् अस्तु ) बहुत अधिक हो । ( २ ) अध्यात्म में—जीव और परमेश्वर के लिये तो में यह समस्त संसार चिन्तन और ज्ञानवर्धन तथा आनन्द अनुभव के लिये ( सोमः ) परमानन्दमय हो जाता है। (३) सूर्य और वायु दोनों समस्त विश्वभर के जल को अपने में धारण करने हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्राग्नी देवते ॥ छन्दः- १, ८, १२ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ३, ६, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ७, ९, १०, १३ त्रिष्टुप् । ४ भुरिक् पंक्तिः । ५ पंक्तिः । त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विचारशील पुरुषांनी हे अवश्य जाणावे की जेथे जेथे मूर्तिमान गोल आहेत तेथे तेथे वायू व विद्युतची व्याप्ती असते. जितके माणसांचे सामर्थ्य आहे. तितके त्यांच्या गुणांना जाणून पुरुषार्थाने उपयोग करून पूर्णपणे सुखी व्हावे ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra and Agni, lords of the chariot, as far deep and majestic as this world is with its wide expanse and gravity, that far may be the beauty and pleasure of the soma for you to drink to your heart’s desire.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are Indragn is taught further in the second Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men! Vast as is the whole universe in expanse and profound in depth, such is the group of all those substances created by God. Indra (air) and Agni (fire) are sufficient to denote the glory of God. You should acquire knowledge and be industrious, drinking the juice of nourishing herbs and plants like Soma.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (सोम:) उत्पन्न: पदार्थसमूहः = The group of articles created by God. (मनसे) विज्ञार्पायतुम् = To denote.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Wise men should certainly know it that air and electricity pervade all embodied articles. Men should enjoy happiness by acquiring the knowledge of air and fire to the best of their power and utilize them properly.

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