ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 108/ मन्त्र 6
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - इन्द्राग्नी
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यदब्र॑वं प्रथ॒मं वां॑ वृणा॒नो॒३॒॑ऽयं सोमो॒ असु॑रैर्नो वि॒हव्य॑:। तां स॒त्यां श्र॒द्धाम॒भ्या हि या॒तमथा॒ सोम॑स्य पिबतं सु॒तस्य॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अब्र॑वम् । प्र॒थ॒मम् । वा॒म् । वृ॒णा॒नः॑ । अ॒यम् । सोमः॑ । असु॑रैः । नः॒ । वि॒ऽहव्यः॑ । ताम् । स॒त्याम् । श्र॒द्धाम् । अ॒भि । आ । हि । या॒तम् । अथ॑ । सोम॑स्य । पि॒ब॒त॒म् । सु॒तस्य॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदब्रवं प्रथमं वां वृणानो३ऽयं सोमो असुरैर्नो विहव्य:। तां सत्यां श्रद्धामभ्या हि यातमथा सोमस्य पिबतं सुतस्य ॥
स्वर रहित पद पाठयत्। अब्रवम्। प्रथमम्। वाम्। वृणानः। अयम्। सोमः। असुरैः। नः। विऽहव्यः। ताम्। सत्याम्। श्रद्धाम्। अभि। आ। हि। यातम्। अथ। सोमस्य। पिबतम्। सुतस्य ॥ १.१०८.६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 108; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे स्वामिशिल्पिनौ वां प्रथमं यदहमब्रवमसुरैर्वृणानो विहव्योऽयं सोमो युवयोरस्ति तेन नोऽस्माकं तां सत्यां श्रद्धामभ्यायायातथ हि किल सुतस्य सोमस्य रसं पिबतम् ॥ ६ ॥
पदार्थः
(यत्) वचः (अब्रवम्) उक्तवानस्मि (प्रथमम्) (वाम्) युवाभ्यां युवयोर्वा (वृणानः) स्तूयमानः (अयम्) प्रत्यक्षः (सोमः) उत्पन्नः पदार्थसमूहः (असुरैः) विद्याहीनैर्मनुष्यैः (नः) अस्माकम् (विहव्यः) विविधतया ग्रहीतुं योग्यः (ताम्) (सत्याम्) (श्रद्धाम्) (अभि) (आ) (हि) किल (यातम्) आगच्छतम् (अथ) आनन्तर्ये। (सोमस्य०) इति पूर्ववत् ॥ ६ ॥
भावार्थः
जन्मसमये सर्वेऽविद्वांसो भवन्ति पुनर्विद्याभ्यासं कृत्वा विद्वांसश्च तस्माद्विद्याहीना मूर्खा ज्येष्ठा विद्यावन्तश्च कनिष्ठा गण्यन्ते। कोऽपि भवेत् परन्तु तं प्रति सत्यमेव वाच्यं न कञ्चित् प्रत्यसत्यम् ॥ ६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे दोनों कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे स्वामी और शिल्पी जनो ! (वाम्) तुम्हारे लिये (प्रथमम्) पहिले (यत्) जो मैंने (अब्रवम्) कहा वा (असुरैः) विद्याहीन मनुष्यों की (वृणानः) बड़ाई किई हुई (विहव्यः) अनेकों प्रकार से ग्रहण करने योग्य (अयम्) यह प्रत्यक्ष (सोमः) उत्पन्न हुआ पदार्थों का समूह (तुम्हारा) है उससे (नः) हम लोगों की (ताम्) उस (सत्याम्) सत्य (श्रद्धाम्) प्रीति को (अभि, आ, यातम्) अच्छी प्रकार प्राप्त होओ (अथ) इसके पीछे (हि) एक निश्चय के साथ (सुतस्य) निकाले हुए (सोमस्य) संसारी वस्तुओं के रस को (पिबतम्) पिओ ॥ ६ ॥
भावार्थ
जन्म के समय में सब मूर्ख होते हैं और फिर विद्या का अभ्यास करके विद्वान् भी हो जाते हैं, इससे विद्याहीन मूर्ख जन ज्येष्ठ और विद्वान् जन कनिष्ठ गिने जाते हैं। सबको यही चाहिये कि कोई हो परन्तु उसके प्रति सांची ही कहैं किन्तु किसीके प्रति असत्य न कहें ॥ ६ ॥
विषय
सोमरक्षण के लिए दृढ़ आस्था
पदार्थ
१. हे (इन्द्राग्नी) = शक्ति व प्रकाश के तत्त्वो ! (वाम्) = आप दोनों का (वृणानः) = वरण करते हुए मैंने (यत्) = जो (प्रथमम्) = सबसे पहले (अब्रवम्) = कहा कि (अयं सोमः) = यह सोम (नः) = हममें से (असुरैः) = प्राणशक्ति में रमण करनेवालों से (विहव्यः) = विशेषरूप से पुकारने योग्य है - शरीर में ही सुरक्षित करने योग्य है । (तां सत्यां श्रद्धाम्) = उस सत्य श्रद्धा को अभिलक्ष्य करके (हि) = निश्चयपूर्वक (आयातम्) = आप हमें प्राप्त होओ (अथ) = और (सुतस्य सोमस्य) = उत्पन्न हुए - हुए सोम का (पिबतम्) = पान करो । जितना - जितना हम शक्तिसम्पादन के व्यायामादि कार्यों में तथा प्रकाश की प्राप्ति के लिए स्वाध्याय आदि कार्यों में लगेंगे , उतना - उतना ही सोम का रक्षण हमारे लिए सम्भव होगा ।
२. हमारी यह श्रद्धा - दृढ़ विश्वास बना ही रहे कि इन्द्र व अग्नि - तत्त्वों के प्रतिष्ठापन के लिए सोम [वीर्य] का रक्षण आवश्यक है । इस श्रद्धा के होने पर हम सोमरक्षण में प्रवृत्त होंगे । सोमरक्षण से हमें शक्ति व प्रकाश प्राप्त होगा । ये शक्ति व प्रकाश हमें सोमरक्षण के और अधिक योग्य बनाएँगे । सोमरक्षण से शक्ति व प्रकाश का प्रादुर्भाव और शक्ति व प्रकाश से सोम का रक्षण इस प्रकार यह इनका परस्पर भावन होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - उत्पन्न सोम शरीर में ही रक्षणीय है । यही इन्द्राग्नी का प्रतिष्ठापक है ।
विषय
क्षत्र, ब्रह्म, और स्त्री पुरुषों के परस्पर कर्तव्य ।
भावार्थ
हे स्त्री पुरुषो! मैं ( वां ) तुम दोनों को ( वृणानः ) यज्ञ में यज्ञ के सम्पादन के लिये पुरोहितों के समान वरण करता हुआ, योग्य कार्य कुशल जान कर ( यत् ) जो कुछ भी ( अब्रवम् ) कहूं, उपदेश करूं ( अयं ) यह ( सोमः ) ज्ञानोपदेश ( नः ) हम में से ( असुरैः ) केवल प्राणों में रमण करने वाले ज्ञान रहित पुरुषों को ( विहव्यः ) विविध प्रकार से ग्रहण कर ज्ञानवान् होना चाहिये । हे ( इन्द्राग्नी ) इन्द्र और अग्नि के समान स्त्री पुरुषो ! आप दोनों ( तां ) उस ( सत्याम् ) सत्य ( श्रद्धा ) श्रद्धा को ( अभि आयातम् ) प्राप्त होओ ( अथ ) और ( सुतस्य सोमस्य ) प्राप्त ज्ञान और उससे प्राप्त सांसारिक पदार्थों का सुख ( पिबतम् ) प्राप्त करो । (२) ( अयं सोमः असुरैः विहव्यः ) यह राष्ट्र ऐश्वर्य बलवान् पुरुषों के विविध उपायों से भोग्य है । उसी के लिये मुख्य रूप से वरण करता हुआ अमात्य राजा या सेनाध्यक्ष या सभाध्यक्ष दोनों को उपदेश करता हूं कि आप दोनों सज्जनों को हितकारिणी सत्य धारण करने वाली वाणी को प्राप्त हों और तब न्यायानुकूल ऐश्वर्य का भोग करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्राग्नी देवते ॥ छन्दः- १, ८, १२ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ३, ६, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ७, ९, १०, १३ त्रिष्टुप् । ४ भुरिक् पंक्तिः । ५ पंक्तिः । त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जन्मतः सर्वजण अज्ञानी असतात, नंतर विद्येचा अभ्यास करून विद्वानही होतात; परंतु काही वेळा विद्याहीन मूर्खजन ज्येष्ठ व विद्वान जन कनिष्ठ समजले जातात तेव्हा सर्वांनी खऱ्याला खरे म्हणावे खोट्याला खोटे म्हणावे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
What I spoke of you first, opting to invoke you in the yajna of science and creation, was true and faithful. And the soma distilled in yajna is worth invoking even by the asuras, those who live merely at the physical level. Come in response to that true and faithful voice of ours and drink of this soma of the joy distilled.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How are Indra and Agni is taught further in the sixth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O wealthy master and learned technician, as I have told you before, this group of the things created by God, and praised by un-cultured ordinary mortals and to be used properly for accomplishing various purposes is yours. Come to us to fulfil our genuine faith in you and drink of the effused juice of the various articles in the world.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
विहव्यः विविधतया ग्रहीतुं योग्यः = To be taken or used properly. (वृणान:) स्तूयमानः = Praised.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
At the time of birth, all are devoid of knowledge. Afterwards they become learned by acquiring knowledge industriously. Therefore in a sense un-educated persons are older in age than the learned. Whatever may be the case, truth alone should be spoken by every one and not un-truth.
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