ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 108/ मन्त्र 7
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - इन्द्राग्नी
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यदि॑न्द्राग्नी॒ मद॑थ॒: स्वे दु॑रो॒णे यद्ब्र॒ह्मणि॒ राज॑नि वा यजत्रा। अत॒: परि॑ वृषणा॒वा हि या॒तमथा॒ सोम॑स्य पिबतं सु॒तस्य॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑ । मद॑थः । स्वे । दु॒रो॒णे । यत् । ब्र॒ह्मणि॑ । राज॑नि । वा॒ । य॒ज॒त्रा॒ । अतः॑ । परि॑ । वृ॒ष॒णौ॒ । आ । हि । या॒तम् । अथ॑ । सोम॑स्य । पि॒ब॒त॒म् । सु॒तस्य॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदिन्द्राग्नी मदथ: स्वे दुरोणे यद्ब्रह्मणि राजनि वा यजत्रा। अत: परि वृषणावा हि यातमथा सोमस्य पिबतं सुतस्य ॥
स्वर रहित पद पाठयत्। इन्द्राग्नी इति। मदथः। स्वे। दुरोणे। यत्। ब्रह्मणि। राजनि। वा। यजत्रा। अतः। परि। वृषणौ। आ। हि। यातम्। अथ। सोमस्य। पिबतम्। सुतस्य ॥ १.१०८.७
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 108; मन्त्र » 7
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे वृषणौ यजत्रा इन्द्राग्नी युवां यद्यतः स्वे दुरोणे यद् यस्मिन् ब्रह्मणि राजनि वा मदथोऽतः कारणात्पर्य्यायातमथ हि खलु सुतस्य सोमस्य पिबतम् ॥ ७ ॥
पदार्थः
(यत्) यतः (इन्द्राग्नी) (मदथः) हर्षथः (स्वे) स्वकीये (दुरोणे) गृहे (यत्) यतः (ब्रह्मणि) ब्राह्मणसभायाम् (राजनि) राजसभायाम् (वा) अन्यत्र (यजत्रा) सङ्गम्य सत्कर्त्तव्यौ (अतः) कारणात् (परि) (वृषणौ) सुखानां वर्षयितारौ। अन्यत्पूर्ववत् ॥ ७ ॥
भावार्थः
यत्र यत्र स्वामिशिल्पिनावध्यापकाध्येतारौ राजप्रजापुरुषौ वा गच्छेतां खल्वागच्छेतां वा तत्र तत्र सभ्यतया स्थित्वा विद्याशान्तियुक्तं वचः संभाष्य सुशीलतया सत्यं वदतां सत्यं शृणुतां च ॥ ७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (वृषणौ) सुखरूपी वर्षा के करनेहारे (यजत्रा) अच्छी प्रकार मिलकर सत्कार करने के योग्य (इन्द्राग्नी) स्वामी सेवको ! तुम दोनों (यत्) जिस कारण (स्वे) अपने (दुरोणे) घर में वा (यत्) जिस कारण (ब्रह्मणि) ब्राह्मणों की सभा और (राजनि) राजजनों की सभा (वा) वा और सभा में (मदथः) आनन्दित होते हो (अतः) इस कारण से (परि, आ, यातम्) सब प्रकार से आओ (अथ, हि) इसके अनन्तर एक निश्चय के साथ (सुतस्य) उत्पन्न हुए (सोमस्य) संसारी पदार्थों के रस को (पिबतम्) पिओ ॥ ७ ॥
भावार्थ
जहाँ-जहाँ स्वामि और शिल्पि वा पढ़ाने और पढ़नेवाले वा राजा और प्रजाजन जायें वा आवें वहाँ-वहाँ सभ्यता से स्थित हों, विद्या और शान्तियुक्त वचन को कह और अच्छे शील का ग्रहण कर सत्य कहें और सुनें ॥ ७ ॥
विषय
निर्दोषता , ज्ञान व तेजस्विता
पदार्थ
१. (यत्) = जो (इन्द्राग्नी) = शक्ति व प्रकाश के तत्त्व (यजत्रा) = यष्टव्य हैं , संगतिकरण योग्य हैं , अर्थात् जीवन में जिन दोनों का मेल अत्यन्त अभीष्ट है , जो (इन्द्राग्नी स्वे दुरोणे) = अपने घर में (मदथः) = आनन्द का अनुभव करते हैं , अर्थात् जो इस शरीररूप गृह को [दुर् ओण्] सब प्रकार की मलिनताओं से रहित करते हैं , (यत् ब्रह्मणि) = जो आप ज्ञानप्राप्ति में आनन्द का अनुभव करते हो (वा) = अथवा (राजनि) = [राजृ दीप्तौ] शक्ति की , तेजस्विता की दीप्ति को प्राप्त करने में आनन्द का अनुभव करते हो , (अतः) = इसलिए (वृषणौ) = सब सुखों का वर्षन करनेवाले इन्द्राग्नी! आप (हि) = निश्चय से परि (आयातम्) = सर्वथा हमें प्राप्त होओ (अथ) = और (सुतस्य सोमस्य) =उत्पन्न हुए सोम का (पिबतम्) = पान करो ।
२. शरीर में “इन्द्र और अग्नि” तत्त्वों के प्रतिष्ठापन के तीन लाभ हैं - [क] शरीर के दोष दूर होते हैं [दुरोणे] , [ख] ज्ञान बढ़ता है [ब्रह्मणि] , [ग] शरीर की दीप्ति व तेजस्विता में वृद्धि होती है [राजनि] । इस प्रकार “निर्दोषता , ज्ञान व तेजस्विता” के होने पर जीवन में आनन्द की वृद्धि होती है । ये तीनों लाभ होते तभी हैं जब हम इन्द्र व अग्नि का मेल करके चलते हैं [यजत्रा] । इनका मेल सुखों का वर्षण करनेवाला है [वृषणा] । इस मेल के लिए सोम [वीर्य] का शरीर में रक्षण आवश्यक है ।
भावार्थ
भावार्थ - सोम के रक्षण से शरीर में “इन्द्र व अग्नि” तत्त्वों का प्रतिष्ठापन होकर “निर्दोषता , ज्ञान व तेजस्विता” की वृद्धि होती है ।
विषय
क्षत्र, ब्रह्म, और स्त्री पुरुषों के परस्पर कर्तव्य ।
भावार्थ
( यत् ) जिससे हे ( इन्द्राग्नी ) ऐश्वर्यवान् और विद्यावान् पुरुषो ! आप दोनों प्रकार के जन ( स्वे दुरोणे ) अपने घर में, ( मदथः ) स्वतः आनन्द प्रसन्न रहते हो (यत्) जिस कारण से आप दोनों ( ब्रह्मणि ) ब्राह्मणों के बीच में ( राजनि ) और राजा की सभा में राजा के द्वार पर भी ( यजत्रा ) आदर प्राप्त करने वाले हो ( अतः ) इस कारण से ही आप दोनों ( वृषणौ ) प्रजा पर सुखों की वर्षा करने हारे होकर ( आयातम् हि ) आवो और ( सुतस्य सोमस्य पिबतम् ) सम्पन्न सोम, राष्ट्रैश्वर्य तथा शासकपद का उपभोग करो। गृह में सम्पन्न विद्वानों और राजाओं के आदर योग्य पुरुषों को शासन कार्य में नियुक्त करना चाहिये । दरिद्र और निर्गुणों को नहीं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्राग्नी देवते ॥ छन्दः- १, ८, १२ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ३, ६, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ७, ९, १०, १३ त्रिष्टुप् । ४ भुरिक् पंक्तिः । ५ पंक्तिः । त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जेथे जेथे मालक व कारागीर, अध्यापक व अध्येता किंवा राजा व प्रजा जाईल तेथे तेथे सभ्यतेने राहावे. विद्या व शांतियुक्त वचन बोलून सुशिलतेने वागावे. सत्य बोलावे, सत्य ऐकावे. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra and Agni, adorable powers of yajna, as you celebrate your power and achievement in your own house and enjoy, or celebrate among the learned and the divines, or the rulers of the nation, the same way, O generous and abundant powers, holy and heroic, come and drink of the soma of your own creation with us.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How are they (Indra and Agni) is taught further in the seventh Mantra
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O respectable and showerers of happiness Indra and Agni (wealthy master and artisan, teacher and pupil, king and representative of the public) if you are delighted in your own dwelling, in the assembly of the Brahmanas (the knowers of God and Veda) and in the assembly of the Kings and officers of the State, then come hither from wherever you may be and drink of the effused juice of the various articles in the world.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(ब्रह्मणि) ब्राह्मणसभायाम् = In the assembly of the Brahmanas. (राजनि) राजसभायाम् = In the assembly of the Kings and officers of the State.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Wherever the wealthy master and learned artisan, teacher and the taught, a King and a representative of the public come and go, they should sit in a civilized manner, should utter words full of wisdom and bringing peace, should speak and hear truth with good manners behaving like cultured persons.
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