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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 121 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 121/ मन्त्र 10
    ऋषिः - औशिजो दैर्घतमसः कक्षीवान् देवता - विश्वे देवा इन्द्रश्च छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    पु॒रा यत्सूर॒स्तम॑सो॒ अपी॑ते॒स्तम॑द्रिवः फलि॒गं हे॒तिम॑स्य। शुष्ण॑स्य चि॒त्परि॑हितं॒ यदोजो॑ दि॒वस्परि॒ सुग्र॑थितं॒ तदाद॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पु॒रा । यत् । सूरः॑ । तम॑सः । अपि॑ऽइतेः । तम् । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । फ॒लि॒ऽगम् । हे॒तिम् । अ॒स्य॒ । शुष्ण॑स्य । चि॒त् । परि॑ऽहितम् । यत् । ओजः॑ । दि॒वः । परि॑ । सुऽग्र॑थितम् । तत् । आ । अ॒द॒रित्य॑दः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुरा यत्सूरस्तमसो अपीतेस्तमद्रिवः फलिगं हेतिमस्य। शुष्णस्य चित्परिहितं यदोजो दिवस्परि सुग्रथितं तदाद: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुरा। यत्। सूरः। तमसः। अपिऽइतेः। तम्। अद्रिऽवः। फलिऽगम्। हेतिम्। अस्य। शुष्णस्य। चित्। परिऽहितम्। यत्। ओजः। दिवः। परि। सुऽग्रथितम्। तत्। आ। अदरित्यदः ॥ १.१२१.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 121; मन्त्र » 10
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः किं कुर्युरित्याह ।

    अन्वयः

    हे अद्रिवस्त्वं सूरः फलिगं हत्वा तमसोऽपीतेर्दिवः प्रकाशत इव सेनया तमादः यद्यं पुरा निवर्त्तयस्तं सुग्रथितं स्थापय। यदस्य परिहितमोजोऽस्ति तन्निवार्य शुष्णय परि चिदपि हेतिं निपातय। यतोऽयं गोहन्ता न स्यात् ॥ १० ॥

    पदार्थः

    (पुरा) पूर्वम् (यत्) यम् (सूरः) सविता (तमसः) (अपीतेः) विनाशनात् (तम्) शत्रुबलम् (अद्रिवः) प्रशस्ता अद्रयो विद्यन्ते यस्य राज्ये तत्संबुद्धौ (फलिगम्) मेघम्। फलिग इति मेघना०। निघं० १। १०। (हेतिम्) वज्रम् हेतिरिति वज्रना०। निघं० २। २०। (अस्य) (शुष्णस्य) शोषकस्य शत्रोः (चित्) अपि (परिहितम्) सर्वतः सुखप्रदम् (यत्) (ओजः) बलम् (दिवः) प्रकाशात् (परि) (सुग्रथितम्) सुष्ठुनिबद्धम् (तत्) (आ) (अदः) विदृणीहि। विकरणस्यालुक् लङ्प्रयोगः ॥ १० ॥

    भावार्थः

    अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। हे राजपुरुषा यथा सूर्यो मेघं हत्वा भूमौ निपात्य सर्वान् प्राणिनः प्रीणयति तथैव गोहिंस्रान्निपात्य गवादीन् सततं सुखयत ॥ १० ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (अद्रिवः) जिनके राज्य में प्रशंसित पर्वत विद्यमान हैं, वैसे विख्यात हे राजन् ! आप जैसे (सूरः) सूर्य (फलिगम्) मेघ छिन्न-भिन्न कर (तमसः) अन्धकार के (अपीतेः) विनाश करनेहारे (दिवः) प्रकाश से प्रकाशित होता है, वैसे अपनी सेना से (तम्) उस शत्रुबल को (आ, अदः) विदारो अर्थात् उसका विनाश करो, (यत्) जिसको (पुरा) पहिले निवृत्त करते रहे हो, उसको (सुग्रथितम्) अच्छा बाँधकर ठहराओ, (यत्) जो (अस्य) इसका (परिहितम्) सब ओर से सुख देनेवाला (ओजः) बल है (तत्) उसको निवृत्त कर (शुष्णस्य) सुखानेवाले शत्रु के (परि) सब ओर से (चित्) भी (हेतिम्) वज्र को उसके हाथ से गिरा देओ, जिससे यह गौओं का मारनेवाला न हो ॥ १० ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। हे राजपुरुषो ! जैसे सूर्य मेघ को मार और उसको भूमि में गिराय सब प्राणियों को प्रसन्न करता है, वैसे ही गौओं के मारनेवालों को मार गौ आदि पशुओं को निरन्तर सुखी करो ॥ १० ॥

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    विषय

    अन्धकारमग्न होने से पूर्व ही

    पदार्थ

    १. हे (अद्रिवः) = वनवाले! (सूरः) ज्ञानी तु (तमसः) अन्धकार के (अपीतेः) = [अपि+इति - इ+ति] आक्रमण से (पुरा) = पहले ही (यत्) = जो (फलिगम्) = [ञिफला विशरणे] विशरण तक जानेवाला अर्थात् अन्धकार को पूर्णरूप से विशीर्ण करनेवाला (हेतिम्) = वन है, उसे (अस्य) = इस पर फेंक । कर्मशीलता के अभाव में वासनाओं का आक्रमण होता है । ये वासनाएँ ज्ञान को पूर्णरूप से आवृत्त करके जीवन को अन्धकारमय बना देती हैं । इस अन्धकार के आक्रमण से पूर्व ही वासना को विनष्ट करने का प्रयत्न करना है । इस वासना पर 'फलिग हेति' का प्रहार करना है । अन्धकार को पूर्ण विशीर्णता तक ले - जानेवाली यह हेति क्रियाशीलता ही है । २. (शुष्णस्य) = इस शोषक कामदेवरूप शत्रु का (चित्) = निश्चय से (परिहितम्) = सर्वतः वर्तमान (यत् ओजः) = जो बल है, जोकि (दिवः परि) = ज्ञानरूप सूर्य के ऊपर [सूर्यस्योपरि - सा०] (सुग्रथितम्) = सम्यक् सक्त है, (तत्) = उसको (आदः) उस फलिग हेति से सम्यक् विदीर्ण करते हो । काम अत्यन्त प्रबल है । यह ज्ञान को ढक लेता है - पूर्णरूप से आच्छादित कर लेता है । इसका विदारण आवश्यक है । विदारण का साधन क्रियाशीलतारूप वज्र ही है । यदि इस वन का प्रयोग न किया जाए तो जीवन धीरे - धीरे अन्धकारमय होकर नष्टप्राय ही हो जाए, अतः अन्धकार के पूर्ण आक्रमण से पूर्व ही उसे नष्ट करने का प्रयत्न करना है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - क्रियाशीलता ही काम के वेग को शिथिल करती है और जीवन को अन्धकारमग्न होने से बचा लेती है ।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति।

    भावार्थ

    ( यत् ) जिस प्रकार ( तमसः अपीतेः ) अन्धकार का नाश कर देने से ( सूरः ) सूर्य (फलिगान आदः ) मेघ को भी सर्व प्रकार से छिन्न-भिन्न करता है और ( शुष्णस्य ) मेघ का ( यत् ओजः दिवः परि ) जो ओज सूर्य पर ( सुप्रथितम् ) दृढ़ता से बँध जाता है ( तत् आदः ) उसको भी तू छिन्न-भिन्न करता है उसी प्रकार हे ( अद्रिवः ) पर्वतों से युक्त भूमि के स्वामिन् ! अथवा मेघ के समान शस्त्रास्त्रवर्षी वीर ! महारथी पुरुषों के नायक ! और पर्वत के समान अचल दुर्भेद्य सैन्यबल से युक्त एवं वज्र के धारक ! राजन् ! सेनापते ! तू ( पुरा ) पहले के समान ही ( सूरः ) विद्वान्, समस्त सैन्य का सञ्चालक होकर ( तमसः ) प्रजा को कष्टदायी, ( अपीतेः ) नाशकारी ( अस्य ) इस शत्रु दल के ( तम् ) उस ( फलिगम् हेतिम् ) फलेवाले शस्त्र को (आ अदः ) छिन्न-भिन्न कर और ( शुष्णस्य ) प्रजा के पोषणकारी शत्रु का ( यत् ) जो ( दिवः परि ) भूमि पर ( परिहितं ) फैला हुआ ( ओजः ) तेज, पराक्रम ( सुग्रथितम् ) अच्छी प्रकार दृढ़ता से स्थित हो ( तत् ) उसको भी ( आ अदः ) सब प्रकार से छिन्न-भिन्न कर । इति पञ्चविंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ओषिजः कक्षीवानृषिः॥ विश्वेदेवा इन्द्रश्च देवता॥ छन्दः– १, ७, १३ भुरिक् पंक्तिः॥ २, ८, १० त्रिष्टुप् ।। ३, ४, ६, १२, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात लुप्तोपमालंकार आहे. हे राजपुरुषांनो! जसा सूर्य मेघाचे हनन करतो व त्याला भूमीवर पाडून सर्व प्राण्यांना प्रसन्न करतो तसेच गाईंची हत्या करणाऱ्यांचे निवारण करून गाई इत्यादी पशूंना सदैव सुखी करा. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, brilliant sun, brave ruler of the world, lord of mountains and the clouds, as earlier, before the elimination of darkness, you struck the thunderbolt and broke the cloud of darkness, so now strike the same thunderbolt, destroy the power and darkness of the demon that covers the world unto the borders of heaven, and restore the light that is blissful and enduring across the heavens and the farthest quarters of space.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men do is told further in the tenth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O King ruling over a State which has hills, as the sun disperses the cloud and shines with his light, in the same manner, with thy army, thou must destroy the enemy, thou should chain well the foe whom thou hast restrained. Whatever is the strength of the enemy that gives joy to the wicked, must be removed by thee and thou should throw weapons over the enemy who exploits the public, so that he may not slaughter the cattle.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अपीते:) विनाशनात् = By destroying. (फलिंगम् ) मेघम् । फलिंग इति मेघनाम (निघ० १.१०) [शुष्णस्य] शोषकस्य शत्रोः = of the enemy who exploits the people.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O officers of the State, as the sun gladdens all beings by dispersing the cloud and making it fall down on the earth, in the same manner, you should always delight the cattle by putting down their slaughterers.

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