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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 121 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 121/ मन्त्र 12
    ऋषिः - औशिजो दैर्घतमसः कक्षीवान् देवता - विश्वे देवा इन्द्रश्च छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्वमि॑न्द्र॒ नर्यो॒ याँ अवो॒ नॄन्तिष्ठा॒ वात॑स्य सु॒युजो॒ वहि॑ष्ठान्। यं ते॑ का॒व्य उ॒शना॑ म॒न्दिनं॒ दाद्वृ॑त्र॒हणं॒ पार्यं॑ ततक्ष॒ वज्र॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । इ॒न्द्र॒ । नर्यः॑ । यान् । अवः॑ । नॄन् । तिष्ठ॑ । वात॑स्य । सु॒ऽयुतः॑ । वहि॑ष्ठान् । यम् । ते॒ । का॒व्यः । उ॒शना॑ । म॒न्दिन॑म् । दात् । वृ॒त्र॒ऽहन॑म् । पार्य॑म् । त॒त॒क्ष॒ । वज्र॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमिन्द्र नर्यो याँ अवो नॄन्तिष्ठा वातस्य सुयुजो वहिष्ठान्। यं ते काव्य उशना मन्दिनं दाद्वृत्रहणं पार्यं ततक्ष वज्रम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। इन्द्र। नर्यः। यान्। अवः। नॄन्। तिष्ठ। वातस्य। सुऽयुजः। वहिष्ठान्। यम्। ते। काव्यः। उशना। मन्दिनम्। दात्। वृत्रऽहनम्। पार्यम्। ततक्ष। वज्रम् ॥ १.१२१.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 121; मन्त्र » 12
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे इन्द्र काव्य उशना नर्यस्त्वं यान् वहिष्ठान् वातस्य सुयुजो नॄनवस्तैः सह धर्मे तिष्ठ यस्ते यं वृत्रहणं मन्दिनं पार्यं जनं दात् यः शत्रूणामुपरि वज्रं ततक्ष तेनापि सह धर्मेण वर्त्तस्व ॥ १२ ॥

    पदार्थः

    (त्वम्) (इन्द्र) प्रजापालक (नर्य्यः) नृषु साधुः सन् (यान्) (अवः) रक्षेः (नॄन्) धार्मिकान् जनान् (तिष्ठ) धर्मे वर्त्तस्व। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (वातस्य) प्राणस्य मध्ये योगाभ्यासेन (सुयुजः) सुष्ठुयुक्तान् योगिनः (वहिष्ठान्) अतिशयेन वोढॄन् विद्याधर्मप्रापकान् (यम्) (ते) तुभ्यम् (काव्यः) कवेर्मेधाविनः पुत्रः (उशना) धर्मकामुकः। अत्र डादेशः। (मन्दिनम्) स्तुत्यं जनम् (दात्) दद्यात् (वृत्रहणम्) शत्रुहन्तारं वीरम् (पार्य्यम्) पार्य्यते समाप्यते कर्म येन तम् (ततक्ष) प्रक्षिपेत् (वज्रम्) शस्त्रास्त्रसमूहम् ॥ १२ ॥

    भावार्थः

    यथा राजपुरुषाः परमेश्वरोपासकानध्यापकोपदेशकानन्योत्तमव्यवहारस्थान् प्रजासेनाजनान् रक्षेयुस्तथैवैतानेतेऽपि सततं रक्षेयुः ॥ १२ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) प्रजा पालनेहारे (काव्यः) धीर उत्तम बुद्धिमान् के पुत्र (उशना) धर्म की कामना करनेहारे (नर्य्यः) मनुष्यों में साधु श्रेष्ठ हुए जन ! (त्वम्) आप (यान्) जिन (वहिष्ठान्) अतीव विद्या धर्म की प्राप्ति करानेहारे (वातस्य) प्राण के बीच योगाभ्यास से (सुयुजः) अच्छे युक्त योगी (नॄन्) धार्मिक जनों की (अवः) रक्षा करते हो उनके साथ धर्म के बीच (तिष्ठ) स्थिर होओ, जो (ते) आपके लिये (यम्) जिस (वृत्रहणम्) शत्रुओं के मारनेवाले वीर (मन्दिनम्) प्रशंसा के योग्य (पार्य्यम्) जिससे पूर्ण काम बने उस मनुष्य को (दात्) देवे वा जो शत्रुओं पर (वज्रम्) अति तेज शस्त्र और अस्त्रों को (ततक्ष) फेंके, उस-उसके साथ भी धर्म से वर्त्तो ॥ १२ ॥

    भावार्थ

    जैसे राजपुरुष परमेश्वर की उपासना करने, पढ़ने और उपदेश करनेवाले तथा और उत्तम व्यवहारों में स्थिर प्रजा और सेनाजनों की रक्षा करें, वैसे वे भी उनकी निरन्तर रक्षा किया करें ॥ १२ ॥

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    विषय

    वह अद्भुत वज्र

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! (त्वं नर्यः) = तू नर - हितकर कर्मों में लगनेवाला बनता है । इस प्रकार (यान्) = जिन (नन्) = तुझे आगे ले - चलनेवाले (वातस्य सुयुजः) = वायु के उत्तम साथी, अर्थात् वायु के समान वेगवाले (वहिष्ठान्) = जीवन - यात्रा के लक्ष्य तक पहुँचानेवाले इन्द्रियाश्वों का (अवः) = तू रक्षण करता है, उनका (तिष्ठ) = तू अधिष्ठाता बन । उन इन्द्रियाश्वों को पूर्णरूप से वश में करकेतु उन्नति - पथ पर आगे बढ़ । २. (काव्यः) वह तत्व - द्रष्टा (उशना) = तेरे हित की कामनावाला प्रभु (ते) = तेरे लिए (यम्) = जिस (वज्रम्) = क्रियाशीलतारूप वज़ को (दात्) = देता है, उसे तू (ततक्ष) = खूब तीव्र बना, तेज कर, अर्थात् अत्यन्त क्रियाशील बन । यह वज्र (ते) = तेरे लिए (मन्दिनम्) = हर्ष का देनेवाला है । अकर्मण्यता में आनन्द कहाँ? (वृत्रहणम्) = यह बन तेरे वासनारूप शत्रु का नाश करनेवाला है । क्रियाशील को वासना नहीं सताती । यह (पार्यम्) = [पारकर्म समाप्तौ] कर्मों को सफलता तक ले - जानेवालों में उत्तम है । क्रियाशील ही सफल होता है, अकर्मण्यता का परिणाम असफलता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम इन्द्रियाश्वों के अधिष्ठाता बनें । क्रियाशीलतारूप वन को 'हर्षकर, वासना विनाशक व सफलता देनेवाला' जानें ।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! जिस प्रकार सूर्य ( नॄन् ) शरीर संचालक प्राणों की रक्षा करता और ( वहिष्ठान् ) शरीर को वहन या धारण करने वाले ( वातस्य सुमुजः ) वायु के साथ उत्तम रीति से संयुक्त हुए प्राणों को (अवः) पर वश करता है उसी प्रकार हे राजन् ! (नर्यः) समस्त नायकों और प्रजा वासी पुरुषों का हितकारी, उनमें सर्वश्रेष्ठ होकर (यान् नॄन्) जिन नायक पुरुषों को ( अवः ) सुरक्षित रखता है। तू उन ही ( वहिष्ठान ) राष्ट्र-कार्यों का अच्छी प्रकार वहन करने वाले ( वातस्य सुयुजः ) वायु या प्राण के उत्तम गुणों को धारण करने वाले, उनके उत्तम साथियों और वेगवान् अश्वों के समान राष्ट्र के राज्यरूप रथ के संचालक पुरुषों पर, अश्वों पर सारथी या महारथी के समान ( तिष्ठ ) विराज, उन पर शासन कर । और ( वन्दिनं ) सब के हर्षदायक ( वृत्रहणं ) शत्रुनाशक ( पार्यम् ) संग्राम में पालन करने वाले और उससे पार उतारने वाले ( वज्रम् ) शत्रु के वर्जन या धारण करने में समर्थ ( यं ) शस्त्रास्त्र या सैन्य बल को ( काव्यः ) मेघावी पुरुषों द्वारा शिक्षित पुत्र व शिष्य ( उशनाः ) सर्व वशीकार में समर्थ, वशी पुरुष ( ते ) तुझको ( दात् ) प्रदान करता उपदेश करता है। तू उसको ( ततक्ष ) सदा तीक्ष्ण कर, उसको सदा तैयार रख । आधि भौतिक पक्ष में—ये ‘काव्य उशना’ अर्थात् गर्जनकारी मेघ से सम्पन्न कान्तिमान् विद्युत् ही जिस मेघछेदक बल को ( दात् ) प्रदान करे उसको सूर्य ही अपने तेज से तीक्ष्ण करता है। अर्थात् विद्युत् की अग्नि भी सूर्य की ही रूपान्तरित अग्नि है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ओषिजः कक्षीवानृषिः॥ विश्वेदेवा इन्द्रश्च देवता॥ छन्दः– १, ७, १३ भुरिक् पंक्तिः॥ २, ८, १० त्रिष्टुप् ।। ३, ४, ६, १२, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे राजपुरुष परमेश्वराची उपासना करणाऱ्याचे, अध्ययन करणाऱ्याचे, उपासना करणाऱ्याचे व उत्तम व्यवहारात स्थिर प्रजेचे व सेनेचे रक्षण करतात. तसेच त्यांनीही त्यांचे निरंतर रक्षण करावे. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, first of men, guide and leader of the social order, manage, protect and abide by those men who, like children of the wind, are cooperative carriers of the burdens of the state, and protect and abide by that impassioned lover of Dharma, son of the wise and poetic creator, who creates, sharpens and gives to you the thunderbolt, that invincible weapon of defence and law, which helps you destroy the enemies of light and leads you to the delight of victory.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O King the protector of the people, thou who art the son of a very wise man and desirous of doing noble deeds, benefactor of men, protects the Yogis who lead us to the attainment of Vidya (wisdom) and Dharma (righteousness) and who practice Pranayama. Thou should remain with them in Dharma. Thou should also treat with Dharma (righteousness) the person whom a wise man has given to thee (for help), who is an admirable hero, killer of his enemies, accomplisher of his works and thrower of thunderbolt over his foes.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (नृ न ) धार्मिकान् जनान् = Good righteous persons. (वहिष्ठान्) अतिशयेन वोढृ न् विद्याधर्मप्रापकान् = Leading to the attainment of Vidya (Wisdom) and Dharma (righteousness).

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the officers of the State protect the worshippers of God, teachers, preachers and other good persons belonging to the general public and army, so they should also protect them continuously.

    Translator's Notes

    It is strange to find that while Rishi Dayananda has interpreted नॄन् as धार्मिकान् जनान् good or righteous persons, Sayanacharya has taken it as नेतृ न् अश्वान् = Leading horses, He has taken वातस्य सुयुज: वहिष्ठान also adjectives of the horses, instead of the adjectives of or good men. There is no word in the Mantra standing for horses, while as the word used in the Mantra is नृन which every one knows means men. It is for impartial scholars to judge whose interpretation is far-fetched Shri Sayanacharya's or Rishi Dayananda Sarasvati's.

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