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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 121 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 121/ मन्त्र 4
    ऋषिः - औशिजो दैर्घतमसः कक्षीवान् देवता - विश्वे देवा इन्द्रश्च छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒स्य मदे॑ स्व॒र्यं॑ दा ऋ॒तायापी॑वृतमु॒स्रिया॑णा॒मनी॑कम्। यद्ध॑ प्र॒सर्गे॑ त्रिक॒कुम्नि॒वर्त॒दप॒ द्रुहो॒ मानु॑षस्य॒ दुरो॑ वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्य । मदे॑ । स्व॒र्य॑म् । दाः॒ । ऋ॒ताय॑ । अपि॑ऽवृतम् । उ॒स्रिया॑णाम् । अनी॑कम् । यत् । ह॒ । प्र॒ऽसर्गे॑ । त्रि॒ऽक॒कुप् । नि॒ऽवर्त॑त् । अप॑ । द्रुहः॑ । मानु॑षस्य । दुरः॑ । व॒रिति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्य मदे स्वर्यं दा ऋतायापीवृतमुस्रियाणामनीकम्। यद्ध प्रसर्गे त्रिककुम्निवर्तदप द्रुहो मानुषस्य दुरो वः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्य। मदे। स्वर्यम्। दाः। ऋताय। अपिऽवृतम्। उस्रियाणाम्। अनीकम्। यत्। ह। प्रऽसर्गे। त्रिऽककुप्। निऽवर्तत्। अप। द्रुहः। मानुषस्य। दुरः। वरिति ॥ १.१२१.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 121; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    यद्यस्त्रिककुम् मनुष्योऽस्य मानुषस्योस्रियाणां च प्रसर्गे मदे ऋतायापीवृतं स्वर्य्यमनीकं दाः। एतान् द्रुहो निवर्त्तत् दुरोऽपवः स ह सम्राड् भवितुं योग्यो भवेत् ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (अस्य) प्रत्यक्षविषयस्य (मदे) आनन्दनिमित्ते सति (स्वर्य्यम्) स्वरेषु विद्यासुशिक्षितासु वाक्षु साधु (दाः) दद्यात्। अत्र पुरुषव्यत्ययः। (ऋताय) सत्यलक्षणान्वितायोदकाय वा (अपिवृतम्) सुखबलैर्युक्तम् (उस्रियाणाम्) गवाम् (अनीकम्) सैन्यम् (यत्) यः (ह) खलु (प्रसर्गे) प्रकृष्ट उत्पादने (त्रिककुप्) त्रिभिः सेनाध्यापकोपदेशकैर्युक्ताः ककुभो दिशो यस्य सः (निवर्त्तत्) निवर्त्तयेत्। व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (अप) (द्रुहः) गोहिंसकान् शत्रून् (मानुषस्य) मनुष्यजातस्य (दुरः) द्वाराणि (वः) वृणुयात् ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    त एव राजपुरुषा उत्तमा भवन्ति ये प्रजास्थानां मनुष्यगवादिप्राणिनां सुखाय हिंसकान् मनुष्यान् निर्वर्त्य धर्मे राजन्ते परोपकारिणश्च सन्ति। येऽधर्ममार्गान्निरुध्य धर्ममार्गान् प्रकाशयन्ति त एव राजकर्माण्यर्हन्ति ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (यत्) जो (त्रिककुप्) मनुष्य ऐसा है कि जिसकी पूर्व आदि दिशा सेना वा पढ़ाने और उपदेश करनेवालों से युक्त हैं (अस्य) इस प्रत्यक्ष (मानुषस्य) मनुष्य के (उस्रियाणाम्) गौओं के (प्रसर्गे) उत्तमता से उत्पन्न कराने रूप (मदे) आनन्द के निमित्त (ऋताय) सत्य व्यवहार वा जल के लिये (अपीवृतम्) सुख और बलों से युक्त (स्वर्य्यम्) विद्या और अच्छी शिक्षा रूप वचनों में श्रेष्ठ (अनीकम्) सेना को (दाः) देवे तथा इन (द्रुहः) गो आदि पशुओं के द्रोही अर्थात् मारनेहारे पशुहिंसक मनुष्यों को (निवर्त्तत्) रोके, हिंसा न होने दे, (दुरः) उक्त दुष्टों के द्वारे (अप, वः) बन्द कर देवे (ह) वही चक्रवर्त्ती राजा होने को योग्य है ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    वे ही राजपुरुष उत्तम होते हैं, जो प्रजास्थ मनुष्य और गौ आदि प्राणियों के सुख के लिये हिंसक दुष्ट पुरुषों की निवृत्ति कर धर्म में प्रकाशमान होते और जो परोपकारी होते हैं। जो अधर्म मार्गों को रोक धर्ममार्गों को प्रकाशित करते हैं, वे ही राजकामों के योग्य होते हैं ॥ ४ ॥

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    विषय

    त्रि - ककुप्

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार जब यह भक्त प्रभु की पुकार को सुनता है तब प्रभु उससे प्रसन्न होते हैं और (अस्य मदे) = इसके हर्ष में (अपीवृतम्) = आज से पहले वासनाओं से आनन्दित हुए हुए इसे प्रभु (उस्त्रियाणां अनीकम्) = प्रकाश की किरणों के समूह को (दाः) = प्राप्त कराते हैं । वासना का आवरण हटता है और यह अन्तः स्थित प्रभु के प्रकाश को प्राप्त करता है । यह प्रकाश उसके लिए (स्वर्यम्) = सुख देनेवाला होता है और (ऋताय) = उसे यज्ञों में प्रवृत्त करने के लिए होता है । इस ज्ञान को प्राप्त करके यह यज्ञशील बनता है और सुखी जीवनवाला होता है । २. (यत्) = जब (ह) = निश्चय से (प्रसर्गे) = यज्ञों के उत्पादन में - यज्ञ करने पर यह यज्ञशील पुरुष (त्रिककुप्) = तीन शिखाओंवाला (निवर्तत्) = बनता है । तीन दृष्टियों से यह शिखर पर पहुँचता है - स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से यह शारीरिक उन्नति के शिखर पर होता है, पवित्रता के दृष्टिकोण से मानस उन्नति के शिखर पर पहुँचता है और दीप्ति के दृष्टिकोण से बौद्धिक उन्नति के शिखर पर आरूढ़ होता है । ३. यह (द्रुहः) द्रोह की भावनाओं को (अप) = अपने से दूर [away] करता है, कभी किसी से द्रोह नहीं करता और (मानुषस्य) = मानव - हित के कार्यों के (दुरः) = द्वारों का (वः) = वरण करता है । द्रोह न करता हुआ यह सदा सबका भला करने में ही प्रवृत्त होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभुभक्त को ज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता है । यह शरीर, मन, बुद्धि की उन्नति के शिखर पर पहुँचने के लिए यत्न करता है और मानवहित के कर्मों में प्रवृत्त होता है ।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति।

    भावार्थ

    सूर्य जिस प्रकार ( अपीवृतम् ) अन्धकार से आवृत ( उस्त्रियाणाम् स्वर्यं अनीकम् ) तेजोमय, तापदायक रश्मियों के समूह को ( ऋताय दाः ) प्रकाश और वृष्टिजल के प्रयोजन से भूमिपर फैलाता है उसी प्रकार राष्ट्रपति ( अस्य ) इस प्रजाजन के हर्ष के लिये या इस प्रजाजन के ( मदे = दमे ) दमन और शासन के निमित्त और ( ऋताय ) सत्य न्याय के प्रकाश, ऐश्वर्य और अन्नादि समृद्धि की वृद्धि के लिये ( अपी वृतम् ) सुखों से युक्त, या अन्यों से अज्ञात ( उत्रियाणां ) शासन वाणियों के ( स्वर्यं ) उपदेश प्रद, ( अनीकम् ) समूह को और ( अपीवृतम् ) सुरक्षित, ( उस्त्रियाणां ) उत्तम वेग से जाने वाली सेनाओं के ( स्वर्यं अनीकम् ) शत्रुओं को तापदायी सैन्य बल को ( दाः ) प्रदान करता है, प्रकट करता है। और जिस प्रकार ( त्रिककुप् ) तीनों लोकों में श्रेष्ठ, सर्वोच्च सूर्य ( प्रसर्गे निवर्त्तत् ) अपने उत्तम प्रकाश को प्रकट करके अन्धकार को दूर करता है और जिस प्रकार ( त्रिककुप् ) माता पिता और आचार्य इन तीनों में सर्वश्रेष्ठ अर्थात् वेदत्रयी का विद्वान्, आचार्य ( प्रसर्गे ) अपने उत्कृष्ट सर्ग विद्योपदेश काल में संशय युक्त अज्ञान को दूर करता है उसी प्रकार ( यत् ह ) जो पुरुष निश्चय से ( प्रसर्गे ) अपने उत्तम राष्ट्र के बनाने के कार्य में या युद्धादि में ( त्रिककुप् ) शत्रु, मित्र, उदासीन तीनों में सर्वश्रेष्ठ होकर अथवा प्रज्ञा, उत्साह और प्रभुत्व तीनों में श्रेष्ठ होकर ( मानुषस्य द्रहः ) राष्ट्रवासी, मनुष्यों के द्रोहकारी दुष्ट पुरुषों को दूर करता है वही ( दुरः अवः ) राष्ट्र, नगर तथा सुख समृद्धि के नाना द्वारों को घरके द्वारों के समान खोल देता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ओषिजः कक्षीवानृषिः॥ विश्वेदेवा इन्द्रश्च देवता॥ छन्दः– १, ७, १३ भुरिक् पंक्तिः॥ २, ८, १० त्रिष्टुप् ।। ३, ४, ६, १२, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    तेच राजपुरुष उत्तम असतात, जे प्रजा व गाय इत्यादी प्राण्यांच्या सुखासाठी हिंसक दुष्ट पुरुषांचा नाश करून धर्माचे पालन करतात व जे परोपकारी असतात व अधर्म मार्ग रोखतात आणि धर्ममार्गात चालतात तेच राज्यकार्यासाठी योग्य असतात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Just as the sun, in the excitement of the morning, releases the flood-light of its brilliant rays held up at night for the yajna fire of the day, and, pervading three quarters of space (leaving off the nether hemisphere of the earth), returns and stands firm in the battle of light, and breaks through the gates of the dark enemy forts, so should the ruler, for the joy and prosperity of the social order, release his resounding force of light and power held in reserve for the occasion to extend the yajna of justice and rectitude and, raising the resources of eloquent and brilliant teachers, preachers and scientists, should break down the strongholds of opposition in the battle for the development of cows for the white revolution.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    That person alone deserves to be the ruler of a vast kingdom who has got the directions covered by the army, teachers and preachers, who for the welfare and great happiness of men and cows engages an army for the protection of truth and endowed with delight and strength, who drives away the killers of the cattle and opens the doors of happiness and joy for all.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (उस्त्रियाणाम् ) गवाम् = Of the cows. (उस्रा इति गोनाम ) निघ० २.११ ) [त्रिककुम्] त्रिभिः सेनाध्यापकोपदेशवैयुक्ताः कुकुभो दिश: यस्य सः [ककुभ इति दिङ्नाम निघ० १.६] = He who has the directions covered by the army, teachers and preachers.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those officers and workers of the State are good who drive away the violent persons, for the welfare of all subjects and cattle and are established in Dharma (righteousness) being engaged in doing good to others. They are fit to do the work of the State who keep men away from the path of Adharma (un-righteousness) and illuminate the paths of Dharma.

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