ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 121/ मन्त्र 14
ऋषिः - औशिजो दैर्घतमसः कक्षीवान्
देवता - विश्वे देवा इन्द्रश्च
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
त्वं नो॑ अ॒स्या इ॑न्द्र दु॒र्हणा॑याः पा॒हि व॑ज्रिवो दुरि॒ताद॒भीके॑। प्र नो॒ वाजा॑न्र॒थ्यो॒३॒॑अश्व॑बुध्यानि॒षे य॑न्धि॒ श्रव॑से सू॒नृता॑यै ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । नः॒ । अ॒स्याः । इ॒न्द्र॒ । दुः॒ऽहना॑याः । पा॒हि । व॒ज्रि॒ऽवः॒ । दुः॒ऽइ॒तात् । अ॒भीके॑ । प्र । नः॒ । वाजा॑न् । र॒थ्यः॑ । अश्व॑ऽबुध्यान् । इ॒षे । य॒न्धि॒ । श्रव॑से । सू॒नृता॑यै ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं नो अस्या इन्द्र दुर्हणायाः पाहि वज्रिवो दुरितादभीके। प्र नो वाजान्रथ्यो३अश्वबुध्यानिषे यन्धि श्रवसे सूनृतायै ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। नः। अस्याः। इन्द्र। दुःऽहनायाः। पाहि। वज्रिऽवः। दुःऽइतात्। अभीके। प्र। नः। वाजान्। रथ्यः। अश्वऽबुध्यान्। इषे। यन्धि। श्रवसे। सूनृतायै ॥ १.१२१.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 121; मन्त्र » 14
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे वज्रिव इन्द्र रथस्त्वमभीकेऽस्या दुर्हणाया दुरिताच्च नः पाहि। इषे श्रवसे सूनृतायै नोऽस्माकमश्वबुध्यान् वाजान् सुखं प्रयन्धि ॥ १४ ॥
पदार्थः
(त्वम्) (नः) अस्मान् (अस्याः) प्रत्यक्षायाः (इन्द्र) अधर्मविदारक (दुर्हणायाः) दुःखेन हन्तुं योग्यायाः शत्रुसेनायाः (पाहि) (वज्रिवः) प्रशस्ता वज्रयो विज्ञानयुक्ता नीतयो विद्यन्तेऽस्य तत्संबुद्धौ। वज धातोरौणादिक इः प्रत्ययो रुडागमश्च ततो मतुप् च। (दुरितात्) दुष्टाचारात् (अभीके) संग्रामे। अभीक इति संग्रामना०। निघं० २। १७। (प्र) (नः) अस्माकम् (वाजान्) विज्ञानवेगयुक्तान् संबन्धिनः (रथ्यः) रथस्य वोढा सन् (अश्वबुध्यान्) अश्वानन्तरिक्षे भवानग्न्यादीन् चालयितुं वर्द्धितुं बुध्यन्ते तान् (इषे) इच्छायै (यन्धि) यच्छ (श्रवसे) श्रवणायान्नाय वा। श्रव इत्यन्नना०। निघं० २। ७। (सूनृतायै) उत्तमायै प्रियसत्यवाचे ॥ १४ ॥
भावार्थः
सेनाधीशेन स्वसेना शत्रुहननाद्दुष्टाचाराच्च पृथग्रक्षणीया वीरेभ्यो बलमिच्छानुकूलं बलवर्द्धकं पेयं पुष्कलमन्नं च प्रदाय हर्षयित्वा शत्रून् विजित्य प्रजाः सततं पालनीयाः ॥ १४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(वज्रिवः) जिसकी प्रशंसित विशेष ज्ञानयुक्त नीति विद्यमान सो (इन्द्र) अधर्म का विनाश करनेहारे हे सेनाध्यक्ष ! (रथ्यः) रथ का ले जानेवाला होता हुआ (त्वम्) तूँ (अभीके) संग्राम में (अस्याः) इस प्रत्यक्ष (दुर्हणायाः) दुःख से मारने योग्य शत्रुओं की सेना और (दुरितात्) दुष्ट आचरण से (नः) हम लोगों की (पाहि) रक्षा कर तथा (इषे) इच्छा (श्रवसे) सुनना वा अन्न और (सूनृतायै) उत्तम सत्य तथा प्रिय वाणी के लिये (नः) हम लोगों के (अश्वबुध्यान्) अन्तरिक्ष में हुए अग्नि आदि पदार्थों को चलाने वा बढ़ाने को जो जानते उन्हें और (वाजान्) विशेष ज्ञान वा वेगयुक्त सम्बन्धियों को (प्र, यन्धि) भली-भाँति दे ॥ १४ ॥
भावार्थ
सेनाधीश को चाहिये कि अपनी सेना को शत्रु के मारने से और दुष्ट आचरण से अलग रक्खे तथा वीरों के लिये बल तथा उनकी इच्छा के अनुकूल बल के बढ़ानेवाले पीने योग्य पदार्थ तथा पुष्कल अन्न दे, उनको प्रसन्न और शत्रुओं को अच्छे प्रकार जीत कर प्रजा की निरन्तर रक्षा करे ॥ १४ ॥
विषय
दरिद्रता से दूर
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (त्वम्) = आप (नः) हमें (अस्याः) = इस (दुर्हणायाः) = दरिद्रता से (पाहि) = बचाइए । दरिद्रता के कारण हम अत्यन्त दुर्गति में न पहुँच जाएँ । २. हे (वज्रिवः) क्रियाशीलतारूप वज्रवाले प्रभो! आप (अभीके) = इस संसार - संग्राम में (दुरितात्) = दुरितों से - पापों से बचाइए । हम क्रियाशील बने रहकर पापों में फंसने से बच जाएँ । ३. आप (नः) = हमें (रथ्यः) शरीर - रथ को उत्तम बनानेवाले (अश्वबुध्यान्) = इन्द्रियाश्वों को चेतनायुक्त करनेवाले (वाजान्) = बलों को (प्रयन्धि) = खूब ही दीजिए ताकि (इषे) = हम आपकी प्रेरणा से प्रेरित होनेवाले हों, (श्रवसे) = ज्ञान प्राति में समर्थ हों तथा (सूनृतायै) = प्रिय, सत्यवाणी के ही सदा बोलनेवाले हों । शरीर व इन्द्रियों की शक्ति के अभाव में न तो हम प्रभु की प्रेरणा को सुनते हैं, न ज्ञानप्राप्ति में समर्थ होते हैं और न ही हमारी वाणी में सत्य व माधुर्य होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम दरिद्रता से दूर हों और शक्ति प्राप्त करें ।
विषय
परमेश्वर की स्तुति।
भावार्थ
हे ( इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! हे ( वज्रिवः ) वीर्यवन् ! उत्तम शत्रुवारक नीति और साम आदि उपायों के स्वामिन् ! राजन् ! प्रभो ! परमेश्वर ! ( त्वं ) तू ( नः ) हमें ( अस्याः ) इस ( अभीके ) संग्राम में भी ( दुर्हणायाः ) दुःख से या कठिनता से नाश करने योग्य, दुःसाध्य शत्रुसेना से, या दरिद्रय आदि विपत्ति से और ( दुरितात् ) दुष्टाचार और दुर्गति से ( पाहि ) बचा । और ( रथ्यः ) रथारोहियों में सबसे कुशल, महारथी होकर ( नः ) तू हमारे ( अश्वबुध्यान् ) सूर्य के आश्रय पर होने वाले अन्नों को मेघ के समान, अश्व सैन्य के आश्रय पर प्राप्त होने वाले ( वाजान् ) ऐश्वर्यों तथा संग्रामों को ( श्रवसे ) कीर्ति और ऐश्वर्य और ( सूनृताय ) उत्तम अन्नादि समृद्धि, वेदवाणी तथा धन प्राप्ति के लिये ( प्र यन्धि ) अच्छी प्रकार प्रदान कर [ २ ] मेघ के पक्ष में—जलों को देने से मेघ ‘इन्द्र’ है । विद्युत् युक्त होने से वह ‘वज्रवान्’ है । वह दुःख से नाश होने वाली दुष्काल, दारिद्र्य आदि जनपीड़ा से हमें बचावे । वह रस या जलमय होने से या वेगवान होने से ‘रथ्य’ है । सूर्य अश्व हैं उसके आश्रय पर होने वाले अन्न आदि पदार्थ ‘अश्वबुध्न्य वाज’ हैं । उनको अन्न और जल की वृद्धि के लिये प्रदान करें। [३] अथवा—हे ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! हमें ( अश्वबुध्यान् वाजान् यन्धि ) तू हमें वेग वाले पदार्थों के जानने वाले विद्वान् प्राप्त करा ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ओषिजः कक्षीवानृषिः॥ विश्वेदेवा इन्द्रश्च देवता॥ छन्दः– १, ७, १३ भुरिक् पंक्तिः॥ २, ८, १० त्रिष्टुप् ।। ३, ४, ६, १२, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
सेनाधीशाने आपल्या सेनेला शत्रूंकडून हनन व दुष्ट आचरण यांच्यापासून दूर ठेवावे. वीरांचे बल व त्यांच्या इच्छेनुसार बल वाढविणारे खाण्यापिण्याचे पदार्थ द्यावेत. त्यांना प्रसन्न ठेवून शत्रूंना चांगल्या प्रकारे जिंकून प्रजेचे सतत रक्षण करावे. ॥ १४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of light, justice and glory, wielder of the thunderbolt and mover of the chariot wheels of the nation, we pray to you, protect us from this difficult army of evil and this sin in our battle of life and, for the sake of will and resolution, food and energy, honour and reputation, truth and justice, bless us with dynamic experts of motive power and velocity across the earth and the quarters of space.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (Commander of the army) thou who hast reasonable and wise policies and art destroyer of un-righteousness being a good charioteer, protect us in the battle from a powerful army which it is so difficult to destroy and from sinful activities. Bestow happiness upon our kith and kin who are endowed with knowledge and speed (strength) and who are able to direct or utilize lightning and electricity etc. in the firmament for the attainment of noble desire for fame or good food and for pleasant and true speech.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(इन्द्र) अधर्मविदारक = Destroyer of un-righteousness'. (अभीके) संग्रामे अभीक इति संग्रामनाम (निघ० २.१७) = In the battle. (अश्वबुध्न्यान्) अश्वान् अन्तरिक्षे भवान् अग्न्यादीन् चालयितुं वद्धितुम् बुध्यन्ते तान् = Able to utilize lightning, electricity etc., in the firmament. (वाजान्) विज्ञानवेगयुक्तान् सम्बन्धिनः = The kith and kin endowed with knowledge and strength (denoted by speed). (वज-गतौ गतेस्त्रयोऽर्था: ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च ) (वञ्जिव: ) प्रशस्ता: वज्रयः - विज्ञानयुक्ता नीतयो विद्यन्तेऽस्य तत्सम्बुद्धौ । वजधातोरौणादिकः इः प्रत्यय: रुडागमश्च ततो मतुप्च = Whose policies are reasonable and wise.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of the commander of army to keep away his army from the destruction by the foes and from ignoble or sinful activities. He should provide the heroes of his army with nourishing and invigorating good food and drink in sufficient quantity to their hearts content, thus to gladden them, to conquer the enemies and to protect and preserve the subjects constantly.
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