ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 121/ मन्त्र 2
ऋषिः - औशिजो दैर्घतमसः कक्षीवान्
देवता - विश्वे देवा इन्द्रश्च
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स्तम्भी॑द्ध॒ द्यां स ध॒रुणं॑ प्रुषायदृ॒भुर्वाजा॑य॒ द्रवि॑णं॒ नरो॒ गोः। अनु॑ स्व॒जां म॑हि॒षश्च॑क्षत॒ व्रां मेना॒मश्व॑स्य॒ परि॑ मा॒तरं॒ गोः ॥
स्वर सहित पद पाठस्तम्भी॑त् । ह॒ । द्याम् । सः । ध॒रुण॑म् । प्रु॒षा॒य॒त् । ऋ॒भुः । वाजा॑य । द्रवि॑णन् । नरः॑ । गोः । अनु॑ । स्व॒ऽजाम् । म॒हि॒षः । च॒क्ष॒त॒ । व्राम् । मेना॑म् । अश्व॑स्य । परि॑ । मा॒तर॑म् । गोः ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्तम्भीद्ध द्यां स धरुणं प्रुषायदृभुर्वाजाय द्रविणं नरो गोः। अनु स्वजां महिषश्चक्षत व्रां मेनामश्वस्य परि मातरं गोः ॥
स्वर रहित पद पाठस्तम्भीत्। ह। द्याम्। सः। धरुणम्। प्रुषायत्। ऋभुः। वाजाय। द्रविणन्। नरः। गोः। अनु। स्वऽजाम्। महिषः। चक्षत। व्राम्। मेनाम्। अश्वस्य। परि। मातरम्। गोः ॥ १.१२१.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 121; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
यथा महिषः सूर्यो गोर्धर्त्ताऽस्ति तथा ऋभुर्नरो वाजायाश्वस्य स्वजां व्रां मातरं मेनां परि चक्षत यथा वा स सूर्य्यो द्यां स्तम्भीत्तथा सह गोर्मध्ये द्रविणं वर्धयित्वा क्षेत्रं धरुणमिवानु प्रुषायत् ॥ २ ॥
पदार्थः
(स्तम्भीत्) धरेत्। अडभावः। (ह) खलु (द्याम्) प्रकाशम् (सः) मनुष्यः (धरुणम्) उदकम्। धरुणमित्युदकनाम०। निघं० १। १२। (प्रुषायत्) प्रुष्णीयात् सिञ्चेत्। अत्र शायच्। (ऋभुः) सकलविद्याजातप्रज्ञो मेधावी (वाजाय) विज्ञानायान्नाय वा (द्रविणम्) धनम् (नरः) धर्मविद्यानेता (गोः) पृथिव्याः (अनु) (स्वजाम्) स्वात्मजनिताम् (महिषः) महान्। महिष इति महन्ना०। निघं० ३। ३। (चक्षत) चक्षीत। अत्र शपोऽलुक्। (व्राम्) वरीतुमर्हाम्। वृञ् धातोर्घञर्थे कः। (मेनाम्) विद्यासुशिक्षाभ्यां लब्धां वाचम् (अश्वस्य) व्याप्तुमर्हस्य राज्यस्य (परि) सर्वतः (मातरम्) मातृवत्पालिकाम् (गोः) भूमेः ॥ २ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। य आप्तविद्वत्सङ्गेन विद्यां विनयन्यायादिकं च धरेत्स सुखेन वर्धेत महान् पूज्यश्च स्यात् ॥ २ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जैसे (महिषः) बड़ा सूर्य्य (गौः) भूमि का धारण करनेवाला है, वैसे (ऋभुः) सकल विद्याओं से युक्त आप्तबुद्धि मेधावी (नरः) धर्म विद्या की प्राप्ति करानेवाला सज्जन (वाजाय) विज्ञान वा अन्न के लिये (अश्वस्य) व्याप्त होने योग्य राज्य की (स्वजाम्) आपसे उत्पन्न की गई (व्राम्) स्वीकार करने के योग्य (मातरम्) माता के समान पालनेवाली (मेनाम्) विद्या और अच्छी शिक्षा से पाई हुई वाणी को (परि, चक्षत) सब ओर से कहे वा जैसे सूर्य्य (द्याम्) प्रकाश को (स्तम्भीत्) धारण करे वैसे (स, ह) वही (गोः) पृथिवी पर (द्रविणम्) धन को बढ़ा खेत को (धरुणम्) जल के समान (अनु, प्रुषायत्) सींचा करें ॥ २ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो आप्त अर्थात् उत्तम शास्त्री विद्वान् के सङ्ग से विद्या, विनय और न्याय आदि का धारण करे वह सुख से बढ़े और बड़ा सत्कार करने योग्य हो ॥ २ ॥
विषय
ज्ञान की वाणियों को सुननेवाला कैसा बनता है ?
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार ज्ञानियों की वाणियों को सुननेवाला पुरुष (ह) = निश्चय से (द्याम्) = मस्तिष्क को (स्तम्भीत्) = थामता है, ज्ञान का धारण करता है अथवा स्थितप्रज्ञ बनता है । २. (सः) वह (धरुणम्) = धारक तत्त्व को - रेतः रूप से शरीर में रहनेवाले जल को (प्रुषायत्) = अपने में सिक्त करता है, रेतः कणों को शरीर में ही सुरक्षित रखता है । ३. (ऋभुः) = [उरु भाति, ऋतेन भातीति वा] खुब देदीप्यमान जीवनवाला होता है अथवा ऋत से, व्यवस्थित जीवन से दीस होता है । ४. (वाजाय) = शक्ति - प्राप्ति के लिए (नरः) = यह उन्नतिशील पुरुष (गोः द्रविणम्) = ज्ञानेन्द्रियों के धन को (प्रुषायत्) = अपने में सिक्त करता है । यह ज्ञान ही उसे विषयों से ऊपर उठाकर शक्तिसम्पन्न बनाता है । ५. यह (महिषः) प्रभु की पूजा करनेवाला व्यक्ति (स्व-जाम्) = अपने अन्दर प्रादुर्भूत होनेवाली - हृदयस्थ प्रभु के द्वारा दी जानेवाली (व्राम्) = वरणीय अथवा दोषों का निवारण करनेवाली (मेनाम्) = आदरणीय वेदवाणी को (अनुचक्षत) = प्रतिदिन देखता है, प्रतिदिन वेद का स्वाध्याय करनेवाला बनता है, जो वेदवाणी (अश्वस्य) कर्मेन्द्रियों की तथा (गोः) = ज्ञानेन्द्रियों की (परि मातरम्) = सब ओर से निर्माण करनेवाली है । इस वेदज्ञान से उसकी ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियाँ दोनों ही उत्तम बनती हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - हम स्थितप्रज्ञ बनें, शक्ति को शरीर में ही सिक्त करनेवाले हों । हम ज्ञान के द्वारा पवित्र बनकर शक्तिशाली बनें । वेदवाणी का अध्ययन करें जो हमारी ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियों को उत्तम बनाती है ।
विषय
परमेश्वर की स्तुति।
भावार्थ
जिस प्रकार (ऋभुः) बहुत अधिक तेजस्वी सूर्य (द्यां स्तम्भीत्) आकाशस्थ पिण्डों को आकर्षण बल से थामता है । और ( गोः ) पृथिवी के ऊपर ( वाजाय ) अन्न की उत्पत्ति के लिये ( द्रविणं ) ऐश्वर्य रूप से ( धरुणम् ) सब प्राणियों के जीवन धारक जल को ( प्रुषायत ) मेघ द्वारा बरसाता है उसी प्रकार ( ऋभुः नरः ) तेजस्वी, सत्य ज्ञान और ऐश्वर्य से चमकने वाला पुरुष ( द्यां स्तम्भीत् ) ज्ञानवान् तेजस्वी पुरुषों की राज सभा को वश करे । ( वाजाय ) ऐश्वर्य की वृद्धि और संग्रामों के विजय के लिये ( द्रविणम् प्रुषायद् ) धन को मेघ के समान भृत्यों पर बरसा दे अथवा ( द्रविणं प्रुषायत् ) द्रुतगति से जाने वाले अपने सैन्य को या शस्त्रास्त्र को शत्रु पर बरसा दे । ( महिषः ) महान् शक्ति वाला सूर्य जिस प्रकार ( स्वजाम् ) अपने ही से उत्पन्न या प्रकट होने वाली ( व्राम् ) वरण करने योग्य कन्या के समान अपने प्रकाशों से जगत् को ढक देने वाली उषा को ( अनु चक्षत ) प्रकाशित करता है और उसके वाद स्वयं भी प्रकट होता है इसी प्रकार ( महिषः ) पृथ्वी के विशाल राज्य का भोक्ता नृपति भी ( स्वजां ) अपने सामर्थ्य या प्रभुत्व से प्रकट होने वाली, ( व्रां ) अपने प्रभु को स्वयं चुनने वाली प्रजा को ( अनुचक्षत ) अपने अनुकूल देखे, उस पर अनुग्रह करे। और जिस प्रकार ( अश्वस्य मेनाम् ) सूर्य के व्यापक प्रकाश के नाश करने वाली ( गोः ) भूमि की ( मातरं ) माता के समान पालन करने वाली और अन्धकार मय गोद में लेने वाली रात्रि को ( परि चक्षत ) अपने पीछे छोड़ जाता है उसी प्रकार राजा भी ( अश्वस्य ) समृद्ध राष्ट्र और राष्ट्रपति के ( मेनाम् ) मुख्य वाणी या शासन को या शत्रु नाशक सेना या मान्य करने योग्य व्यवस्था को ( गोः ) समस्त पृथ्वी के ( परि ) ऊपर ( मातरम् ) माता के समान राष्ट्र का पालन और रक्षा करने वाला ( परिचक्षत ) नियत करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ओषिजः कक्षीवानृषिः॥ विश्वेदेवा इन्द्रश्च देवता॥ छन्दः– १, ७, १३ भुरिक् पंक्तिः॥ २, ८, १० त्रिष्टुप् ।। ३, ४, ६, १२, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो आप्त अर्थात उत्तम शास्त्री विद्वानांकडून विद्या, विनय व न्याय इत्यादी धारण करतो. तो सुखाने वाढतो व पूजनीय ठरतो. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Just as Indra, the sun, self-refulgent lord of light and sustainer of the earth, wields the heaven and showers the wealth and waters of life for the creation of food and energy, so should the ruler, luminant with the light of knowledge and justice and sustainer of the world system of the earth and environment, uphold Dharma, justice and rectitude and create the wealth and waters of stability and progress with nourishment and energy for the maintenance of the social order. And just as the mighty sun lights and watches its own creation, the dawn, beauteous glory of the solar system and nurse of mother earth, so should the ruler light up and watch the word of knowledge and the light of justice created by the social order itself which, in turn, would be the beauty of the system and sustenance of the order.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
As the great sun is the upholder of the earth, in the same manner, a genius and highly learned person who is leader of Dharma and knowledge gives utterance to the speech that is like the daughter of the vast kingdom, most acceptable, mother-like protector and acquired by wisdom and good education, for the sake of knowledge and good food. As the sun upholds the heaven, in the same manner, he should multiply wealth on earth and should benefit all (literally sprinkle all) as the water wets the field.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(महिषः) महान् महिष इति महन्नाम (निधि० ३.३ ) = Great or Grand. = (मेनाम् ) विद्यासुशिक्षाभ्यां लब्धां वाचम् मेनेतिवाङ् नाम (निधि० १.११) = The speech acquired by wisdom and good education. (अश्वस्य) व्याप्तुमर्हस्य राज्यस्य = Of the vast kingdom. (धरुणम्) उदकम् धरुणमिति उदकनाम (निधo १.१२ ) = Water.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The person who cultivates humility and justice along with knowledge, grows with happiness and becomes great and venerable.
Translator's Notes
How absurd and ridiculous it is on the part of Prof. Wilson to translate the last part of this mantra as "The mighty Indra manifests himself after his own daughter (the dawn), he made the female of the horse un-naturally the mother of the cow. " (Wilson's Translation of the Rigveda Vol. I. P. 200). But we cannot blame poor Wilson as he took the absurd idea from Sayanacharya who has rendered into Sanskrit the last stanza of the Mantra as follows:- अपि चेदमपरमाश्चर्यं यदयमश्वस्य मेनां स्त्रीनामैतत् । स्त्रियं वडवां गोर्मातरं जननीं परिवैपरीत्यं विपरीतमकरोत् । कदाचिदिन्द्रो लीलयाऽश्वायां गामुत्पादयामास । तदत्र प्रतिपाद्यते || The meaning is as given above by Prof. Wilson that Indra once generated a cow out of mare. We do not know on what authority Sayanacharya wrote मेनेति स्त्री नाम while in the Nighantu 1.11 it is clearly stated मेनेति वाङ्नाम (निघ० १.११) Rishi Dayananda Sarasvati was therefore justified in totally rejecting this absurd legend and to translate मेना (Mena) as speech on the clear authority of the Vedic Lexicon Nighantu. It is gratifying to note that realizing the absurdity of Sayanacharya's and prof. Wilson's interpretation, Shri Kapali Shastri has given the following spiritual interpretation of the last Stanza. प्रश्वस्य प्राणबल लक्षणस्य मेनां स्त्रियं प्रसवक्षमां गो: चिद्रश्मिसमूहस्य मातरं-प्रसवित्री परि परिकल्पितवान् । अन्नमय समृद्धेः प्राणः, प्राणमय समृद्धेर्मनः, मनोमयसमृद्धेविज्ञानं विज्ञानमयसमृद्धेरानन्द इति उत्तरोतरांशप्रादुर्भावोऽवधेयः । एवं गवां प्रसवित्री अश्वस्यमेना इत्यत्र प्राणबल मूलक क्रिया शक्ति समृद्धेः ज्ञान शक्ति लक्षणस्य चिद्रश्मि समूहस्याविष्कार इति बोध्यम् || This spiritual interpretation is far better than Sayanacharya's or Prof. Wilson's. Even Griffith quoting Ludwig has stated that the mate of the horse (Surya) is the earth, the motherly cow."
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