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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 121 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 121/ मन्त्र 15
    ऋषिः - औशिजो दैर्घतमसः कक्षीवान् देवता - विश्वे देवा इन्द्रश्च छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    मा सा ते॑ अ॒स्मत्सु॑म॒तिर्वि द॑स॒द्वाज॑प्रमह॒: समिषो॑ वरन्त। आ नो॑ भज मघव॒न्गोष्व॒र्यो मंहि॑ष्ठास्ते सध॒माद॑: स्याम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । सा । ते॒ । अ॒स्मत् । सु॒ऽम॒तिः । वि । द॒स॒त् । वाज॑ऽप्रमहः । सम् । इषः॑ । व॒र॒न्त॒ । आ । नः॒ । भ॒ज॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । गोषु॑ । अ॒र्यः । मंहि॑ष्ठाः । ते॒ । स॒ध॒ऽमादः॑ । स्या॒म॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा सा ते अस्मत्सुमतिर्वि दसद्वाजप्रमह: समिषो वरन्त। आ नो भज मघवन्गोष्वर्यो मंहिष्ठास्ते सधमाद: स्याम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा। सा। ते। अस्मत्। सुऽमतिः। वि। दसत्। वाजऽप्रमहः। सम्। इषः। वरन्त। आ। नः। भज। मघऽवन्। गोषु। अर्यः। मंहिष्ठाः। ते। सधऽमादः। स्याम ॥ १.१२१.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 121; मन्त्र » 15
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेश्वरविषयमाह ।

    अन्वयः

    हे वाजप्रमहो मघवञ्जगदीश्वर ते तव कृपया या सुमतिस्साऽस्मन्मा वि दसत्कदाचिन्न विनश्येत् सर्वे जना इषः संवरन्त। अर्यस्त्वं नोऽस्मान् गोष्वाभज यतो मंहिष्ठाः सन्तो वयं ते तव सधमादः स्याम ॥ १५ ॥

    पदार्थः

    (मा) निषेधे (सा) प्रतिपादितपूर्वा (ते) तव (अस्मत्) अस्माकं सकाशात् (सुमतिः) शोभना बुद्धिः (वि) (दसत्) क्षयेत् (वाजप्रमहः) वाजैर्विज्ञानादिभिर्विद्वद्भिर्वा प्रकृष्टतया मह्यते पूज्यते यस्तत्संबुद्धौ (सम्) (इषः) इच्छा अन्नादीनि वा (वरन्त) वृणवन्तु। विकरणव्यत्ययेन शप्। (आ) (नः) अस्मान् (भज) अभिलष (मघवन्) प्रशस्तपूज्यधनयुक्त (गोषु) पृथिवीवाणीधेनुधर्मप्रकाशेषु (अर्यः) स्वामीश्वरः (मंहिष्ठा) अतिशयेन सुखविद्यादिभिर्वर्द्धमानाः (ते) तव (सधमादः) महानन्दिताः (स्याम) भवेम ॥ १५ ॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः सुप्रज्ञादिप्राप्तये परमेश्वरः स्वामी मन्तव्यः प्रार्थनीयश्च। यत ईश्वरस्य यादृशा गुणकर्मस्वभावाः सन्ति तादृशान् स्वकीयान् संपाद्य परमात्मना सहानन्दे सततं तिष्ठेयुः ॥ १५ ॥अत्र स्त्रीपुरुषराजप्रजादिधर्मवर्णनादेतदुक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥ हे जगदीश्वर यथा भवत्कृपाकटाक्षसहायप्राप्तेन मयर्ग्वेदस्य प्रथमाष्टकस्य भाष्यं सुखेन संपादितं तथैवाग्रेऽपि कर्त्तुं शक्येत ॥इति प्रथमाष्टकेऽष्टमेऽध्याये षड्विंशो वर्गः प्रथमोऽष्टकोऽष्टमोऽध्याय एकविंशत्युत्तरं शततमं सूक्तं च समाप्तम् ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब ईश्वर के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (वाजप्रमहः) विशेष ज्ञान वा विद्वानों ने अच्छे प्रकार सत्कार को प्राप्त किये (मघवन्) और प्रशंसित सत्कार करने योग्य धन से युक्त जगदीश्वर ! (ते) आपकी कृपा से जो (सुमतिः) उत्तम बुद्धि है (सा) सो (अस्मत्) हमारे निकट से (मा) मत (वि, दसत्) विनाश को प्राप्त होवे सब मनुष्य (इषः) इच्छा और अन्न आदि पदार्थों को (सं, वरन्त) अच्छे प्रकार स्वीकार करें (अर्यः) स्वामी ईश्वर आप (नः) हम लोगों को (गोषु) पृथिवी, वाणी, धेनु और धर्म के प्रकाशों में (आ, भज) चाहो, जिससे (मंहिष्ठाः) अत्यन्त सुख और विद्या आदि पदार्थों से वृद्धि को प्राप्त हुए हम लोग (ते) आपके (सधमादः) अति आनन्दसहित (स्याम) अर्थात् आपके विचार में मग्न हों ॥ १५ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि उत्तम बुद्धि आदि की प्राप्ति के लिये परमेश्वर को स्वामी मानें और उसकी प्रार्थना करें। जिससे ईश्वर के जैसे गुण, कर्म और स्वभाव हैं, वैसे अपने सिद्ध करके परमात्मा के साथ आनन्द में निरन्तर स्थित हों ॥ १५ ॥इस सूक्त में स्त्री-पुरुष और राज-प्रजा आदि के धर्म का वर्णन होने से पूर्व सूक्तार्थ के साथ इस अर्थ की सङ्गति जाननी चाहिये ॥हे जगदीश्वर ! जैसे आपकी कृपाकटाक्ष का सहाय जिसको प्राप्त हुआ, उस मैंने ऋग्वेद के प्रथम अष्टक का भाष्य सुख से बनाया, वैसे आगे भी वह ऋग्वेदभाष्य मुझसे बन सके ॥यह प्रथम अष्टक के आठवें अध्याय में छब्बीसवाँ वर्ग, प्रथम अष्टक, आठवाँ अध्याय और एकसौ इक्कीसवाँ सूक्त समाप्त हुआ ॥ १५ ॥।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां श्रीपरमविदुषां विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण परमहंसपरिव्राजकाचार्येण श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचिते संस्कृतार्यभाषाभ्यां समन्विते सुप्रमाणयुक्ते ऋग्वेदभाष्ये प्रथमाष्टकेऽष्टमोऽध्यायोऽलमगात् ॥

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    विषय

    धनासक्ति से ऊपर

    पदार्थ

    १. हे (वाजप्रमहः) = शक्तियों के कारण महनीय प्रभो! (ते) आपकी (सा) = वह (सुमतिः) कल्याणी मति (अस्मत्) = हमसे (मा विदसत्) = नष्ट न हो जाए । आपकी कल्याणी मति हमें सदा प्राप्त रहे । यह मति ही तो हमारे जीवनों को शुभकर्मों से युक्त रखेगी । २. (इषः) आपकी प्रेरणाएँ (संवरन्त) = हमारा संवरण करें, अर्थात् हम सदा आपकी प्रेरणाओं को प्राप्त करनेवाले हों । इन प्रेरणाओं के द्वारा हे (मघवन) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो! आप (नः) = हमें (गोषु) = ज्ञान की वाणियों में (आभज) = सब प्रकार से भागीदार बनाइए । (अर्यः) = आप ही तो इन गौओं के स्वामी हो । सब ज्ञानवाणियों के पति आप ही हो । ३. (मंहिष्ठाः) = [दातृतमाः] खूब ही देनेवाले होकर हम (ते) = आपके सधमादः - साथ आनन्द को अनुभव करनेवाले (स्याम) = हों । धन से ऊपर उठकर ही एक व्यक्ति प्रभु प्राप्ति के आनन्द का भागी बनता है । धनासक्त इस आनन्द का अनुभव नहीं कर पाता ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हमें प्रभु की कल्याणी मति प्राप्त हो । प्रभु प्रेरणाएँ हमारा वरण करें । हम ज्ञानवाणियों में भागी बनें । धनासक्ति से ऊपर उठकर प्रभु - प्राति के आनन्द का अनुभव करें ।

    विशेष / सूचना

    विशेष - सूक्त का प्रारम्भ इन शब्दों से हुआ है कि ज्ञान की वाणियों को सुननेवाले स्वार्थ से ऊपर उठते हैं [१] । समाप्ति पर कहते हैं कि ये मंहिष्ठ बनकर, धनासक्ति से ऊपर उठकर प्रभु - प्राप्ति का आनन्द अनुभव करते हैं [१५] । उस प्रभु की प्राप्ति के लिए हम सात्त्विक अन्न व यज्ञ का भरण करें ।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति।

    भावार्थ

    ( सा ते ) वह तेरी कृपा से प्राप्त हुई ( सुभतिः ) शुभ, उत्तम पूजनीय, ज्ञानमय मति ( अस्मत् ) हमसे ( मा ) कभी न ( विदसत् ) विनष्ट हो । हे ( वाजप्रमहः ) अन्नों और ऐश्वर्यों को उत्तम कोटि को देने वाले तथा विज्ञानवान् पुरुषों द्वारा उत्तम रीति से पूजने योग्य ( मघवन् ) ऐश्वर्यवन् राजन् ! और परमेश्वर ! ( इषः ) हमारी समस्त कामनाएं और इष्ट प्रजाएं भी तुझे ( सं वरन्त ) एकत्र होकर वरण करें । हे ( मघवन् ) ऐश्वर्यवन् ! तू ( अर्यः ) सबका स्वामी है । तू ( नः ) हमें ( गोषु ) भूमियों, उत्तम वाणियों तथा इन्द्रियगणों के आश्रय पर ( आ भज ) उत्तम उत्तम सुख प्रदान कर । ( ते ) तेरी कृपा से हम सब ( मंहिष्ठाः ) अति दानशील और वृद्धिशील होकर ( सधमादः ) एक साथ मिल कर आनन्द सुख से रहने और अन्नादि से तृप्त होने वाले (स्याम) होवें । इति षड्विंशो वर्गः ॥ इत्यष्टमोऽध्यायः ॥ इति प्रथमोऽष्टकः ॥

    टिप्पणी

    इति प्रतिष्ठितविद्यालंकार-मीमांसातीर्थविरुदोपशोभित श्रीमत्पण्डित-जयदेवशर्म-विरचिते ऋग्वेदस्यालोकभाष्ये प्रथमोऽष्टकः समाप्तः ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ओषिजः कक्षीवानृषिः॥ विश्वेदेवा इन्द्रश्च देवता॥ छन्दः– १, ७, १३ भुरिक् पंक्तिः॥ २, ८, १० त्रिष्टुप् ।। ३, ४, ६, १२, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी उत्तम बुद्धीच्या प्राप्तीसाठी परमेश्वराला स्वामी मानून त्याची प्रार्थना करावी. ईश्वराचे जसे गुण, कर्म, स्वभाव आहेत तसे आपले सिद्ध करून परमेश्वराजवळ सदैव आनंदात स्थित असावे. ॥ १५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Lord of energy and glory, admired by leading men among the great, lord of wealth and life’s lustre, may this wisdom and understanding of ours, by divine grace, never wear away and fade out from us. May all people have the best choice of will, food and energy for life. Lord of noble humanity, bless us with advancement with wealth of cows, land and the Word of knowledge. Lord of grandeur, may we ever enjoy the ecstasy of your love.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    In the last and concluding Mantra of the hymn, the prayer is addressed to God as Indra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Lord of the world, ever to be worshipped by the wise and thorough wisdom, by Thy Grace, may not good intellect or wisdom be ever withdrawn from us. May it ever remain with us. May all people have good food and the fulfilment of their noble desires. Make us possessors of the land, good speech, cattle and light of Dharma O Lord, so that ever growing with happiness, wisdom, knowledge and other virtues, may we ever be full of great bliss with Thee.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (वाजप्रमहः) वाजैः विज्ञानादिभि: विद्भिर्वा प्रकृष्टतया माते पूज्यते यस्तत्सम्बुद्धौ । = Who is worshiped well with wisdom and by the wise. (गोषु) पृथिवीवाणी धेनुधर्मप्रकाशेषु = In the land, good speech, cattle and the light of Dharma. (सधमाद:) महानन्दिता: = Full of great bliss.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should always regard God as the Lord of the world and should pray to Him for the attainment of good intellect or wisdom etc. so that imitating God's pure attributes and acts, they may always remain in bliss with Him.

    Translator's Notes

    गौरिति पृथिवी "नाम" (निघ० १.१) गौरिति वाङ्नाम ( निघ० १.११ ) गौरिति रश्मिनाम निरुक्ते २.१.८ अत्र धर्मरश्मि ग्रहणम् This hymn is connected with the previous hymn, as there is mention of the duties of the husband and wife, king and his subjects etc. as in that hymn. Here ends the commentary on first Ashlaka of the first Mandala of the Rigveda Samhita

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