ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 121/ मन्त्र 11
ऋषिः - औशिजो दैर्घतमसः कक्षीवान्
देवता - विश्वे देवा इन्द्रश्च
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अनु॑ त्वा म॒ही पाज॑सी अच॒क्रे द्यावा॒क्षामा॑ मदतामिन्द्र॒ कर्म॑न्। त्वं वृ॒त्रमा॒शया॑नं सि॒रासु॑ म॒हो वज्रे॑ण सिष्वपो व॒राहु॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठअनु॑ । त्वा॒ । म॒ही इति॑ । पाज॑सी॒ इति॑ । अ॒च॒क्रे इति॑ । द्यावा॒क्षामा॑ । म॒द॒ता॒म् । इ॒न्द्र॒ । कर्म॑न् । त्वम् । वृ॒त्रम् । आ॒ऽशया॑नम् । सि॒रासु॑ । म॒हः । वज्रे॑ण । सि॒स्व॒पः॒ । व॒राहु॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अनु त्वा मही पाजसी अचक्रे द्यावाक्षामा मदतामिन्द्र कर्मन्। त्वं वृत्रमाशयानं सिरासु महो वज्रेण सिष्वपो वराहुम् ॥
स्वर रहित पद पाठअनु। त्वा। मही इति। पाजसी इति। अचक्रे इति। द्यावाक्षामा। मदताम्। इन्द्र। कर्मन्। त्वम्। वृत्रम्। आऽशयानम्। सिरासु। महः। वज्रेण। सिस्वपः। वराहुम् ॥ १.१२१.११
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 121; मन्त्र » 11
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजप्रजाकृत्यमाह ।
अन्वयः
हे इन्द्र त्वं सूर्यो वृत्रमिव सिरासु सहो वज्रेण वराहुं हत्वाऽऽशयानमिव सिस्वपः। यतो मही पाजसी अचक्रे द्यावाक्षामा त्वा प्राप्य प्रत्येककर्मन्ननुमदताम् ॥ ११ ॥
पदार्थः
(अनु) (त्वा) (त्वाम्) (मही) महत्यौ (पाजसी) रक्षणनिमित्ते। अत्र विभक्तेः पूर्वसवर्णः। पातेर्बले जुट् च। उ० ४। २०३। इति पा धातोरसुन् जुडागमश्च। (अचक्रे) अप्रतिहते। चक्रं चक्रतेर्वा। निरु० ४। २७। (द्यावाक्षामा) क्षमा एव क्षामा द्यौश्च क्षामा च द्यावाक्षामा सूर्यपृथिव्यौ (मदताम्) आनन्दतु (इन्द्र) प्राप्तपरमैश्वर्य (कर्मन्) राज्यकर्मणि (त्वम्) (वृत्रम्) मेघम् (आशयानम्) समन्तात् प्राप्तनिद्रम् (सिरासु) बन्धनरूपासु नाडीषु (महः) महता (वज्रेण) शस्त्रास्त्रसमूहेन (सिष्वपः) स्वापय। अत्र वा छन्दसीति संप्रसारणनिषेधः। (वराहुम्) वराणां धर्म्याणां व्यवहाराणां धार्मिकाणां जनानां च हन्तारं दस्युं शत्रुम् ॥ ११ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। राजपुरुषैर्विनयपराक्रमाभ्यां दुष्टान् शत्रून् बध्वा हत्वा निवर्त्य मित्राणि धार्मिकान् संपाद्य सर्वाः प्रजाः सत्कर्मसु प्रवर्त्यानन्दनीयाः ॥ ११ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजा और प्रजा का काम यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (इन्द्र) परम ऐश्वर्य को पाये हुए सभाध्यक्ष आदि सज्जनपुरुष ! (त्वम्) आप सूर्य जैसे (वृत्रम्) मेघ को छिन्न-भिन्न करे वैसे (सिरासु) बन्धनरूप नाड़ियों में (महः) बड़े (वज्रेण) शस्त्र और अस्त्रों के समूह से (वराहुम्) धर्मयुक्त उत्तम व्यवहार वा धार्मिक जनों के मारनेवाले दुष्ट शत्रु को मारके (आशयानम्) जिसने सब ओर से गाढ़ी नींद पाई उसके समान (सिष्वपः) सुलाओ जिससे (मही) बड़े (पाजसी) रक्षा करनेहारा और अपने प्रकाश करने में (अचक्रे) न रुके हुए (द्यावाक्षामा) सूर्य और (पृथिवी) (त्वा) आपको प्राप्त होकर उनमें से प्रत्येक (कर्मन्) राज्य के काम में तुमको (अनु, मदताम्) अनुकूलता से आनन्द देवें ॥ ११ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। राजपुरुषों को चाहिये कि विनय और पराक्रम से दुष्ट शत्रुओं को बाँध, मार और निवार अर्थात् उनको धार्मिक मित्र बना कर समस्त प्रजाजनों को अच्छे कामों में प्रवृत्त करा आनन्दित करें ॥ ११ ॥
विषय
वृत्र का स्वापन
पदार्थ
१. (त्वम् - सिरासु) = [शिरासु] एक - एक नाड़ी में (आशयानम्) = व्याप्त होकर रहनेवाले वृत्रा वासनारूप शत्रु को जो (वराहुम्) = [वरम् आहन्ति] सब उत्तम भावों का नाश कर देती है, उसको (महो वज्रेण) = महनीय क्रियाशीलतारूप वन से (सिष्वपः) = सुला देता है । रणाङ्गण में इस शत्रु को भूमिशायी करके ही तो तू अपने शुभभावों का रक्षण करनेवाला होता है । २. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! (कर्मन्) = इस वन विनाशरूप कर्म में (त्वा) = तुझे (मही) = महनीय (पाजसी) = शक्तिशाली (अचक्रे) = [अचक्रमाणे] स्थिर (द्यावाक्षामा) मस्तिष्क व शरीर (अनुमदताम्) = हर्षयुक्त करते हैं । मस्तिष्क की स्थिरता यही है कि बुद्धि डांवाडोल न हो और शरीर की स्थिरता का भाव स्वास्थ्य का अखण्डित होना है । स्वस्थ मस्तिष्क व स्वस्थ शरीर के होने पर हम वासना - विजय के कार्य में आनन्द अनुभव करते हैं । निर्बल मस्तिष्क व निर्बल शरीर वासनाओं का शिकार हो जाता है । मस्तिष्क व शरीर दोनों महनीय हों - 'मह पूजायाम्' - प्रभुपूजन की ओर झुकाववाले हों तो वासना का विनाश अवश्यम्भावी है ।
भावार्थ
भावार्थ - हमारे जीवन का महान् लक्ष्य प्रभुपूजन के साथ कर्मों में लगे रहने के द्वारा वासना का विनाश हो ।
विषय
परमेश्वर की स्तुति।
भावार्थ
जिस प्रकार ( द्यावाक्षामा ) आकाश और पृथ्वी दोनों ( मही ) विशाल (पाजसी) बलवती और ( अचक्रे ) स्थिर, स्वतः कार्य करने में असमर्थ होकर भी सूर्य के प्रकाश कार्य में प्रसन्न और तृप्त हो जाते हैं उसी प्रकार हे वीर राजन् ! ( द्यावाक्षामा ) तेजस्वी राजवर्ग और भूमि के समान आश्रयरूप प्रजावर्ग ! दोनों ( मही ) आदरणीय और बड़े (पाजसी) बलवान् और चरणों के समान आश्रय स्वरूप ( अचक्रे ) चक्ररहित रथ के समान शिथिल, एवं स्वतः अपनी शक्ति से रहित अथवा स्वतः इच्छा रहित होकर ( कर्मन् ) राज्यपालन और शत्रु उच्छेद के काम में ( त्वाम् मदताम् ) तेरे साथ २ प्रसन्न हों । हे राजन् ! तू जिस प्रकार ( आशयाने वृत्रं ) चारों तरफ फैले हुए और सूर्य को घेरनेवाले ( वराहुम् ) मेघ को सूर्य ( महः वज्रेण ) बड़े भारी अन्धकारवारक प्रकाश या विद्युत् से ( सिरासु ) नदी धाराओं में (सिष्वपः) सुला देता है अर्थात् जल रूप से बरसा देता है उसी प्रकार हे राजन् ! (त्वं) तू ( आशयानं ) अपने राष्ट्र के चारों ओर घेरे पड़े हुए, ( वृत्रम् ) बढ़ते हुए ( वराहुम् ) श्रेष्ठ, धार्मिक व्यवहारों और जनों के नाशकारी शत्रुदल को ( सिरासु ) शरीर की मर्म नाड़ियों का आघात करने वाले ( महः ) बड़े प्रबल ( वज्रेण ) अपने शस्त्रास्त्र से ( सिष्वपः ) सुलादे, मार गिरा ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ओषिजः कक्षीवानृषिः॥ विश्वेदेवा इन्द्रश्च देवता॥ छन्दः– १, ७, १३ भुरिक् पंक्तिः॥ २, ८, १० त्रिष्टुप् ।। ३, ४, ६, १२, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. राजपुरुषांनी नम्रतेने पराक्रमयुक्त बनून दुष्ट शत्रूंचा संहार करावा. अर्थात, त्यांना धार्मिक मित्र बनवून संपूर्ण प्रजेला चांगल्या कार्यात प्रवृत्त करून आनंदित व्हावे. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, may the great, protective and irresistible heaven and earth rejoice with your exploits. With your mighty thunderbolt of sun-rays you break the inert cloud of darkness in showers and make it flow in streams of water as it has been hoarding vapour and then flowing, earlier.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the King and his subjects are told further in the 11th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O King, lord of much wealth, as the sun destroys the cloud, thou hurlest down in his nerves with thunderbolt thy enemy who is obstructor of righteous deeds and killer of good persons and makes him sleep down for a long time, so that the vast, powerful, protecting and un-restrained sun and earth may be the sources of happiness to thee, in every glorious deeds thou doest.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
[पाजसे] रक्षरणनिमित्ते । अत्र विभक्तेः पूर्वसवर्णः । पातेर्बले जुट्च [उणादि० ४.२०३] इति पाधातोः असुन्-जुडागमश्च । = Cause of protection. [वराहुम्] वराणां धर्माणां व्यवहाराणां धार्मिकाणां जनानां च हन्तारं दस्युं शत्रुम् =The wicked enemy who is obstructor of righteous deeds and killer of good persons.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of the Officers of the State to chain down wicked foes, to kill them, to restrain them and to turn them into good friends. They should make all happy full of bliss, by prompting all their subjects to do noble acts.
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