ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 121/ मन्त्र 6
ऋषिः - औशिजो दैर्घतमसः कक्षीवान्
देवता - विश्वे देवा इन्द्रश्च
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अध॒ प्र ज॑ज्ञे त॒रणि॑र्ममत्तु॒ प्र रो॑च्य॒स्या उ॒षसो॒ न सूर॑:। इन्दु॒र्येभि॒राष्ट॒ स्वेदु॑हव्यैः स्रु॒वेण॑ सि॒ञ्चञ्ज॒रणा॒भि धाम॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअध॑ । प्र । ज॒ज्ञे॒ । त॒रणिः॑ । म॒म॒त्तु॒ । प्र । रो॒चि॒ । अ॒स्याः । उ॒षसः॑ । न । सूरः॑ । इन्दुः॑ । येभिः॑ । आष्ट॑ । स्वऽइदु॑हव्यैः । स्रु॒वेण॑ । सि॒ञ्चन् । ज॒रणा॑ । अ॒भि । धाम॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अध प्र जज्ञे तरणिर्ममत्तु प्र रोच्यस्या उषसो न सूर:। इन्दुर्येभिराष्ट स्वेदुहव्यैः स्रुवेण सिञ्चञ्जरणाभि धाम ॥
स्वर रहित पद पाठअध। प्र। जज्ञे। तरणिः। ममत्तु। प्र। रोचि। अस्याः। उषसः। न। सूरः। इन्दुः। येभिः। आष्ट। स्वऽइदुहव्यैः। स्रुवेण। सिञ्चन्। जरणा। अभि। धाम ॥ १.१२१.६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 121; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः कथं वर्त्तेरन्नित्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे सत्कर्मानुष्ठातो भवानुषसः सूरो न येभिः स्वेदुहव्यैः स्रुवेण धामाभिसिञ्चन्निवास्या दुग्धादिभिः प्ररोचि। इन्दुः सन् जरणाष्ट तरणिः सन् ममत्तु। अध प्रजज्ञे प्रसिद्धौ भवतु ॥ ६ ॥
पदार्थः
(अध) अथ (प्र) (जज्ञे) जायताम् (तरणिः) दुःखात् पारगः सुखविस्तारकः (ममत्तु) आनन्द। अत्र विकरणस्य श्लुः। (प्र) (रोचि) जगति प्रकाश्येत (अस्याः) गोः (उषसः) प्रभातात् (न) इव (सूरः) सविता (इन्दुः) (येभिः) यैः (आष्ट) अश्नुवीत। अत्र लिङि लुङ् विकरणस्य लुक्। (स्वेदुहव्यैः) स्वानि इदूनि ऐश्वर्य्याणि हव्यानि दातुमादातुं योग्यानि येभ्यो दुग्धादिभ्यस्तैः (स्रुवेण) (सिञ्चन्) (जरणा) जरणानि स्तुत्यानि कर्माणि (अभि) (धाम) स्थलम् ॥ ६ ॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। मनुष्या गवादीन् संरक्ष्योन्नीय वैद्यकशास्त्रानुसारेणैतेषां दुग्धादीनि सेवमाना बलिष्ठा अत्यैश्वर्ययुक्ताः सततं भवन्तु। यथा कश्चिदुपसाधनेन युक्त्या क्षेत्रं निर्माय जलेन सिञ्चन्नन्नादियुक्तो भूत्वा बलैश्वर्येण सूर्यवत्प्रकाशते तथैवैतानि स्तुत्यानि कर्माणि कुर्वन्तः प्रदीप्यन्ताम् ॥ ६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य कैसे वर्त्ते, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे अच्छे कामों के अनुष्ठान करनेवाले मनुष्य ! आप (उषसः) प्रभात समय से (सूरः) सूर्य के (न) समान (येभिः) जिनसे (स्वेदुहव्यैः) अपने देने-लेने के योग्य दूध आदि पदार्थों से ऐश्वर्य्य अर्थात् उत्तम पदार्थ सिद्ध होते हैं उनसे और (स्रुवेण) श्रुवा आदि के योग से (धाम) यज्ञभूमि को (अभिसिञ्चन्) सब ओर से सींचते हुए सज्जनों के समान (अस्याः) इन गौ के दूध आदि पदार्थों से (प्र, रोचि) संसार में भली-भाँति प्रकाशमान हो और (इन्दु) ऐश्वर्य्ययुक्त (जरणा) प्रशंसित कामों को (आष्ट) प्राप्त हो (तरणिः) दुःख से पार पहुँचे हुए सुख का विस्तार करने अर्थात् बढ़ानेवाले आप (ममत्तु) आनन्द भोगो, (अध) इसके अनन्तर (प्र, जज्ञे) प्रसिद्ध होओ ॥ ६ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्य गौ आदि पशुओं को राख और उनकी वृद्धि कर वैद्यकशास्त्र के अनुसार इन पशुओं से दूध आधि को सेवते हुए बलिष्ठ और अत्यन्त ऐश्वर्ययुक्त निरन्तर हों, जैसे कोई हल, पटेला आदि साधनों से युक्ति के साथ खेत को सिद्ध कर जल से सींचता हुआ अन्न आदि पदार्थों से युक्त होकर बल और ऐश्वर्य्य से सूर्य्य के समान प्रकाशमान होता है, वैसे इन प्रशंसा योग्य कामों को करते हुए प्रकाशित हों ॥ ६ ॥
विषय
धन व ब्रह्म
पदार्थ
१. (अध) = अब, गतमन्त्र के अनुसार ज्ञान - सम्पत्ति और उत्तम शक्ति को प्राप्त करनेवाला व्यक्ति (तरणिः) सब वासनाओं को तैर जानेवाला (प्रजज्ञे) = होता है और (ममत्तु) = हर्ष का अनुभव करता है । यह (अस्याः) इस (उषसः) उषा के (सूरः न) सूर्य के समान (प्र रोचि) चमक उठता है । उषा का सूर्य चमकवाला तो है, परन्तु सन्ताप से रहित है । इसी प्रकार यह भी ज्ञान के प्रकाशवाला होता है, परन्तु उग्र कर्मों के सन्तापवाला नहीं होता । इसके कर्म परहित के लिए होते हैं, न कि परद्रोह के लिए । २. यह (इन्दुः) खुब ऐश्वर्य - सम्पन्न पुरुष (येभिः) = जिन (स्वेदुहव्यैः) [स्व+इदु+हव्यैः] अपने ऐश्वयों के हव्यों - दानों के द्वारा (आष्ट) = अपने को व्यास करता है, उन हव्यों से यह प्राजापत्य यज्ञ में उसी प्रकार आहुति देता है, जैसे कि कोई पुरुष अग्नि में (स्रुवेण) = चम्मच से (सिञ्चन्) = घृत की आहुति देता है । ३. लोकहित के उद्देश्य से सम्पत्तियों का सेवन करता हुआ यह (जरणा) = स्तोतव्य (धाम) = अपने मूल स्थान ब्रह्मलोक की (अभि) = ओर आष्ट - प्राप्त होनेवाला होता है । यह सम्पत्तियों का त्याग व दान ही मनुष्य को ब्रह्म की ओर ले जाता है । धन हमारे हृदय में बस जाता है तो वहाँ प्रभु का वास नहीं होता; धन का त्याग करते हैं तो प्रभु को पानेवाले होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - ज्ञान व शक्ति के द्वारा हम वासनाओं को तैर जाते हैं और प्रातः के सूर्य की भाँति चमक उठते हैं । धन का त्याग हमें ब्रह्म को प्राप्त कराता है ।
विषय
परमेश्वर की स्तुति।
भावार्थ
( उषसः सूरः न ) उषा के समीप सूर्य जिस प्रकार अति अधिक प्रकाश के सहित ( प्ररोचि ) प्रकाशित होता है उसी प्रकार राजा ( अस्याः ) इस ( उषसः ) शत्रु को सन्ताप देने वाली सेना, तथा कमनीय गुणों से युक्त प्रजा और भूसम्पत्ति के योग से ( तरणिः ) सब दुःखों से स्वयं पार होने और अन्यों को पार करनेहारा होकर विद्वान् पुरुष और तेजस्वी राजा ( प्र जज्ञे ) उत्तम रीति से प्रसिद्ध हो । और ( प्र ममत्तु ) खूब प्रसन्न और तृप्त हो। और ( प्र रोचि ) अच्छी प्रकार प्रकाशित और सर्वप्रिय हो । वह ( इन्दुः ) ऐश्वर्यवान् होकर ( येभिः ) जिन ( स्व-इदु-हव्यैः ) अपने तेजः सामर्थ्यो, ऐश्वर्यों को देनेवाले सहयोगियों के साथ ( आष्ट ) वह राज्यैश्वर्य का भोग करता है उन्हीं के बल से ( स्रुवेण ) स्रुवा से ( सिञ्चन् ) सिंचे यज्ञाग्नि के समान और ( स्त्रुवेण ) इस प्रजाजन से ( अभिषिञ्चन् ) अभिषेक को प्राप्त होता हुआ ( धाम ) राष्ट्र को धारण करने वाले और बल, राज्यैश्वर्य का भी (आष्ट) भोग करे । और (जरणा) स्तुत्य कर्मों और ऐश्वर्यों को (आष्ट) प्राप्त करे । अथवा—( स्त्रुवेण अभि धाम सिञ्चन् जरणा आष्ट ) उन ऐश्वर्यप्रद सहयोगियों के द्वारा ही स्रवणशील जल आदि से इस राष्ट्रभूमि को कृषि आदि के लिये सींचता हुआ लोकोपकारक स्तुत्य कर्मों को करे और उत्तम ऐश्वर्यो का भोग करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ओषिजः कक्षीवानृषिः॥ विश्वेदेवा इन्द्रश्च देवता॥ छन्दः– १, ७, १३ भुरिक् पंक्तिः॥ २, ८, १० त्रिष्टुप् ।। ३, ४, ६, १२, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. माणसांनी गाय इत्यादी पशूंचे रक्षण करावे व त्यांची वृद्धी करून वैद्यकशास्त्रानुसार त्या पशूंचे दूध सेवन करावे व बलवान आणि ऐश्वर्यवान व्हावे. जशी एखादी व्यक्ती नांगर वगैरे साधनांनी शेत नांगरून पाण्याचे सिंचन करते व अन्न इत्यादी पदार्थांनी युक्त होऊन बल व ऐश्वर्याने सूर्याप्रमाणे प्रकाशित होते तसे प्रशंसायुक्त कार्य करून प्रकाशित व्हावे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Let Indra, the noble soul, self-redeemer from suffering, arise, rejoice and shine like the rising sun close upon the heels of the dawn. Blest with grace like the beauty of the moon, sprinkling the vedi with ladlefuls of holy offerings and singing songs in praise of Divinity by which you attain to the city celestial, let the soul rise, rejoice and shine.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should men behave is taught in the sixth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O doer of good deeds, thou shiniest by taking milk and other nourishing things which make a man fit to earn wealth "like the sun from the dawn. Performing Yajna (non-violent sacrifice) with oblations and with ladle sprinkling the place of sacrifice, thou becomes like the moon, always doing admirable works, taking people away from all misery and extending the field of their happiness, thou gladdens all and becomes famous thereby.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(तरणिः ) दुःखात् पारगः सुखविस्तारकः = Taking away from misery and extending happiness. (स्वेदुहव्यै:) स्वानि इवूनि ऐश्वर्याणि हव्यानि दातुमादातुम् योग्यानि येभ्यो दुग्धादिभ्य्स्तैः = With milk and other nourishing things which make a man fit to earn wealth.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
man Men should protect the cattle, should make them grow well and taking their milk etc. according to the rules laid down in the Shastras dealing with medical subjects, they should become mighty, healthy and wealthy. As a who cultivates a field, wets it with water and getting food materials shines like the sun, being strong and rich, so they should so shine doing always admirable deeds.
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