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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 121 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 121/ मन्त्र 9
    ऋषिः - औशिजो दैर्घतमसः कक्षीवान् देवता - विश्वे देवा इन्द्रश्च छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्वमा॑य॒सं प्रति॑ वर्तयो॒ गोर्दि॒वो अश्मा॑न॒मुप॑नीत॒मृभ्वा॑। कुत्सा॑य॒ यत्र॑ पुरुहूत व॒न्वञ्छुष्ण॑मन॒न्तैः प॑रि॒यासि॑ व॒धैः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । आ॒य॒सम् । प्रति॑ । व॒र्त॒यः॒ । गोः । दि॒वः । अश्मा॑नम् । उप॑ऽनीतम् । ऋभ्वा॑ । कुत्सा॑य । यत्र॑ । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । व॒न्वन् । शुष्ण॑म् । अ॒न॒न्तैः । प॒रि॒ऽयासि॑ । व॒धैः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमायसं प्रति वर्तयो गोर्दिवो अश्मानमुपनीतमृभ्वा। कुत्साय यत्र पुरुहूत वन्वञ्छुष्णमनन्तैः परियासि वधैः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। आयसम्। प्रति। वर्तयः। गोः। दिवः। अश्मानम्। उपऽनीतम्। ऋभ्वा। कुत्साय। यत्र। पुरुऽहूत। वन्वन्। शुष्णम्। अनन्तैः। परिऽयासि। वधैः ॥ १.१२१.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 121; मन्त्र » 9
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे वन्वन् पुरुहूत त्वं सूर्यो दिवस्तमो हत्वाऽश्मानमुपनीतं प्रापयतीव ऋभ्वा सहायसं गृहीत्वा कुत्साय शुष्णं चादधन् यत्र गोहिंसका वर्त्तन्ते तत्र तेषामनन्तैर्वधैः परियासि तान् गोः सकाशात्प्रति वर्त्तयश्च ॥ ९ ॥

    पदार्थः

    (त्वम्) प्रजापालकः (आयसम्) अयोनिर्मितं शस्त्रास्त्रादिकम् (प्रति) (वर्त्तयः) (गोः) गवादेः पशोः (दिवः) दिव्यसुखप्रदात् प्रकाशात् (अश्मानम्) व्यापनशीलं मेघम्। अश्मेति मेघना०। निघं० १। १०। (उपनीतम्) प्राप्तसमीपम् (ऋभ्वा) मेधाविना (कुत्साय) वज्राय (यत्र) स्थले (पुरुहूत) बहुभिः स्पर्द्धित (वन्वन्) संभजमान (शुष्णम्) शोषकं बलम् (अनन्तैः) अविद्यमानसीमभिः (परियासि) सर्वतो याहि (वधैः) गोहिंस्राणां मारणोपायैः ॥ ९ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यूयं यथा सविता मेघं वर्षयित्वाऽन्धकारं निवर्त्य सर्वमाह्लादयति तथा गवादीनां रक्षणं विधायैतद्धिंसकान् प्रतिरोध्य सततं सुखयत नह्येतत्कर्म बुद्धिमत्सहायमन्तरा संभवति तस्माद्धीमतां सहायेनैव तदाचरत ॥ ९ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (वन्वन्) अच्छे प्रकार सेवन करते और (पुरुहूत) बहुत मनुष्यों से ईर्ष्या के साथ बुलाये हुए मनुष्य ! (त्वम्) तू जैसे सूर्य (दिवः) दिव्य सुख देनेहारे प्रकाश से अन्धकार को दूर करके (अश्मानम्) व्याप्त होनेवाले (उपनीतम्) अपने समीप आये हुए मेघ को छिन्न-भिन्नकर संसार में पहुँचाता है, वैसे (ऋभ्वा) मेधावी अर्थात् धीरबुद्धि वाले पुरुष के साथ (आयसम्) लोहे से बनाये हुए शस्त्र-अस्त्रों को लेके (कुत्साय) वज्र के लिये (शुष्णम्) शत्रुओं के पराक्रम को सुखानेहारे बल को धारण करता हुआ (यत्र) जहाँ गौओं के मारनेवाले हैं, वहाँ उनको (अनन्तैः) जिनकी संख्या नहीं उन (वधैः) गोहिंसकों को मारने के उपायों से (परियासि) सब ओर से प्राप्त होते हो, उनको (गोः) गौ आदि पशुओं के समीप से (प्रति, वर्त्तयः) लौटाओ भी ॥ ९ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! तुम लोग जैसे सूर्य मेघ की वर्षा और अन्धकार को दूर कर सबको हर्ष आनन्दयुक्त करता है, वैसे गौ आदि पशुओं की रक्षा कर उनके मारनेवालों को रोक निरन्तर सुखी होओ। यह काम बुद्धिमानों के सहाय के विना होने को संभव नहीं है, इससे बुद्धिमानों के सहाय से ही उक्त काम का आचरण करो ॥ ९ ॥

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    विषय

    शरीर व बुद्धि का स्वास्थ्य

    पदार्थ

    १. हे (पुरुहत) = बहुतों से पुकारे जानेवाले प्रभो! अथवा पालक व पूरक है पुकार जिसकी ऐसे प्रभो । (त्वम्) = आप ही (गोः) = इस पृथिवी के तथा (दिवः) = द्युलोक के, अर्थात् शरीर व मस्तिष्क के (अश्मानम्) = [अशू व्यासौ] व्यापन करनेवाले (ऋभ्वा उपनीतम्) = 'ऋभु ऋतेन भाति' - व्यवस्थित क्रियाओं के द्वारा चमकनेवाले से समीप प्राप्त कराये गये (आयसम्) = लोहनिर्मित वन को (प्रतिवर्तयः) = वासनारूप शत्रु के प्रति छोड़ते हो । प्रभुकृपा से हमें अनथक (श्रमशीलता) = 'आयस वन' प्राप्त होता है । इसके द्वारा वासना का विनाश होता है । श्रमशील को वासना नहीं सताती । यह श्रमशीलता 'गौ व द्यौः 'दोनों का व्यापन करनेवाली है । 'गौ' का अभिप्राय पृथिवी व शरीर है और 'द्यौ' का मस्तिष्क । शरीर - सम्बन्धी क्रियाओं तथा मस्तिष्क - सम्बन्धी कार्यों में नियमपूर्वक [ऋत से] प्रवृत्त होनेवाला 'ऋभु' इस आयस - वज्र को प्राप्त करता है और इस वज्र से वासनारूप शत्रु को नष्ट करता है । २. (कुत्साय) = वासना - संहार [कुथ हिंसायाम] में प्रवृत्त होनेवाले कुत्स के लिए (यत्र) = जहाँ हे (पुरुहूत) = प्रभो! आप (शुष्णम्) = शोषण कर देनेवाले - अनन्त बली वासनारूप असुर को (वन्वन्) = जीतने के हेतु से [वन् - win] (अनन्तैः वधैः) = निरन्तर प्रवृत्त वधों से (परियासि) = सर्वतः प्राप्त होते हैं, वहाँ ही इस वासना का विनाश होता है और वासना - विनाश से शरीर व बुद्धि की स्थिति उत्तम होती है । वासनाविनाश के लिए निरन्तर लगे ही रहना पड़ता है, क्योंकि इसके फिर - फिर जाग उठने की सम्भावना बनी ही रहती है । यही भाव यहाँ अनन्त वध' इन शब्दों से संकेतित हुआ है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - क्रियाशीलतारूप वन से हम वासना का विनाश करें और शरीर व बुद्धि के स्वास्थ्य को सिद्ध करें ।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति।

    भावार्थ

    हे राजन् ! सेनापते ! जिस प्रकार सूर्य ( गोः दिवः अश्मान ) आकाश और पृथिवी पर व्यापने वाले, ( उपनीतं ) समीप आये मेघ को ( ऋभ्वा ) बहुत अधिक प्रकाश या वेगवान् वायु से खूब चलाता है उसी प्रकार तू भी ( ऋभ्वा ) विज्ञानवान् शिल्पी से ( उपनीतं ) प्राप्त कराये हुए ( अश्मानम् ) शिला के समान अभेद्य और (आयसं) लोह के बने शस्त्रास्त्र को ( गोः दिवः ) भूमि और अकाश के बीच ( प्रतिवर्तयः ) चला । ( दिवः अश्मानम् ) भूमि और विजयलक्ष्मी के लाभ कराने वाले (आयसं) फौलाद के बने शस्त्रास्त्र समूह को ( प्रति ) शत्रुओं के प्रति (वर्त्तयः) चला । हे (पुरुहूत) बहुत से शत्रुओं से ललकारे जाने वाले ! अथवा बहुतसी प्रजाओं द्वारा रक्षार्थ बुलाये जाने वाले सेनापते ! ( कुत्साय ) जल-वृष्टि के लिये जिस प्रकार सूर्य ( शुष्णम् ) पृथ्वी पर के जल को सुखा देने वाले ताप को ( वन्वन् ) धारण करता हुआ ( अनन्तैः ) असंख्य किरणों से प्रकाशित होता है। उसी प्रकार हे सेनापते ! तू (कुत्साय) काट गिरा देने योग्य शत्रुओं को नाश करने के लिये या शत्रुओं से काटी जाने वाली प्रजा की रक्षा के लिये ( शुष्णम् वन्वन् ) शत्रु के शोषणकारी बल को धारण करता हुआ या शोषणकारी शत्रु को ( वन्वन् ) विनाश करता हुआ ( अनन्तैः वधैः ) अनन्त, असीम, असंख्य शस्त्रों और वीर भटों के साथ ( परि यासि ) प्रयाण कर । [ २ ] आचार्य के पक्ष में—हे ( पुरुहूत ) बहुत सी प्रजाओं से आदर पाने योग्य विद्वान् ( ऋभ्वा ) सत्य ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित होने वाले आचार्य द्वारा ( उपनीतम् ) उपनयन किये गये ( गोः दिवः ) वेदवाणी और तेज तथा ब्रह्मचर्य के ( अश्मानम् ) सेवन करने वाले एवं चट्टान के समान दृढ़, सहिष्णु (आयसम्) फौलाद के समान बलवान् पुरुष को ( प्रतिवर्त्तयः ) गृहस्थाश्रम के प्रति समावर्त्तन कर ( यत्र ) जिस ब्रह्मचारी पर या जहां तू ( कुत्साय ) बुरी आदतों के तोड़ने के लिये, या बल वीर्य के प्राप्त करने के लिये, या वेद सूक्तों को पढ़ने वाले शिष्यों के हित के लिये, ( शुष्णं वन्वन् ) बल को धारण करता हुआ ( अनन्तैः ) अनन्त प्रकारों के ( वधैः ) ताड़ना आदि उपायों से ( परियासि ) प्राप्त होता है ।

    टिप्पणी

    कुत्सः—इत्येतत् कृन्ततेः। ऋषिः कुत्सो भवति कर्त्ता स्तोमानामित्यौपमन्यवः ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ओषिजः कक्षीवानृषिः॥ विश्वेदेवा इन्द्रश्च देवता॥ छन्दः– १, ७, १३ भुरिक् पंक्तिः॥ २, ८, १० त्रिष्टुप् ।। ३, ४, ६, १२, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जसा सूर्य मेघांची वृष्टी करून, अंधकार दूर करून सर्वांना हर्षित करतो. तसे तुम्ही गाई इत्यादी पशूंचे रक्षण करून त्यांची हत्या करणाऱ्यांना रोखून निरंतर सुखी व्हा. हे कार्य बुद्धिमान लोकांखेरीज होणे शक्य नाही. त्यामुळे बुद्धिमानाच्या साह्यानेच वरील काम करा. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of light, power and justice, you go round earth and heaven, wielding the thunderbolt made from steel and stone and tempered with heat and electricity procured and refined by Rbhu, master of metals, speed and range. Invoked and invited by all for the defence of the sagely man of wisdom, you go about with the fatal weapon striking countless blows upon the wicked and destructive demons. Lord of light and force, having used the weapon and achieved the aim, be gracious and call it back.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O man thou who art invited by many, who Servest them well, as the sun dispels darkness his joy-giving light and scatters the clouds, raining them down and thus benefiting the world, so thou should take in thy hand the powerful weapon made out of iron and other mentals by a wise man and should possess well the strength to use the thunderbolt (and other fatal arms.) Thou should encompass with those numberless mighty weapons the killers of the cows and should keep thy arms far away from the cattle.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (दिव:) दिव्यसुखप्रदात् प्रकाशात् = By the light that gives divine delight. (अश्मानम् ) व्यापनशीलं मेघम् । अश्मेति मेघ नाम (निघ० १.१० ) = The cloud. (कुत्साय) वज्राय = For the thunderbolt or powerful weapon.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men, as the sun gladdens all by raining down the cloud and dispelling darkness, so you should make all delighted by protecting the cattle (and other animals) and by restraining their killers. This work cannot be done without the help of wise men. Therefore you should do all this with their help.

    Translator's Notes

    It is therefore wrong on the part of Sanacharya. Prof. Wilson and others to take the words like Kutsa and Shushna as the proper nouns or the names of particular persons instead of taking them in the sense of thunderbolt and strength as the Vedic Lexicon-Nighantu quoted above clearly states. Rishi Dayananda Sarasvati has taken the word गो: (Goh) in the well-known sense of the cow and has shown how the Vedas enjoin upon all to protect the cattle and restrain the wicked from slaughtering them by all legitimate means, while as Sayanacharya has taken it to be the adjective of शुष्णस्य which also he wrongly interprets as शुष्णस्य असुरस्य the name of a demon and interprets गो: as गन्तु: = Moving or active अश्मानम् which in classical Sanskrit means "Stone" but according to the Vedic Lexicon-Nighantu stands for cloud, he takes as the adjective of वज्रं as श्त्नोर्व्यापकं = Pervading or badly affecting the enemy. Those of the critics who accuse Rishi Dayananda Sarasvati of giving far-fetched interpretation of the words and the mantras are particularly requested to take note of such peculiar meanings of well-known words by their authentic commentator. Etymologically Shri Kapali Shastri has explained कुत्स: as निकृष्टानां पापानाम् अध: कुत्सनात् कुत्सः A man who condemns sins.

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