ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 121/ मन्त्र 13
ऋषिः - औशिजो दैर्घतमसः कक्षीवान्
देवता - विश्वे देवा इन्द्रश्च
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
त्वं सूरो॑ ह॒रितो॑ रामयो॒ नॄन्भर॑च्च॒क्रमेत॑शो॒ नायमि॑न्द्र। प्रास्य॑ पा॒रं न॑व॒तिं ना॒व्या॑ना॒मपि॑ क॒र्तम॑वर्त॒योऽय॑ज्यून् ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । सूरः॑ । ह॒रितः॑ । र॒म॒यः॒ । नॄन् । भर॑त् । च॒क्रम् । एत॑शः । न । अ॒यम् । इ॒न्द्र॒ । प्र॒ऽअस्य॑ । पा॒रम् । न॒व॒तिम् । ना॒व्या॑नाम् । अपि॑ । क॒र्तम् । अय॑ज्यून् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं सूरो हरितो रामयो नॄन्भरच्चक्रमेतशो नायमिन्द्र। प्रास्य पारं नवतिं नाव्यानामपि कर्तमवर्तयोऽयज्यून् ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। सूरः। हरितः। रमयः। नॄन्। भरत्। चक्रम्। एतशः। न। अयम्। इन्द्र। प्रऽअस्य। पारम्। नवतिम्। नाव्यानाम्। अपि। कर्तम्। अवर्त्तयः। अयज्यून् ॥ १.१२१.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 121; मन्त्र » 13
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे इन्द्र त्वमयं सूरो हरित इवैतशश्चक्रं नायज्यून् नॄन् भरत्। नाव्यानां नवतिं नवतिसंख्याकानि जलगमनार्थानि यानानि पारं प्रास्यैतान् पुरुषार्थिनोऽपि कर्त्तं खनितुं कर्मकर्त्तुं चावर्त्तयस्त्वमत्रास्मान् सदा रमयः ॥ १३ ॥
पदार्थः
(त्वम्) राज्यपालनाधिकृतः (सूरः) सवितेव (हरितः) रश्मीन्। हरित इति रश्मिना०। निघं० १। ६। (रामयः) आनन्देन क्रीडय। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (नॄन्) प्रजाधर्मनायकान् (भरत्) भरेः (चक्रम्) क्रामति रथो येन तत् (एतशः) साधुरश्वः। एतश इत्यश्वना०। निघं० १। १४। (न) इव (अयम्) (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रद (प्रास्य) प्रकृष्टतया प्रापय (पारम्) (नवतिम्) (नाव्यानाम्) नौभिस्तार्य्याणाम् (अपि) (कर्त्तम्) कूपम्। कर्त्तमिति कूपना०। निघं० ३। २३। (अवर्त्तयः) प्रवर्त्तय (अयज्यून्) असङ्गतिकर्तॄन् ॥ १३ ॥
भावार्थः
अत्र लुप्तोपमाश्लेषालङ्कारौ। यथा सूर्यः सर्वान् स्वे स्वे कर्मणि प्रेरयति तथाप्ता विद्वांसोऽविदुषः शास्त्रशारीरकर्मणि प्रवर्त्य सर्वाणि सुखानि संसाधयन्तु ॥ १३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (इन्द्र) परमैश्वर्य के देनेवाले सभाध्यक्ष ! (त्वम्) आप (अयम्) यह (सूरः) सूर्य्यलोक जैसे (हरितः) किरणों को वा जैसे (एतशः) उत्तम घोड़ा (चक्रम्) जिससे रथ ढुरकता है, उस पहिये को यथायोग्य काम में लगाता है (न) वैसे (अयज्यून्) विषयों में न सङ्ग करने और (नॄन्) प्रजाजनों को धर्म की प्राप्ति करानेहारे मनुष्यों को (भरत्) पुष्टि और पालना करो तथा (नाव्यानाम्) नौकाओं से पार करने योग्य जो (नवतिम्) जल में चलने के लिये नब्बे रथ हैं, उनको (पारम्) समुद्र के पार (प्रास्य) उत्तमता से पहुँचावो। तथा उन उक्त परुषार्थी पुरुषों को (अपि) भी (कर्त्तम्) कूँआ खुदाने और कर्म करने को (अवर्त्तय) प्रवृत्त कराओ और आप यहाँ हम लोगों को सदा (रमयः) आनन्द से रमाओ ॥ १३ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में लुप्तोपमा और श्लेषालङ्कार हैं। जैसे सूर्य्य सबको अपने-अपने कामों में लगाता है, वैसे उत्तम शास्त्र जाननेवाले विद्वान् जन मूर्खजनों को शास्त्र और शारीर कर्म में प्रवृत्त करा सब सुखों को सिद्ध करावें ॥ १३ ॥
विषय
कर्तव्यपरायणता
पदार्थ
१. (त्वम्) = तू (सूरः) = ज्ञानी बनता है । (हरितः) = दुः खों का हरण करनेवाले (नृन्) = जीवन - यात्रा में आगे ले - चलनेवाले इन्द्रियाश्वों को (रामयः) तु रमण कराता है । ये इन्द्रियाँ प्रत्येक कार्य को क्रीड़ा के रूप में करती हैं और कार्यों में आनन्द का अनुभव करती हैं । २. है (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! (अयम्) = यह तू (एतशः न) = सूर्याश्व की भाँति (चक्रं भरत्) = चक्र का भरण करता है । सूर्याश्व जैसे निरन्तर अपनी यात्रा का आक्रमण कर रहा है, उसी प्रकार तू अपने दैनिक कार्यक्रम को करनेवाला बनता है । ३. इस निरन्तर कार्यक्रम में लगे रहने के कारण तू (अयज्यून) = यज्ञ न करने की भावनाओं को (नाव्यानाम्) = नौका से तैरने योग्य, अर्थात् अत्यन्त गहरी विषय - जलपूर्ण नदियों के (नवतिम्) = नव्वे के (पारं प्राप्त्य) = पार फेंक । ये अयज्ञिय भावनाएँ नव्वे नदियों के पार फेंकी जाएँ, अर्थात् हमसे बहुत दूर हो जाएँ । इस प्रकार अयज्ञिय भावनाओं को दूर करके (कर्तम् अपि अवर्तयः) = तू कर्तव्य का पालन करनेवाला हो । अयज्ञिय भावनाएँ ही हमें कर्तव्य से विमुख करती हैं । इनको दूर करके हम अपने कर्तव्यों को करनेवाले बनते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - हमारी इन्द्रियाँ कर्म करने में आनन्द का अनुभव करें, सूर्याश्व की भाँति हम दैनिक कार्यचक्र को चलाएँ, वासनाओं को दूर करके कर्तव्यपरायण बनें ।
विषय
परमेश्वर की स्तुति।
भावार्थ
( सूरः ) सूर्य जिस प्रकार ( हरितः रमयः ) किरणों को फेंकता और ( हरितः रमयः ) समस्त दिशाओं को रमण कराता, सुखी और हर्षित करता है और (हरितः रमयः) हरे वृक्ष लता आदि को रमणीय, अर्थात् हरा भरा करता है, उसी प्रकार हे राजन् ! तू भी ( सूरः ) सबका प्रेरक, ऐश्वर्यवान् तेजस्वी होकर ( हरितः नॄन् रमयः ) वेगवान् अश्वों को, ज्ञानवान् विद्वानों को, समस्त दिशावासी प्रजाओं को और तीव्र वेगवान् वायु के समान आक्रमणकारी वीर नायकों और वीर भटों को सञ्चालित कर, प्रसन्न कर, युद्ध क्रीडा करा । हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( एतशः चक्रं न ) सूर्य जिस प्रकार चक्र अर्थात् समस्त ज्योतिश्चक्र या ग्रहचक्र को ( भरत् = हरत् ) धारण करता, सञ्चालित करता और व्यापता है और ( एतशः चक्रं न ) वेगवान्, बलवान् अश्व जिस प्रकार रथ के चक्र या चक्रवान् रथ को धारता और ले जाता है उसी प्रकार ( अयम् ) यह राजा ( चक्रम् भरत् ) राष्ट्र के कार्य कर्तृगण को पालित पोषित और सञ्चालित करे और ( चक्रम् भरत् ) द्वादश राजचक्र को अपने शौर्य, वीर्य और नीति द्वारा धारण करे और सञ्चालित करे। हे ऐश्वर्यवन् ! जिस प्रकार सूर्य मनुष्य जीवन के ९० वर्ष रूप नाव से पार करने योग्य बड़ी नदियों के ( पारं प्र-अस्यति ) पार मनुष्यों को डालता है और उनको ( अयज्यून् ) यज्ञ करने या वीर्य दान करने में असमर्थ या वृद्धावस्था से अशक्त कर देता है उसी प्रकार हे राजन् ! तू शत्रुओं को ( नाव्यानां नवतिं ) नाव से पार करने योग्य बड़ी बड़ी ९० नदियों के भी ( पारं ) पार ( प्र अस्य ) मार भगा । [२] अथवा—( नाव्यानां पारं ) नाव से तरने योग्य नदियों के पार ( नवतिं ) नौका को ( प्र-अस्य ) अच्छी प्रकार चलवा । अथवा ( नाव्यानां ) प्रेरण करने योग्य सेनाओं के ( पारं ) पालन करने में समर्थ ( नवतिं ) उत्तम आज्ञापक पुरुष को ( प्र-अस्य ) उत्तम पद पर स्थापित कर । इसी प्रकार ( नाव्यानां पारं ) स्तुति योग्य विद्वान् पुरुषों के पालक ( नवतिं ) अति स्तुत्य पुरुष को ( प्र-अस्य ) स्थापित कर । और ( अयज्यून् ) जिस प्रकार विद्युत् जल न देने वाले मेघों को ( कर्तम् ) काट काट कर या ( कर्तम् ) गढ़े में नीचे (अवर्तयः) जल बना कर गिरा देता है। उसी प्रकार हे राजन् ! तू भी ( अयज्यून् ) अदानशील, कर आदि न देने वाले तथा सन्धि द्वारा मेल न रखने वाले शत्रुओं का ( कर्तम् अपि अवर्तयः ) कूए या गहरे गढ़ों में रख । अथवा ( कर्तम् ) काट काट कर उनको ( अपि अवर्तयः ) विनाश कर ।
टिप्पणी
‘नवतिं नाव्यानाम्’—णु स्तुतौ इत्यतो डौ प्रत्यय औणादिकः । नौः । तस्मात् अतिरौणादिको नवतिः । नौति स्तौति, उपदिशति, प्रेरयति, स्तूयते उपदिश्यते, प्रेर्येते वा इति नौः, नवतिश्च । तेषु साधुः नाव्यस्तेषाम् नाव्यानाम् । अथवा नावा तार्या नाव्या नद्यः, तासाम् ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ओषिजः कक्षीवानृषिः॥ विश्वेदेवा इन्द्रश्च देवता॥ छन्दः– १, ७, १३ भुरिक् पंक्तिः॥ २, ८, १० त्रिष्टुप् ।। ३, ४, ६, १२, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात लुप्तोपमालंकार व श्लेषालंकार आहेत. जसा सूर्य सर्वांना आपापल्या कामात लावतो. तसे उत्तम शास्त्र जाणणाऱ्या विद्वानांनी मूर्खांना शास्त्र व शारीरिककर्मात प्रवृत्त करून सर्व सुख प्राप्त करावे. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, bright and brave like the lord of sunbeams, keep the creative yajnic people happy, wielding and moving the wheel of the nation like the moving chariot of the sun. And take the uncreative and non-yajnics, across the ninety navigable streams and engage them in labour jobs like digging of wells and canals.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra! President of the Assembly who art giver of much wealth; as the sun yokes the rays and the good horse makes the wheel to move, in the same manner, thou supports those leaders of the people and of righteousness who are not attached to worldly objects. Take across ninety cars (that are to be used for travel on the sea) or sea-journey to the sea-shore. Use industrious persons to dig the well and other useful activities and make us always happy.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(हरितः) रश्मीन् हरित इति रश्मिनाम ( निघ०१.६) = Rays. ( न न ) प्रजाधर्मनायकान् = The leaders of the people and of righteousness. (एतश:) साधुरश्व: एतश इत्यश्वनाम (निघ० १.१४) = Good horse, quick going horse. (कर्तृ म्) कूपम् कर्तमितिकूपनाम (निघ० ३.२३ ) = Well.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the sun prompts all to do their deeds, in the same manner, it is the duty of the learned to prompt the ignorant to do some mental or physical work according to their ability or aptitude and accomplish all happiness.
Translator's Notes
The most difficult part of the Mantra is नवति नाव्यानाम् = Which Sayanacharya translates as नावा तार्याणांनदीनां नवति नवति संख्याम् i. e. ninety river to be taken across the steamer. Rishi Dayananda Sarasvati takes नवति नाभ्याम् as नवति संख्याकानि जलगमनार्थानि यानानि = Ninety cars useful for sea- Journey. But the exact significance of the number 90 is still a matter for further research. We shall be grateful to any scholar who can throw further light on the subject. (अयज्यून् ) असंगतिकर्तृन् = Free from attachment. (यज -देवपूजासंगतिकरणदानेषु )
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