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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 121 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 121/ मन्त्र 5
    ऋषिः - औशिजो दैर्घतमसः कक्षीवान् देवता - विश्वे देवा इन्द्रश्च छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    तुभ्यं॒ पयो॒ यत्पि॒तरा॒वनी॑तां॒ राध॑: सु॒रेत॑स्तु॒रणे॑ भुर॒ण्यू। शुचि॒ यत्ते॒ रेक्ण॒ आय॑जन्त सब॒र्दुघा॑या॒: पय॑ उ॒स्रिया॑याः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तुभ्य॑म् । पयः॑ । यत् । पि॒तरौ॑ । अनी॑ताम् । राधः॑ । सु॒ऽरेतः॑ । तु॒रणे॑ । भु॒र॒ण्यू इति॑ । शुचि॑ । यत् । ते॒ । रेक्णः॑ । अय॑जन्त । स॒बः॒ऽदुघा॑याः । पयः॑ । उ॒स्रिया॑याः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तुभ्यं पयो यत्पितरावनीतां राध: सुरेतस्तुरणे भुरण्यू। शुचि यत्ते रेक्ण आयजन्त सबर्दुघाया: पय उस्रियायाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तुभ्यम्। पयः। यत्। पितरौ। अनीताम्। राधः। सुऽरेतः। तुरणे। भुरण्यू इति। शुचि। यत्। ते। रेक्णः। अयजन्त। सबःऽदुघायाः। पयः। उस्रियायाः ॥ १.१२१.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 121; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे सज्जन यद्यस्मै तुरणे तुभ्यं भुरण्यू पितरौ सुरेतः पयो राधश्चानीताम्। यद्यस्मै तुरणे ते तुभ्यं दयालवो गोरक्षका मनुष्याः सबर्दुघाया उस्रियायाः शुचि पयो रेक्णो धनं चायजन्तेव त्वमेतान् सततं सेवस्व कदाचिन्मा हिन्धि ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (तुभ्यम्) (पयः) दुग्धम् (यत्) यस्मै (पितरौ) जननीजनकौ (अनीताम्) प्रापयेताम् (राधः) संसिद्धिकरं धनम् (सुरेतः) शोभनं रेतो वीर्य्यं यस्मात्तत् (तुरणे) दुग्धादिपानार्थं त्वरमाणाय। अत्र तुरण धातोः क्विप्। (भुरण्यू) धारणपोषणकर्त्तारौ (शुचि) पवित्रं शुद्धिकारकम् (यत्) यस्मै (ते) तुभ्यम् (रेक्णः) प्रशस्तं धनमिव (आ) (अयजन्त) ददतु (सबर्दुघायाः) समानं सुखं बिभर्त्ति येन दुग्धेन तत्सबस्तद् दोग्धि तस्याः। अत्र समानोपपदाद् भृञ्धातोर्विच् वर्णव्यत्ययेन भस्य वः। (पयः) पातुमर्हम् (उस्रियायाः) धेनोर्गोः ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    मनुष्या यथा मातापितृविदुषा सेवनेन धर्मेण सुखमाप्नुयुस्तथैव गवादीनां रक्षणेन धर्मेण सुखमाप्नुयुः। एतेषामप्रियाचरणं कदाचिन्न कुर्युः कुत एते सर्वस्योपकारकाः सन्त्यतः ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे सज्जन ! (यत्) जिस (तुरणे) दूध आदि पदार्थ के पीने को जल्दी करते हुए (तुभ्यम्) तेरे लिये (भुरण्यु) धारण और पुष्टि करनेवाले (पितरौ) माता-पिता (सुरेतः) जिससे उत्तम वीर्य उत्पन्न होता उस (पयः) दूध और (राधः) उत्तम सिद्धि करनेवाले धन की (अनीताम्) प्राप्ति करावें और जैसे (यत्) दूध आदि के पीने को जल्दी करते हुए जिस (ते) तेरे लिये दयालु गौ आदि पशुओं को राखनेवाले मनुष्य (सबर्दुघायाः) जिससे एकसा सुख धारण करना होता है, उस दूध को पूरा करनेहारी (उस्रियायाः) उत्तम पुष्टि देती हुई गौ के (शुचि) शुद्ध पवित्र (पयः) पीने योग्य दूध को (रेक्णः) प्रशंसित धन के समान (आ, अयजन्त) भली-भाँति देवें, वैसे उन मनुष्यों की तूँ निरन्तर सेवा कर और उनके उपकार को कभी मत तोड़ ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    मनुष्य लोग जैसे माता-पिता और विद्वानों की सेवा से धर्म के साथ सुखों की प्राप्त होवें, वैसे ही गौ आदि पशुओं की रक्षा से धर्म के साथ सुख पावें। इनके मन के विरुद्ध आचरण को कभी न करें क्योंकि ये सबका उपकार करनेवाले प्राणी हैं, इससे ॥ ५ ॥

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    विषय

    राधः - सुरेतः - ज्ञानसम्पत्ति व शक्ति

    पदार्थ

    १. (पितरौ) = द्युलोकरूप पिता तथा पृथिवीलोकरूप माता (तुभ्यम्) = तेरे लिए (यत्) = जो (पयः) आप्यायन है - वृद्धि है, उसे (आनीताम्) = प्राप्त कराते हैं । द्युलोक, अर्थात् मस्तिष्क तुझे (राधः) ज्ञानरूप सम्पत्ति प्राप्त कराता है तो यह शरीररूप पृथिवी तुझे (सुरेतः) उत्तम शक्ति प्राप्त कराती है । ज्ञान के द्वारा ये (तुरणे) = काम - क्रोधादि शत्रुओं का संहार करनेवाले होते हैं और (सुरेतस्) = उत्तम शक्ति के द्वारा ये (भुरण्यू) = शरीर का उत्तम पोषण करते हैं । २. इस प्रकार द्यु व पृथिवीलोकरूप पिता - माता जिनका ठीक से पोषण करते हैं (ते) = वे (यत् शुचि रेक्णः) जो पवित्र धन है, उसे (आयजन्त) = अपने साथ संगत करते हैं । यह अर्थ की शुचिता इन्हें वास्तविक रूप में शुचि बनाती है । पवित्र धन के साथ ये (सबर्दुघायाः) ज्ञानदुग्ध का दोहन करनेवाली (उस्त्रियायाः) = वेदवाणीरूप धेनु के (पयः) = ज्ञानदुग्ध को अपने साथ संगत करते हैं । वेदवाणीरूप गौ इन्हें अपने ज्ञानदुग्ध से पुष्ट करती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - द्युलोक व पृथिवीलोक की अनुकूलता से हमें ज्ञान व शक्ति प्राप्त हो । हम पवित्र धन का ही अर्जन करें और ज्ञानदुग्ध का पान करने के लिए यत्नशील हों ।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति।

    भावार्थ

    ( यत् ) जिस प्रकार ( भुरण्यू ) भरण पोषण करने वाले ( पितरौ ) माता पिता ( तुरणे ) जल्दी मचाने वाले, अधीर बालक के लिये ( सुरेतः ) उत्तम वीर्योत्पादक ( पयः ) दूध और ( राधः ) धन ( अनीताम् ) प्राप्त कराते हैं, अथवा माता पिता जिस प्रकार बालक को ( सुरेतः ) उत्तम जल और ( पयः ) पुष्टिकारक अन्न और ( राधः ) धन प्रदान करते हैं उसी प्रकार हे राजन् ( पितरौ ) राष्ट्र के पालक मां बाप के समान राजा-प्रजावर्ग या सभाध्यक्ष और सेनाध्यक्ष ( भुरण्यू ) राष्ट्र और तेरे भरण पोषण करने में समर्थ होकर ( तुरणे ) अति क्षिप्रकारी और शत्रुओं के नाश करने में समर्थ ( तुभ्यम् ) तुझ राजा की पुष्टि के लिये ( सुरेतः ) उत्तम जल से युक्त ( पयः ) पुष्टिकारक अन्न और ( सुरेतः पयः ) वीर्यवर्धक दुग्ध और ( राधः ) धनैश्वर्यं ( अनीताम् ) प्राप्त करावें । और ( यत् ) जिस प्रकार गो-पालक या विद्वान् जन ( सबर्दुघायाः ) सर्वपोषक, दूध देने वाली ( उस्त्रियायाः ) गौ के ( शुचिपयः) शुद्ध, पवित्र दूध को ( आ अयजन्त ) सब तरफ़ से ले लेते हैं और उससे यज्ञ करते हैं उसी प्रकार वे विद्वान् जन ( सबर्दुघायाः ) समस्त प्रजा को समान रूप से भरण पोषण करनेवाले अन्न को दोहन करनेवाली ( उस्त्रियायाः ) मातृ-भूमि के ( पयः ) पुष्टिकारक अन्न के समान ( शुचि रेक्णः ) शुद्ध ईमानदारी से प्राप्त धन को ( ते ) तेरे हित के लिये ( आ अयजन्त ) स्वीकार करें, प्राप्त करें, तुझे प्रदान करें। इति चतुर्विंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ओषिजः कक्षीवानृषिः॥ विश्वेदेवा इन्द्रश्च देवता॥ छन्दः– १, ७, १३ भुरिक् पंक्तिः॥ २, ८, १० त्रिष्टुप् ।। ३, ४, ६, १२, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसे जेव्हा माता-पिता व विद्वानांची धर्मयुक्त बनून सेवा करतात तसेच गाई इत्यादी पशूंचे रक्षण करून धर्माने सुख प्राप्त करतात. त्यांच्याबाबतीत कधी अप्रिय आचरण करू नये. कारण ते सर्वांवर उपकार करणारे आहेत. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O man, when for your sake yajnic people offer oblations of pure milk and ghrta of the all-blessing cow as the wealth of their choice, then for you, O living and vibrant humanity, the brilliant heaven and earth, both generous givers of health and nourishment like mother and father, bring you showers of rain full of virility, fertility and all round success and fulfilment.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O good man. thou should always serve the parents who are thy protectors and who give thee that art quick in act, nutritious and invigorating milk and wealth. Thou should also serve those kind protectors of the cows that bring to thee the pure milk of the Milch cow which is like admirable wealth.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (राध:) संसिद्धिकरं धनम् = Wealth which helps in the accomplishment of many tasks. (राध-संसिद्धौ राध इति धननाम (निघ० २.१० ) Tr. (रेक्य:) प्रशस्तं धनमिव = Like good or admirable wealth. रेक्याइति धननाम (निघ० २.१०)। २ (सबर्दघाया: | समान सुखं बिभर्ति येन दुग्धेन तत् सव: तद् दोग्धि तस्याः अत्र समानोपपदादभृण धातोर्विच् वर्णव्यत्ययेन भस्य बः ) = Of the milch-cow.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As men enjoy happiness by serving their parents and scholars, and acting righteously, in the same manner, they get happiness by protecting the cattle, which is their duty. Men should not do anything that is disagreeable to them (Parents and good scholars and the cows etc.) for, they are benevolent to all.

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