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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 124 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 124/ मन्त्र 12
    ऋषिः - कक्षीवान् दैर्घतमसः औशिजः देवता - उषाः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उत्ते॒ वय॑श्चिद्वस॒तेर॑पप्त॒न्नर॑श्च॒ ये पि॑तु॒भाजो॒ व्यु॑ष्टौ। अ॒मा स॒ते व॑हसि॒ भूरि॑ वा॒ममुषो॑ देवि दा॒शुषे॒ मर्त्या॑य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । ते॒ । वयः॑ । चि॒त् । व॒स॒तेः । अ॒प॒प्त॒न् । नरः॑ । च॒ । ये । पि॒तु॒ऽभाजः॑ । विऽउ॑ष्टौ । अ॒मा । स॒ते । व॒ह॒सि॒ । भूरि॑ । वा॒मम् । उषः॑ । दे॒वि॒ । दा॒शुषे॑ । मर्त्या॑य ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्ते वयश्चिद्वसतेरपप्तन्नरश्च ये पितुभाजो व्युष्टौ। अमा सते वहसि भूरि वाममुषो देवि दाशुषे मर्त्याय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्। ते। वयः। चित्। वसतेः। अपप्तन्। नरः। च। ये। पितुऽभाजः। विऽउष्टौ। अमा। सते। वहसि। भूरि। वामम्। उषः। देवि। दाशुषे। मर्त्याय ॥ १.१२४.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 124; मन्त्र » 12
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे नरो ये पितुभाजो यूयं चिद् यथा वयो वसतेरुदपप्तन् तथा व्युष्टावमा सते भवत। हे उषर्वद्देवि स्त्रि या त्वं च दाशुषे मर्त्यायामासते भूरि वामं वहसि तस्यै ते तुभ्यमेतत्पतिरपि वहतु ॥ १२ ॥

    पदार्थः

    (उत्) (ते) तुभ्यम् (वयः) (चित्) अपि (वसतेः) निवासात् (अपप्तन्) पतन्ति (नरः) मनुष्याः (च) (ये) (पितुभाजः) अन्नस्य विभाजकाः (व्युष्टौ) विशिष्टे निवासे (अमा) समीपस्थगृहाय (सते) वर्त्तमानाय (वहसि) (भूरि) बहु (वामम्) प्रशस्यम् (उषः) उषर्वद्विद्याप्रकाशयुक्ते (देवि) दात्रि (दाशुषे) दात्रे (मर्त्याय) नराय पतये ॥ १२ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा पक्षिण उपर्य्यधो गच्छन्ति तथोषा रात्रिदिनयोरुपर्य्यधो गच्छति, यथा स्त्री पत्युः प्रियाचरणं कुर्य्यात्तथैव पतिरपि करोतु ॥ १२ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (नरः) मनुष्यो ! (ये) जो (पितुभाजः) अन्न का विभाग करनेवाले तुम लोग (चित्) भी जैसे (वयः) अवस्था को (वसतेः) वसीति से (उत् अपप्तन्) उत्तमता के साथ प्राप्त होते वैसे ही (व्युष्टौ) विशेष निवास में (अमा) समीप के घर वा (सते) वर्त्तमान व्यवहार के लिये होओ और हे (उषः) प्रातःसमय के प्रकाश के समान विद्याप्रकाशयुक्त (देवि) उत्तम व्यवहार की देनेवाली स्त्री ! जो तूँ (च) भी (दाशुषे) देनेवाले (मर्त्याय) अपने पति के लिये तथा समीप के घर और वर्त्तमान व्यवहार के लिये (भूरि) बहुत (वामम्) प्रशंसनीय व्यवहार की (वहसि) प्राप्ति करती, उस (ते) तेरे लिये उक्त व्यवहार की प्राप्ति तेरा पति भी करे ॥ १२ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे पखेरू ऊपर और नीचे जाते हैं, वैसे प्रातःसमय की वेला रात्रि और दिन के ऊपर और नीचे जाती है तथा जैसे स्त्री पति के प्रियाचरण को करे, वैसे ही पति भी स्त्री के प्यारे आचरण को करे ॥ १२ ॥

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    विषय

    प्रभुस्मरणपूर्वक कार्यों में प्रवृत्ति

    पदार्थ

    १. हे उषे! (ते व्युष्टौ) = तेरे निकलने पर, तेरे द्वारा अन्धकार के दूर किये जाने पर (वयः चित्) = पक्षी भी (वसतेः) = अपने निवास - स्थानभूत घोंसलों से (उत् अपप्तन्) = निकलकर [उत् - out] उड़ने लगते हैं (च) = और (ये) = जो (पितुभाजः) = अन्नादि की प्राति के लिए विविध कार्यों का सेवन करनेवाले (नरः) = मनुष्य हैं, वे भी अपने घरों से बाहर निकल पड़ते हैं; विविध कार्यों में प्रवृत्त होने के लिए उन-उन स्थानों की ओर चल देते हैं । २. हे देवि (उषः) = प्रकाशमय उषे! तू (अमा सते) = सदा प्रभु के साथ निवास करनेवाले सत्पुरुष के लिए प्रभुस्मरणपूर्वक कार्यों को करनेवाले के लिए (भूरि) = पालन-पोषण के लिए पर्याप्त (वामम्) = सुन्दर धन को (वहसि) = प्राप्त कराती है । (दाशुषे) = देने की वृत्तिवाले (मर्त्याय) = मनुष्य के लिए तू सुन्दर धन देती है । प्रभुभक्त पुरुषार्थ करता हुआ उस धन को प्राप्त करता है जो धन [क] पालन-पोषण के लिए पर्याप्त [भूरि] होता है, [ख] जो उत्तम साधनों से कमाया जाने के कारण उसके जीवन को सुन्दर [वामम्] बनाता है तथा [ग] जो धन-दानादि उत्तम कार्यों में विनियुक्त होता है [दाशुषे] । प्रभु से दूर रहनेवाला टेढ़े-मेढ़े साधनों से खूब धन जुटाता है । यह धन उसे विलास व विनाश की ओर ले जाता है, उसके जीवन को विकृत कर देता है और यह धन यज्ञ आदि में विनियुक्त नहीं होता ।

    भावार्थ

    भावार्थ - उषा के होते ही सब अपने-अपने कार्यों में प्रवृत्त होते हैं । प्रभुस्मरण करनेवाले पालन-पोषण के लिए पर्याप्त, सुन्दर व दान में विनियुक्त होनेवाले धन को प्राप्त करके 'देव' बनते हैं।

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    विषय

    पक्षान्तर में सेना और योगज विशोका का दिग्दर्शन ।

    भावार्थ

    हे ( उषः ) प्रभातवेले ! उषः ! ( ते व्युष्टौ ) तेरे विशेष रूप से प्रकट हो जाने पर प्रभात काल में (वयः चित्) जिस प्रकार पक्षीगण ( वसतेः ) अपने निवास के घोंसले से ( उत् अपप्तन् ) उड़ जाते हैं उसी प्रकार ये ( पितुभाजः नरः ) अन्नादि को प्राप्त करने वाले, कृषि आदि करने वाले जन हैं वे भी कृषि के उत्तम फल की कामना से ही आहार भोजी पक्षियों के समान हो ( वसतेः उत् अपप्तन् ) अपने अपने घर से बाहर चले जाते हैं । हे उषः ! प्रभातवेले ( अमा सते ) साथ रहने वाले ( मर्त्याय दाशुषे ) दानशील सूर्य को ( भूरि वामम् वहसि ) तू बहुत उत्तम ऐश्वर्य धारण कराती है। उसी प्रकार हे ( उषः देवि ) हे कमनीय गुणों से युक्त ! कान्तियुक्त देवि ! नववधू स्त्रि । ( ते व्युष्टौ ) तेरे विशेष रूप से गृहमें बस जाने पर ( ये पितु भाजः नरः ) जो अन्न आदि पालन सामार्थ्यों को धारण करते हैं वे ( व्युष्ट वयः चित् ) प्रातः वेलामें घोसलोंसे उड़ते पक्षियों के समान ( उत् अपप्तन् ) उन्नत पद को प्राप्त हों । और हे ( देवि ) देवि ! पति की कामना करने और उसको सुख देने हारी, उत्तम गुणों से युक्त विदुषि कन्ये ! ( अमत सते ) अपने साथ, या एक गृहमें रहने वाले ( दाशुषे ) अन्न वस्त्र तथा मान आदर एवं सर्वस्व समर्पण करनेवाले (मर्त्याय) अपने पुरुष को तु भी (भूरि वामम्) बहुत अधिक, प्रचुर भोग्य ऐश्वर्य, सुख ( वहसि ) प्राप्त करा ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कक्षीवान्दैर्घतमस ऋषिः ॥ उषो देवता ॥ छन्दः- १, ३, ६, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ७, ११ त्रिष्टुप् । १२ विराट् त्रिष्टुप् । २, १३ भुरिक् पङ्क्तिः । ५ पङ्क्तिः । ८ विराट् पङ्क्तिश्च ॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे पक्षी वर-खाली उडतात तशी प्रातःकाळची वेळ रात्र व दिवसाच्या वर-खाली जाते. जी स्त्री पतीबरोबर प्रियाचरण करते तसेच तिच्या पतीनेही तिच्याबरोबर करावे. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Dawn, as you rise and shine, birds fly up from their nests and men move out in pursuit of food and sustenance for life. Brilliant lady of piety and sanctity, for the man of generosity and for the inmate of the home you strive to bear the holiest labours of love and joy.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O enlightened woman who art like the Dawn at whose rising, the birds fly forth from their resting places and men who have to earn their bread and distribute it, quit their homes Thou bringest much good to thy liberal husband who dwells at home with thee and let thy husband also bring happiness and joy to thee.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (उषा) उषर्वद् विद्याप्रकाशयुक्ते = O woman shining with the light of knowledge like the Dawn. (पितुभाज:) अन्नस्य विभाजका: = Distributors of food. (अमा) समीपस्थगृहाय = For the home or dwelling. (वामम्) प्रशस्यम् = Admirable or good.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the birds go up and down in the space, so does the Dawn go up and down at day and night respectively. As the wife should always do good to her husband, so the husband. also should do lovingly.

    Translator's Notes

    पितुरित्यन्न नाम (निघ० २.७ ) अमेति गृहनाम (निघ० ३.४ ) वाम इति प्रशस्यनाम (निघ० ३.८)

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