ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 124/ मन्त्र 8
ऋषिः - कक्षीवान् दैर्घतमसः औशिजः
देवता - उषाः
छन्दः - विराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
स्वसा॒ स्वस्रे॒ ज्याय॑स्यै॒ योनि॑मारै॒गपै॑त्यस्याः प्रति॒चक्ष्ये॑व। व्यु॒च्छन्ती॑ र॒श्मिभि॒: सूर्य॑स्या॒ञ्ज्य॑ङ्क्ते समन॒गा इ॑व॒ व्राः ॥
स्वर सहित पद पाठखसा॑ । स्वस्रे॑ । ज्याय॑स्यै । योनि॑म् । अ॒रै॒क् । अप॑ । ए॒ति॒ । अ॒स्याः॒ । प्र॒ति॒ऽचक्ष्य॑ऽइव । वि॒ऽउ॒च्छन्ती॑ । र॒श्मिऽभिः॑ । सूर्य॑स्य । अ॒ञ्जि । अ॒ङ्क्ते॒ । स॒म॒न॒गाःऽइ॑व । व्राः ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वसा स्वस्रे ज्यायस्यै योनिमारैगपैत्यस्याः प्रतिचक्ष्येव। व्युच्छन्ती रश्मिभि: सूर्यस्याञ्ज्यङ्क्ते समनगा इव व्राः ॥
स्वर रहित पद पाठस्वसा। स्वस्रे। ज्यायस्यै। योनिम्। अरैक्। अप। एति। अस्याः। प्रतिऽचक्ष्यऽइव। विऽउच्छन्ती। रश्मिऽभिः। सूर्यस्य। अञ्जि। अङ्क्ते। समनगाःऽइव। व्राः ॥ १.१२४.८
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 124; मन्त्र » 8
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे कन्ये यथा व्युच्छन्ती व्रा उषाः सूर्यस्य रश्मिभिः सहाञ्जि समनगाइवाङ्क्ते यथा वा स्वसा ज्यायस्यै स्वस्रे योनिमारैगस्या वर्त्तमानं प्रतिचक्ष्येवापैति विवाहाय दूरं गच्छति तथा त्वं भव ॥ ८ ॥
पदार्थः
(स्वसा) भगिनी (स्वस्रे) भगिन्यै (ज्यायस्यै) ज्येष्ठायै (योनिम्) गृहम् (अरैक्) अतिरिणक्ति (अप) (एति) दूरं गच्छति (अस्याः) भगिन्याः (प्रतिचक्ष्येव) प्रत्यक्षं दृष्ट्वेव (व्युच्छन्ती) तमो विवासयन्ती (रश्मिभिः) किरणैः सह (सूर्यस्य) सवितुः (अञ्जि) व्यक्तं रूपम्, (अङ्क्ते) प्रकाशयति (समनगाइव) समनमवधारितं स्थानं गच्छन्तीव (व्राः) या वृणोति ॥ ८ ॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। कनिष्ठा भगिनी ज्येष्ठाया वर्त्तमानं वृत्तं विज्ञाय स्वयंवराय दूरेऽपि स्थितं योग्यं पतिं गृह्णीयात्। यथा शान्ताः पतिव्रताः स्त्रियः स्वं स्वं पतिं सेवन्ते तथा स्वं पतिं सेवेत यथा च सूर्यः स्वकान्त्या कान्तिः सूर्येण च सह नित्यमानुकूल्येन वर्त्तेत तथैव स्त्रीपुरुषौ स्याताम् ॥ ८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे कन्या ! जैसे (व्युच्छन्ती) अन्धकार का निवारण करती हुई (व्राः) पदार्थों को स्वीकार करनेवाली प्रातःसमय की वेला (सूर्यस्य) सूर्यमण्डल की (रश्मिभिः) किरणों के साथ (अञ्जि) प्रसिद्ध रूप को (समनगाइव) निश्चय किये स्थान को जानेवाली स्त्री के समान (अङ्क्ते) प्रकाश करती है वा जैसे (स्वसा) बहिन (ज्यायस्यै) जेठी (स्वस्रे) बहिन के लिये (योनिम्) अपने स्थान को (अरैक्) छोड़ती अर्थात् उत्थान देती तथा (अस्याः) इस अपनी बहिन के वर्त्तमान हाल को (प्रतिचक्ष्येव) प्रत्यक्ष देख के जैसे वैसे विवाह के लिये (अपैति) दूर जाती है, वैसी तूँ हो ॥ ८ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। छोटी बहिन जेठी बहिन के वर्त्तमान हाल को जान आप स्वयंवर विवाह के लिये दूर भी ठहरे हुए अपने अनुकूल पति का ग्रहण करे, जैसे शान्त पतिव्रता स्त्री अपने अपने पति को सेवन करती है, वैसे अपने पति का सेवन करे, जैसे सूर्य अपनी कान्ति के साथ और कान्ति सूर्य के साथ नित्य अनुकूलता से वर्त्ते, वैसे ही स्त्री-पुरुष हों ॥ ८ ॥
विषय
रात्रि का उषा के लिए स्थान रिक्त करना
पदार्थ
१. एक ही अन्तरिक्ष में उत्पन्न होने से रात्रि और उषा बहिनें हैं । इनमें उषा से दिन के आरम्भ होने के कारण उषा को ज्येष्ठ बहिन कहा गया है [प्रातः - उषा, अहन् - सायं, रात्रि] । यही तो चौबीस घण्टों का क्रम है । इनमें (स्वसा) = छोटी बहिन अर्थात् रात्रि (ज्यायस्यै स्वस्त्रे) = अपनी बड़ी बहिन उषा के लिए (योनिम्) = स्थान को (आरक्) = खाली कर देती है । उषा के आते ही रात्रि चली जाती है, मानो रात्रि उषा के लिए स्थान खाली कर देती है । (अस्याः) = इस उषा को (प्रतिचक्ष्य इव) = देख व जानकर ही (अप एति) = वह रात्रि दूर चली जाती है । बड़ी के आ जाने पर छोटी का वहाँ पड़े रहना ठीक भी तो नहीं । २. यह उषा (व्युच्छन्ती) = अन्धकार को दूर करती हुई (सूर्यस्य रश्मिभिः) = सूर्य की रश्मियों से (अञ्जि अङ्क्ते) = इस व्यक्त जगत् को प्रकाशित अलंकृत करती है । रात्रि के समय यह सारा संसार 'तमोभूत, अप्रज्ञात व अलक्षण' - सा हो रहा था । उषा के आते ही अन्धकार दूर होता है, यह जगत् व्यक्त - सा होने लगता है और थोड़ी देर में सूर्य - प्रकाश से अलंकृत हो उठता है तथा प्रत्येक वस्तु अपने लक्षणों से लक्षित होने लगती है । ३. अब ये (व्राः) = आकाश को आच्छादित करनेवाली [वृ - आच्छादने] सूर्यकिरणें (समनगाः इव) = [सम्, अन्, गा] सम्यक् अनन-प्राणन के लिए ही मानो गतिशील होती हैं । सब लोग प्राणशक्ति-सम्पन्न होकर अपने-अपने व्यापारों में प्रवृत्त होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - उषा आती है । रात्रि इसके लिए स्थान रिक्त कर देती है । उषा जगत् को प्रकाश से अलंकृत कर देती है ।
विषय
पक्षान्तर में सेना और योगज विशोका का दिग्दर्शन ।
भावार्थ
उषा, प्रभातवेला जिस प्रकार ( सूर्यस्य रश्मिभिः ) सूर्य की करणों से स्वयं (वि उच्छन्ती) प्रकट करती हुई (अञ्जि अंङ्क्ते) अपने उज्ज्वल रूपको प्रकट करती है। और ( स्वसा ) रात्रि जिस प्रकार ( ज्यायस्यै स्वस्त्रे ) अपनी बड़ी बहिन उषा के लिये ( योनिम्, आरैक् ) अपना स्थान आदर से प्रदान करती है और ( अस्याः ) उसको ( प्रतिचक्ष्य इव ) याख्यान सा करती हुई (अप एति) दूर चली जाती है इसो प्रकार नव वधू ( सूर्यस्य रश्मिभः व्युच्छन्ती ) सूर्य के समान तेजस्वी पति के उत्तम गुणों से प्रकट होती हुई अपने ( अञ्जि अंङ्क्ते ) सुन्दर रूप को प्रकट करे। शौर ( स्वसा ) बहिन ( ज्यायस्वै स्वस्त्रे ) बड़ी बहिन के लिए ( योनिम् आरेक ) स्थान रिक्त करे। आदर से उसे अपना स्थान दे । (तस्याः) उसके हित के लिये ( प्रतिचक्ष्य इत्र) अपने इष्टको मानो त्यागती हुई ( अप एति ) आप स्वयं दूर हट जाय । और ( समनगाः व्राः इव ) संग्राम में जाने वाली सेनाओं के समान अथवा ( समनगाः ) स्वयंवर के लिये सभास्थल में आने वाली ( व्राः ) वरवर्णिनी कन्याओं के समान ( अंञ्जि अंङ्क्ते ) अपने उज्ज्वल रूप को प्रकट करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कक्षीवान्दैर्घतमस ऋषिः ॥ उषो देवता ॥ छन्दः- १, ३, ६, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ७, ११ त्रिष्टुप् । १२ विराट् त्रिष्टुप् । २, १३ भुरिक् पङ्क्तिः । ५ पङ्क्तिः । ८ विराट् पङ्क्तिश्च ॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. कनिष्ठ भगिनीने ज्येष्ठ भगिनीचे वर्तमान जाणावे व स्वयंवर विवाहासाठी दूर असलेल्या आपल्या अनुकूल पतीला स्वीकारावे. जशी शांत पतिव्रता स्त्री आपल्या पतीचा स्वीकार करते तसा आपल्या पतीचा स्वीकार करावा. जसा सूर्य स्वतःच्या प्रभेसह व प्रभा सूर्यासह नित्य वसते तसे स्त्री-पुरुषांनी एकमेकाच्या अनुकूल वागावे. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Just as a sister surrenders her place for her elder sister and having seen her vacates it for her and goes away, so does the dawn, with the rays of the sun, move her soothing brilliance from one place to another, of her own choice.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O girl, as the Usha (Dawn) dispersing darkness with the rays of the sun, illumines the world like congregated lightnings, or as a younger sister gives room to her elder sister and departs from there, in the same manner thou shouldst go to a distant place for marriage. (Marriage of the parties related to each other and living near is not sanctioned. It leads to undesirable results.)
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(व्युच्छन्ती) तमो विवासयन्ती = Dispersing darkness. (प्रतिचक्ष्येव) प्रत्यक्षं दृष्टा एव = Having seen. (अंजि) व्यक्तं रूपम् = Form. (समनगा: इव) समनम् अवधारितं स्थानं गच्छन्ती इव = Going to a settled or fixed place. (व्रा:) या वृणोति = She who chooses herself.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The younger sister should know the welfare of her elder sister and then should go for marriage to a suitable bridegroom living at a distant place. She should serve her husband, as chaste wives of peaceful and quiet disposition serve their husbands. The husband and wife should live agreeably with another, as the sun is with his luster and the luster is with the sun.
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