ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 124/ मन्त्र 7
ऋषिः - कक्षीवान् दैर्घतमसः औशिजः
देवता - उषाः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒भ्रा॒तेव॑ पुं॒स ए॑ति प्रती॒ची ग॑र्ता॒रुगि॑व स॒नये॒ धना॑नाम्। जा॒येव॒ पत्य॑ उश॒ती सु॒वासा॑ उ॒षा ह॒स्रेव॒ नि रि॑णीते॒ अप्स॑: ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भ्रा॒ताऽइ॑व । पुं॒सः । ए॒ति॒ । प्र॒ती॒ची । ग॒र्त॒ऽआ॒रुक्ऽइ॑व । स॒नये॑ । धना॑नाम् । जा॒याऽइ॑व । पत्ये॑ । उ॒श॒ती । सु॒ऽवासाः॑ । उ॒षाः । ह॒स्राऽइ॑व । नि । रि॒णी॒ते॒ । अप्सः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभ्रातेव पुंस एति प्रतीची गर्तारुगिव सनये धनानाम्। जायेव पत्य उशती सुवासा उषा हस्रेव नि रिणीते अप्स: ॥
स्वर रहित पद पाठअभ्राताऽइव। पुंसः। एति। प्रतीची। गर्तऽआरुक्ऽइव। सनये। धनानाम्। जायाऽइव। पत्ये। उशती। सुऽवासाः। उषाः। हस्राऽइव। नि। रिणीते। अप्सः ॥ १.१२४.७
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 124; मन्त्र » 7
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
इयमुषाः प्रतीची सत्यभ्रातेव पुंसो धनानां सनये गर्त्तारुगिव सर्वानेति पत्य उशती सुवासा जायेव पदार्थान् सेवते हस्रेव अप्सो निरिणीते ॥ ७ ॥
पदार्थः
(अभ्रातेव) यथाऽबन्धुस्तथा (पुंसः) पुरुषस्य (एति) प्राप्नोति (प्रतीची) प्रत्यञ्चतीति (गर्त्तारुगिव) गर्ते आरुगारोहणं गर्त्तारुक् तद्वत् (सनये) विभागाय (धनानाम्) द्रव्याणाम् (जायेव) स्त्रीव (पत्ये) स्वस्वामिने (उशती) कामयमाना (सुवासाः) शोभनानि वासांसि यस्याः सा (उषाः) (हस्रेव) हसन्तीव (नि) (रिणीते) प्राप्नोति (अप्सः) रूपम्। अप्स इति रूपना०। निघं० ३। ७। ॥ ७ ॥
भावार्थः
अत्र चत्वार उपमालङ्काराः। यथा भ्रातृरहिता कन्या स्वप्रीतं पतिं स्वयं प्राप्नोति, यथा न्यायाधीशो राजा राजपत्नीधनानां विभागाय न्यायाऽऽसनमाप्नोति, यथा प्रसन्नवदना स्त्री आनन्दितं पतिं प्राप्नोति सुरूपेण हावभावं च प्रकाशयति तथैवेयमुषा अस्तीति वेद्यम् ॥ ७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
यह (उषाः) प्रातःसमय की वेला (प्रतीची) प्रत्येक स्थान को पहुँचती हुई (अभ्रातेव) बिना भाई की कन्या जैसे (पुंसः) पुरुष को प्राप्त हो उसके समान वा जैसे (गर्त्तारुगिव) दुःखरूपी गढ़े में पड़ा हुआ जन (धनानाम्) धन आदि पदार्थों के (सनये) विभाग करने के लिये राजगृह को प्राप्त हो वैसे सब ऊँचे-नीचे पदार्थों को (एति) पहुँचती तथा (पत्ये) अपने पति के लिये (उशती) कामना करती हुई (सुवासाः) और सुन्दर वस्त्रोंवाली (जायेव) विवाहिता स्त्री के समान पदार्थों का सेवन करती और (हस्रेव) हँसती हुई स्त्री के तुल्य (अप्सः) रूप को (नि, रिणीते) निरन्तर प्राप्त होती है ॥ ७ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में चार उपमालङ्कार हैं। जैसे विना भाई की कन्या अपनी प्रीति से चाहे हुए पति को आप प्राप्त होती वा जैसे न्यायाधीश राजा, राजपत्नी और धन आदि पदार्थों के विभाग करने के लिये न्यायासन अर्थात् राजगद्दी को, जैसे हँसमुखी स्त्री आनन्दयुक्त पति को प्राप्त होती और अच्छे रूप से अपने हावभाव को प्रकाशित करती, वैसे ही यह प्रातःसमय की वेला है, यह समझना चाहिये ॥ ७ ॥
विषय
'हस्त्रा' उषा
पदार्थ
१. (अभ्राता) = बिना भाईवाली (युवति इव) = जैसी (प्रतीची पुंसः एति) = अपने पतिगृह से लौटती हुई पिता के प्रति जाती है, पिता से ही इष्ट आभूषणादि प्राप्त करती है, उसी प्रकार यह उषा भाई के न होने से पितृस्थानीय सूर्य से ही प्रकाश प्राप्त करने के लिए उपस्थित होती है । २. (इव) = जैसे कोई युवति (धनानां सनये) = अपने अंशभूत धनों को प्राप्त करने के लिए (गर्तारुक्) = [गर्तमारोहति] न्यायाधिष्ठान का आरोहण करती है, इसी प्रकार यह उषा प्रकाशरूप धन की प्राप्ति के लिए अपने पितृभूत सूर्य के गृह इस आकाश में आरूढ़ होती है [गर्त - गृह, न्यायाधिष्ठान] । ३. सूर्य से प्रकाश प्राप्त करके (सुवासाः) = प्रकाशरूप उत्तम वस्त्रवाली यह उषा (हस्त्रा इव) = हँसती हुई-सी (अप्सः) = अपने उजवलरूप को (निरिणीते) = प्राप्त करती है, हमारे प्रति प्रकाशित करती है, उसी प्रकार इव - जैसे कि उशती कामयमाना जाया - पत्नी पत्ये - पति के लिए रूप को प्रकट करती है ।
भावार्थ
भावार्थ - उषा सूर्य से प्रकाशरूप धन को प्राप्त करके अपने उज्वलरूप को हमारे लिए व्यक्त करती है ।
विषय
पक्षान्तर में सेना और योगज विशोका का दिग्दर्शन ।
भावार्थ
( अभ्राता इव ) भरण पोषणकारी भाई आदि बन्धुजनों से रहित स्त्री जिस प्रकार स्वयं ( प्रतीची ) प्रत्यक्ष में ( पुंसः इति ) अपने मन से चाहे पुरुष को प्राप्त हो जाती है उसी प्रकार यह उषा भी ( प्रतीची ) प्रत्यक्ष प्रकट होकर ( पुंसः एति ) अपने पुरुष के समान सूर्य को ही पुनः प्राप्त हो जाती है। और जिस प्रकार ( गर्त्तारुग् इव ) सभाध्यक्ष के पद पर विराजने वाला पुरुष ( धनानां सनये ) धनों, ऐश्वर्यों के न्यायानुसार विभाग करने के लिये अध्यक्ष पद पर विराजता है उसी प्रकार यह उषा भी (गर्तारुक्) आदित्य के ऊपर विराजती हुई, ऐश्वर्य रूप प्रकाशों को देने के लिये प्रकट होती है । और (पत्ये) पति की प्रसन्नता के लिये ( उशती ) कामना करती हुई ( जाया ) विवाहित स्त्री जिस प्रकार ( सुवासाः ) सुन्दर वस्त्र पहन कर अपना रूप प्रकट करती है उसी प्रकार यह उषा अपने पालक सूर्य के निमित्त अपना रूप प्रकट करती है । और ( हस्रा इव ) हंसने वाली, सुप्रसन्न वदना स्त्री जिस प्रकार (अप्सः नि रिणीते ) अपने मुख को पति के सामने प्रकट करती है उसी प्रकार यह ( उषा ) उषा अपना ( अप्सः ) रूप ( नि रिणीते ) प्रकट करती है । इस प्रकार उषा पक्ष में ये चार उपमाएं स्पष्ट होती है । ( २ ) नव वधू पक्ष में—वह ( पुं सः प्रतीची ) अपने प्रिय पुरुष पति को ( अभ्राता इव एति ) ऐसे प्राप्त हो मानो उसके अतिरिक्त दूसरा उसका भरण पोषण करने वाला कोई नहीं हैं। माता, पिता, भाई आदि के सम्पन्न होने पर भी नववधू को अपने अल्पधन पति के ही पास आना चाहिये । ( गर्तारक् इव ) रथा रोही विजिगुषु वीर जिस प्रकार धनेश्वर्य को विजय द्वारा लाभ करने के लिये उद्यत होता है उसी प्रकार वह नववधू भी ( धनानां सनये ) ऐश्वर्यों के लाभ के लिये वा धनों के देने वाले पति को प्राप्त करने के लिये मानो ( गर्तारुक् इव भवति ) रथ पर आरूढ़ हो । सूर्य की कान्ति के समान चमके । वह ( पत्ये उशती ) अपने पति के लिये कामना करती हुई ( सुवासाः ) सुन्दर वस्त्र आच्छादन पहनती हुई ( जाया इव ) सन्तान कामना करने वाली स्त्री के समान निःसंकोच होकर जावे, (हस्रा इव ) हंसती, मुसकराती हुई, प्रसन्न वदन होकर अपने ( अप्सः ) रूप को ( निरिगीते ) अच्छी प्रकार प्रकट करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कक्षीवान्दैर्घतमस ऋषिः ॥ उषो देवता ॥ छन्दः- १, ३, ६, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ७, ११ त्रिष्टुप् । १२ विराट् त्रिष्टुप् । २, १३ भुरिक् पङ्क्तिः । ५ पङ्क्तिः । ८ विराट् पङ्क्तिश्च ॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात चार उपमालंकार आहेत. जशी भ्रातृहीन कन्या आपल्या प्रेमाने अभिलषित पतीला स्वतः प्राप्त करते. न्यायाधीश, राजा, राजपत्नी व धन इत्यादींचा विभाग करण्यासाठी न्यायासन अर्थात राजसिंहासन प्राप्त करतो व जशी हसतमुख स्त्री आनंदयुक्त पतीला प्राप्त होते व सुंदर रूपाने आपले भाव प्रदर्शित करते तशीच ही प्रातःकाळची वेळ असते, हे समजले पाहिजे. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Just as a brotherless woman returns to her man, just as a man reduced to aversity goes to the court to rejoin his money, just as a wife in all her finery, loving and passionate, opens her secret charms to her husband, so does the dawn in all her splendour reveal her beauty and majesty to the world everywhere.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The Usha (Dawn) goes to the west, as a girl who has no brother goes willingly to her loving husband or as a widow ascends the hall of justice for the recovery of property or as a wife desirous to please her husband puts on becoming attire and smiling displays her charms. Dawn unmasks her beauty like a smiling and well-attired wife.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(सनये ) विभागाय = For distribution. (हस्रेव ) हसन्तीव = Like a laughing or smiling wife. (अप्स:)रूपम् अप्सइतिरूपनाम = Beautiful form. (निघ० ३.७ ) सनये has been interpreted as विभागाय as it is derived from षण-संभक्तौ अदीयमाना भर्तारमधिगच्छेद्यदि स्वयम् | नैनः किंचिदवाप्नोति, न च यं साऽधिगच्छति ॥ मनु० ९.९१ This verse of Manu smriti clearly corroborates the idea given by Rishi Dayananda in his commentary.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There are four similes given in the Mantra. (1) As a brotherless girl goes to her loving husband of her own accord, after marriage. (2)As a Magistrate ascends the seat of justice for the proper distribution of money. (3) As a cheerful and smiling wife gets a cheerful husband and displays her beauty and Joyous gestures, so is the Dawn.
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