ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 124/ मन्त्र 4
ऋषिः - कक्षीवान् दैर्घतमसः औशिजः
देवता - उषाः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
उपो॑ अदर्शि शु॒न्ध्युवो॒ न वक्षो॑ नो॒धा इ॑वा॒विर॑कृत प्रि॒याणि॑। अ॒द्म॒सन्न स॑स॒तो बो॒धय॑न्ती शश्वत्त॒मागा॒त्पुन॑रे॒युषी॑णाम् ॥
स्वर सहित पद पाठउपो॒ इति॑ । अ॒द॒र्शि॒ । शु॒न्ध्युवः॑ । न । वक्षः॑ । नो॒धाःऽइ॑व । आ॒विः । अ॒कृ॒त॒ । प्रि॒याणि॑ । अ॒द्म॒ऽसत् । न । स॒स॒तः । बो॒धय॑न्ती । श॒श्व॒त्ऽत॒मा । आ । अ॒गा॒त् । पुनः॑ । आ॒ऽई॒युषी॑णाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उपो अदर्शि शुन्ध्युवो न वक्षो नोधा इवाविरकृत प्रियाणि। अद्मसन्न ससतो बोधयन्ती शश्वत्तमागात्पुनरेयुषीणाम् ॥
स्वर रहित पद पाठउपो इति। अदर्शि। शुन्ध्युवः। न। वक्षः। नोधाःऽइव। आविः। अकृत। प्रियाणि। अद्मऽसत्। न। ससतः। बोधयन्ती। शश्वत्ऽतमा। आ। अगात्। पुनः। आऽईयुषीणाम् ॥ १.१२४.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 124; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
यथोषा वक्षः शुन्ध्युवो न प्रियाणि नोधाइवाद्मसन्न ससतो बोधयन्त्येयुषीणां शश्वत्तमा सती पुनरागादाविरकृत च साऽस्माभिरुपो अदर्शि तथाभूताः स्त्रियो वरा भवन्ति ॥ ४ ॥
पदार्थः
(उपो) सामीप्ये (अदर्शि) दृश्यते (शुन्ध्युवः) आदित्यकिरणाः। शुन्ध्युरादित्यो भवति। निरु० ४। १६। (न) उपमायाम्। निरु० १। ४। (वक्षः) प्राप्तं वस्तु। वक्ष इति पदनामसु। निघं० ४। २। (नोधा इव) यो नौति सर्वाणि शास्त्राणि तद्वत्। नुवो धुट् च। उणा० ४। २२६। अनेन नुधातोरसिप्रत्ययो धुडागमश्च (आविः) प्राकट्ये (अकृत) करोति (प्रियाणि) वचनानि (अद्मसत्) योऽद्मानि सादयति परिपचति सः (न) इव (ससतः) स्वपतः प्राणिनः (बोधयन्ती) जागारयन्ती (शश्वत्तमा) यातिशयेन सनातनी (आ) (अगात्) प्राप्नोति (पुनः) (एयुषीणाम्) समन्तादतीतानामुषसाम् ॥ ४ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्काराः। या स्त्र्युषर्वत्सूर्यवद्विद्वद्वच्च स्वापत्यानि सुशिक्षया विदुषः करोति सा सर्वैः सत्कर्त्तव्येति ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जैसे प्रभातवेला (वक्षः) पाये पदार्थ को (शुन्ध्युवः) सूर्य की किरणों के (न) समान वा (प्रियाणि) प्रिय वचनों की (नोधाइव) सब शास्त्रों की स्तुति प्रशंसा करनेवाले विद्वान् के समान वा (अद्मसत्) भोजन के पदार्थों को पकानेवाले के (न) समान (ससतः) सोते हुए प्राणियों को (बोधयन्ती) निरन्तर जगाती हुई और (एयुषीणाम्) सब ओर से व्यतीत हो गईं प्रभात वेलाओं की (शश्वत्तमा) अतीव सनातन होती हुई (पुनः) फिर (आ, अगात्) आती और (आविरकृत) संसार को प्रकाशित करती वह हम लोगों ने (उपो) समीप में (अदर्शि) देखी, वैसी स्त्री उत्तम होती है ॥ ४ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो स्त्री प्रभात वेला वा सूर्य वा विद्वान् के समान अपने सन्तानों को उत्तम शिक्षा से विद्वान् करती है, वह सबको सत्कार करने योग्य है ॥ ४ ॥
विषय
ससतो बोधयन्ती
पदार्थ
१. सारे संसार का शोधन कर देने से सूर्य 'शुन्थ्यु' कहलाता है । (शुन्ध्युवः वक्षः न) = सूर्य के वक्षःस्थल के समान यह उषा (उप उ) = समीप ही (अदर्शि) = प्रत्येक व्यक्ति से देखी जाती है । उषा क्या है? सूर्य का ही वक्षःस्थल है । सूर्य - पुत्री होने से सूर्य के हृदय से ही तो यह आविर्भूत हुई है - 'हृदयादधिजायसे' । २. (नोधा इव) = [नवनं दधातीति नोधाः] स्तवन को धारण करनेवाले के समान यह (उषा प्रियाणि) = प्रियों को (आविः अकृत) = प्रकट करती है । स्तोता जैसे प्रिय स्तोत्रों का उच्चारण करता है, उसी प्रकार यह उषा हमारे लिए 'सन्तापशून्य प्रकाश तथा जीवनशक्ति से युक्त वायु' आदि को प्रकट करती है । इस उषाकाल के समय वायुमण्डल में ओजोन गैस का प्राचुर्य होता है । यह (ओजोन प्रातः) = भ्रमणशील पुरुषों के स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त हितकर होती है । ३. (अद्मसत् न) = [अद्म-गृह] गृह में स्थित होनेवाली गृहिणी के समान (ससतः) = सोनेवालों को यह (बोधयन्ती) = जगानेवाली होती है । जैसे घर में माता सोये हुए बालकों को जागने की प्रेरणा देती है, उसी प्रकार यह उषा सोनेवालों को जगाती है, मानो उन्हें प्रेरणा देती है कि 'उत्तिष्ठत जागृत प्राप्य वरान्निबोधत' - उठो, जागो, ज्ञानियों को प्राप्त करके ज्ञान का वर्धन करो । ४. इस प्रकार पुनः (एयुषीणाम्) = फिर आगे आनेवाली उषाओं की (शश्वत्तमा आगात्) = सनातन काल से आनेवाली यह उषा आई है । यह उषा सदा से चली आ रही है और आगे आती रहेगी ।
भावार्थ
भावार्थ - सूर्य के वक्षःस्थल के समान दिखनेवाली यह उषा हमारे लिए प्रिय वस्तुओं को प्रकट करती है और माता के समान हमें जगाती हुई सदा से आ रही है ।
विषय
पक्षान्तर में सेना और योगज विशोका का दिग्दर्शन ।
भावार्थ
उषा के समान उत्तम कमनीय गुणों से युक्त शोभावती नव वधू ( उपो ) समीप ( अदर्शि ) देखी जावे। ( शुन्ध्युवः वक्षः न ) शुद्ध, विमल जल जिस प्रकार अपने अपर के तल या रूप को स्वच्छ रूप से प्रकट करते हैं और सूर्य किरण जिस प्रकार अपना शुद्ध रूप प्रकट करते हैं अथवा जिस प्रकार शुन्ध्यु नाम का जलचर, बतक, हंस आदि अपने वक्षस्थल को उत्तम रीति से प्रकट करते हैं उसी प्रकार कन्या भी अपने ( वक्षः आवि अकृत ) उत्तम रूप से वक्षःस्थल को प्रकट करें अथवा ( वक्षः ) वह अपने ‘वक्षस्’ अर्थात् गृहस्थाश्रम के भार को वहन या धारण करने के उत्तम सामर्थ्य को प्रकट करे । और (नोधाः इव प्रियाणि आविः अकृत) स्तुतिशील विद्वान् जिस प्रकार उत्तम प्रिय वचनों का प्रकाश करता है उसी प्रकार वधू भी (प्रियाणि) हृदय को प्रिय लगने वाले गुणों और वचनों का प्रकाश करे । ( अद्मसत् न ससतः बोधयन्ती ) जिस प्रकार उषा सोते हुऐ प्राणियों को जगा देती है और जिस प्रकार ( अद्मसत् ) घर में विराजने वाली माता सोते हुए बालकों को जगा देती है उसी प्रकार नववधू भी ( अद्मसत् ) गृहमें विराजे और ( ससतः ) सोते हुए अज्ञान दशा में विद्यमान बालकों को मातृगुरु हो कर ( बोधयन्ती ) जगाती हुई, ज्ञानवान् करती हुई ( ईयुषीणाम् ) अभीतक आई कुल बधुओं के बीच में ( शश्वत्तमा ) सबसे अधिक स्थिर, नित्य धर्मों का पालन करती हुई ( पुनः अगात् ) बार बार घर आवे, जावे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कक्षीवान्दैर्घतमस ऋषिः ॥ उषो देवता ॥ छन्दः- १, ३, ६, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ७, ११ त्रिष्टुप् । १२ विराट् त्रिष्टुप् । २, १३ भुरिक् पङ्क्तिः । ५ पङ्क्तिः । ८ विराट् पङ्क्तिश्च ॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी स्त्री उषा, सूर्य, विद्वानाप्रमाणे आपल्या संतानांना उत्तम शिक्षण देऊन विद्वान करते ती सर्वांनी सत्कार करण्यायोग्य असते. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The Dawn, she appears to stand so close like the treasure chest of purest sunbeams, open, radiating and revealing the dearest things like the latest versatile scholar, giving the wake-up call to the sleeping partners living and eating together. It appears as if, of all the dawns coming and rising, she is the most real and original of the Eternal that has come this morning.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The Dawn appears as the rays of the sun pervade the objects, as a great scholar who is well-versed in all Shastras utters loving or pleasant words, as a mother who cooks and feeds, awakens her sleeping children, so she comes daily as the first among those that come regularly. The women who are so i. e. regular and punctual in their habits and who give light of knowledge to the ignorant are good and admirable.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(शुन्ध्युव:) आदित्यकिरणा: शुन्ध्युरादित्यो भवति निरुक्ते. १.४) । = The rays of the sun. (वक्षः) प्राप्तबस्तु वक्ष इति पदनामसु (निघ० ४.२) (नोधा इब) यो नौति-सर्वाणिशास्त्राणि तद्वत् नुवोधुट् च (उणा ३.२२६) अनेन नुधातोरसि प्रत्ययः धुट् आगमश्च । = Like a great scholar well-versed in all Shastras.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The woman who makes her children highly educated by giving them good education, who is like the Dawn, like the Sun and a great scholar, should be respected by all.
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