ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 124/ मन्त्र 6
ऋषिः - कक्षीवान् दैर्घतमसः औशिजः
देवता - उषाः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ए॒वेदे॒षा पु॑रु॒तमा॑ दृ॒शे कं नाजा॑मिं॒ न परि॑ वृणक्ति जा॒मिम्। अ॒रे॒पसा॑ त॒न्वा॒३॒॑ शाश॑दाना॒ नार्भा॒दीष॑ते॒ न म॒हो वि॑भा॒ती ॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । इत् । ए॒षा । पु॒रु॒ऽतमा॑ । दृ॒शे । कम् । न । अजा॑मिम् । न । परि॑ । वृ॒ण॒क्ति॒ । जा॒मिम् । अ॒रे॒पसा॑ । त॒न्वा॑ । शाश॑दाना । न । अर्भा॑त् । ईष॑ते । न । म॒हः । वि॒ऽभा॒ती ॥
स्वर रहित मन्त्र
एवेदेषा पुरुतमा दृशे कं नाजामिं न परि वृणक्ति जामिम्। अरेपसा तन्वा३ शाशदाना नार्भादीषते न महो विभाती ॥
स्वर रहित पद पाठएव। इत्। एषा। पुरुऽतमा। दृशे। कम्। न। अजामिम्। न। परि। वृणक्ति। जामिम्। अरेपसा। तन्वा। शाशदाना। न। अर्भात्। ईषते। न। महः। विऽभाती ॥ १.१२४.६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 124; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
यथारेपसा तन्वा शाशदाना पुरुतमा स्त्री देशे कं सुखं पतिं न न परिवृणक्ति पतिश्च जामिं न सुखं न परित्यजति। अजामिं च परित्यजति तथैवैषोषा अभ्रादिन्महो विभाती सती स्थूलं न परिजहाति किन्तु सर्वमीषते ॥ ६ ॥
पदार्थः
(एव) (इत्) अपि (एषा) (पुरुतमा) या बहून् पदार्थान् ताम्यति काङ्क्षति सा (दृशे) द्रष्टुम् (कम्) सुखम् (न) इव (अजामिम्) अभार्य्याम् (न) इव (परि) (वृणक्ति) त्यजति (जामिम्) भार्याम् (अरेपसा) अकम्पितेन (तन्वा) शरीरेण (शाशदाना) अतीव सुन्दरी (न) निषेधे (अर्भात्) अल्पात् (ईषते) गच्छति (न) निषेधे (महः) महत् (विभाती) प्रकाशयन्ती ॥ ६ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा पतिव्रता स्त्री स्वं पतिं विहायान्यं न सङ्गच्छते यथा च स्त्रीव्रतः पुमान् स्वस्त्रीभिन्नां स्त्रियं न समवैति, विवाहितौ स्त्रीपुरुषौ यथानियमं यथासमयं सङ्गच्छेते तथैवोषा नियतं देशं समयं च विहायान्यत्र युक्ता न भवति ॥ ६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जैसे (अरेपसा) न कँपते हुए निर्भय (तन्वा) शरीर से (शाशदाना) अति सुन्दरी (पुरुतमा) बहुत पदार्थों को चाहनेवाली स्त्री (दृशे) देखने के लिये (कम्) सुख को पति के (न) समान (परि, वृणक्ति) सब ओर से (न) नहीं छोड़ती पति भी (जामिम्) अपनी स्त्री के (न) समान सुख को (न) नहीं छोड़ता और (अजामिम्) जो अपनी स्त्री नहीं उसको सब प्रकार से छोड़ता है, वैसे (एव) ही (एषा) यह प्रातःसमय की वेला (अर्भात्) थोड़े से (इत्) भी (महः) बहुत सूर्य के तेज का (विभाती) प्रकाश कराती हुई बड़े फैलते हुए सूर्य के प्रकाश को नहीं छोड़ती किन्तु समस्त को (ईषते) प्राप्त होती है ॥ ६ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे पतिव्रता स्त्री अपने पति को छोड़ और के पति का सङ्ग नहीं करती वा जैसे स्त्रीव्रत पुरुष अपनी स्त्री से भिन्न दूसरी स्त्री का सम्बन्ध नहीं करता और विवाह किये हुए स्त्रीपुरुष नियम और समय के अनुकूल सङ्ग करते हैं, वैसे ही प्रातःसमय की वेला नियमयुक्त देश और समय को छोड़ अन्यत्र युक्त नहीं होती ॥ ६ ॥
विषय
पुरुतमा उषा
पदार्थ
१. (एव) = पिछले मन्त्र में कहे प्रकार से (इत्) = निश्चयपूर्वक (एषा) = यह उषा (पुरुतमा) = अतिशयेन पालन व पूरण करनेवाली होती है । यह आराधकों को शरीर से नौरोग बनाती है तो मन के दृष्टिकोण से उन्हें न्यूनताओं से रहित करती है । यह (दृशे कम्) = सब पदार्थों के दर्शन के लिए सुख को प्राप्त कराती है, अर्थात् हमें सुखपूर्वक सब पदार्थों के दर्शन के योग्य बनाती है । यह (न) = न तो (अजामिम्) = अबन्धु को और (न जामिम्) = न ही बन्धु को (परिवृणक्ति) = इस प्रकाश प्राप्त कराने के कार्य में छोड़ती है । यह सभी को प्रकाश प्राप्त कराती है । देव इसके बन्धु हैं तो मनुष्यों के साथ बन्धुत्व न होते हुए भी यह देवलोक व इस मर्त्यलोक दोनों को समानरूप से प्रकाशित करती है । २. यह समान भाव ही इसे निर्दोष बनाता है । किसी के प्रति राग - द्वेषवाली न होती हुई यह उषा (अरेपसा) = निर्दोष (तन्वा) = शरीर से (शाशदाना) = निरन्तर गति करती हुई और (विभाती) = विशेषरूप से चमकती हुई (न अर्भात् इषते) = न छोटे - छोटे कणों से दूर होती है और (न महः) = महान् पर्वतादि से दूर होती है । जैसे छोटे - छोटे कणों को प्रकाशित करती है, उसी प्रकार महान् पर्वतों को । जैसे यह दूर और समीप के सभी देशों को प्रकाशमय करती है, उसी प्रकार कणों व पर्वतादि सभी वस्तुओं को प्रकाशित करनेवाली है ।
भावार्थ
भावार्थ - सभी को समानरूप से प्रकाश प्राप्त कराती हुई उषा निर्दोष रूपवाली है, आराधकों को भी इस समानता का पाठ पढ़ाती है ।
विषय
पक्षान्तर में सेना और योगज विशोका का दिग्दर्शन ।
भावार्थ
( एषा ) यह उषा जिस प्रकार ( पुरुतमा ) बहुत से लोकों में पूजनीय होकर ( दृशे ) सबको समस्त जगत् के प्रत्यक्ष कराने के लिये ( न अजामिं परि वृणक्ति ) न बन्धुता रहित पृथिवी आदि लोक को परि त्याग करती है और ( न जामिम् परि वृणक्ति ) न बन्धु, सूर्यादि का ही परित्याग करती है। प्रत्युत ( अरेपसा तन्वा ) मलरहित, स्वच्छ, विस्तृत प्रकाश से ( शाशदाना ) चमकती हुई ( विभाती ) उषा या प्रभात वेला ( न अर्थात् ईषते ) स्वल्प पदार्थ से भी दूर नहीं होती, ठीक इसी प्रकार (विभाती) विविध गुणों से प्रकाशित होने वाली नववधू ( एषा एव इत् ) ‘यह ही है’ ऐसी (पुरुतमा) अति अधिक जनों में सर्वश्रेष्ठ, एवं नाना ऐश्वर्यों की कामना करती हुई, (दृशे) अपने गुणों को दर्शाने के लिये (न अजामिम्) न अपने बन्धुजनों से भिन्न को वर्जती है और ( न जामिम् परिवृणक्ति ) अपने बन्धुजन को ही त्यागती है और अर्थात् वह सबके प्रति समान भाव से अपने गुणों का प्रकाश करे । वह ( अरेपसा ) पाप और मल से रहित ( तन्वा ) स्वच्छ, निर्दोष शरीर से ( शाशदाना ) अति सुन्दर रूपवती होती हुई ( अर्भात् न ईषते ) न छोटे बालक से ही पृथक् हो और ( न महः ) न बड़े तेजस्वी व्यक्ति से पृथक हो, अर्थात् छोटे बड़े सबको प्रिय लगती रहे। सब उसके साथ प्रीति बनाये रखें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कक्षीवान्दैर्घतमस ऋषिः ॥ उषो देवता ॥ छन्दः- १, ३, ६, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ७, ११ त्रिष्टुप् । १२ विराट् त्रिष्टुप् । २, १३ भुरिक् पङ्क्तिः । ५ पङ्क्तिः । ८ विराट् पङ्क्तिश्च ॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी पतिव्रता स्त्री आपल्या पतीला सोडून इतरांच्या पतीचा संग करीत नाही व जसा स्त्रीव्रती पुरुष आपल्या स्त्रीला सोडून दुसऱ्या स्त्रीशी संबंध ठेवत नाही व विवाहित स्त्री-पुरुष नियमाने व योग्यवेळी संग करतात तशीच प्रातःकाळची वेळ नियमयुक्त स्थान व वेळ सोडून इतरत्र युक्त होत नाही. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
And this dawn most comely to the sight and blissful to the heart, neither precludes her own nor excludes the aliens. Similarly, shining unique and exceptional by her immaculate body of light, she neither ignores the small nor neglects the great, but shines bright and smiles equally on all, giving them the feel of bliss.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
As a Chaste wife shining and looking charming with her spotless body, desirous of getting many useful objects, does not leave her husband who is giver of joy and as a husband does not leave his wife but refrains from the Union with other women, in the same manner, this Dawn brightly shining turneth not from the high nor from the humble. She illuminates all equally.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(पुरुतमा) या बहून् पदार्थान् ताम्यति कांक्षते वा । Desirous of many objects. (जामिम्) भार्याम् = Wife. (अजामिम) अभार्याम् = Not wife.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As a Chaste wife does not have intercourse with any one else except her husband, and as a faithful husband does not have intercourse with any one else except his wife and as the married couple join (for the sake of progeny) at the prescribed period, in the same manner, the Usha (Dawn) appears at regular and fixed time and not otherwise.
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