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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 124 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 124/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कक्षीवान् दैर्घतमसः औशिजः देवता - उषाः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    पूर्वे॒ अर्धे॒ रज॑सो अ॒प्त्यस्य॒ गवां॒ जनि॑त्र्यकृत॒ प्र के॒तुम्। व्यु॑ प्रथते वित॒रं वरी॑य॒ ओभा पृ॒णन्ती॑ पि॒त्रोरु॒पस्था॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पूर्वे॑ । अर्धे॑ । रज॑सः । अ॒प्त्यस्य॑ । गवा॑म् । जनि॑त्री । अ॒कृ॒त॒ । प्र । के॒तुम् । वि । ऊँ॒ इति॑ । प्र॒थ॒ते॒ । वि॒ऽत॒रम् । वरी॑यः । आ । उ॒भा । पृ॒णन्ती॑ । पि॒त्रोः । उ॒पऽस्था॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पूर्वे अर्धे रजसो अप्त्यस्य गवां जनित्र्यकृत प्र केतुम्। व्यु प्रथते वितरं वरीय ओभा पृणन्ती पित्रोरुपस्था ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पूर्वे। अर्धे। रजसः। अप्त्यस्य। गवाम्। जनित्री। अकृत। प्र। केतुम्। वि। ऊँ इति। प्रथते। विऽतरम्। वरीयः। आ। उभा। पृणन्ती। पित्रोः। उपऽस्था ॥ १.१२४.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 124; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    यथोषा उभा लोकौ पृणन्ती पित्रोरुपस्थासती वितरं वरीयो व्युप्रथते गवां जनित्र्यप्त्यस्य रजसः पूर्वेऽर्द्धे केतुं प्राकृत तथा वर्त्तमाना भार्य्योत्तमा भवति ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (पूर्वे) सम्मुखे वर्त्तमाने (अर्द्धे) (रजसः) लोकसमूहस्य (अप्त्यस्य) अप्तौ विस्तीर्णे संसारे भवस्य (गवाम्) किरणानाम् (जनित्री) उत्पादिका (अकृत) करोति (प्र) (केतुम्) किरणम् (वि) (उ) वितर्के (प्रथते) विस्तृणोति (वितरम्) विविधानि दुःखानि तरन्ति येन कर्मणा तत् (वरीयः) अतिशयेन वरम् (आ) (उभा) (पृणन्ती) सुखयन्ती (पित्रोः) जनकयोरिव भूमिसूर्ययोः (उपस्था) क्रोडे तिष्ठति सा ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। उषसउत्पन्नः सूर्यप्रकाशो भूगोलार्द्धे सर्वदा प्रकाशतेऽपरेऽर्द्धे रात्रिर्भवति तयोर्मध्ये सर्वदोषा विराजत एवं नैरन्तर्येण रात्र्युषर्दिनानि क्रमेण वर्त्तन्तेऽतः किमागतं यावान् भूगोलप्रदेशः सूर्यस्य संनिधौ तावति दिनं यावानसंनिधौ तावति रात्रिः। सन्ध्योरुषाश्चैवं लोकभ्रमणद्वारैतान्यपि भ्रमन्तीव दृश्यन्ते ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जैसे प्रातःसमय की वेला कन्या के तुल्य (उभा) दोनों लोकों को (पृणन्ती) सुख से पूरती और (पित्रोः) अपने माता-पिता के समान भूमि और सूर्यमण्डल की (उपस्था) गोद में ठहरी हुई (वितरम्) जिससे विविध प्रकार के दुःखों से पार होते हैं, उस (वरीयः) अत्यन्त उत्तम काम को (वि, उ, प्रथते) विशेष करके तो विस्तारती तथा (गवाम्) सूर्य की किरणों को (जनित्री) उत्पन्न करनेवाली (अप्त्यस्य) विस्तार युक्त संसार में हुए (रजसः) लोक समूह के (पूर्वे) प्रथम आगे वर्त्तमान (अर्द्धे) आधे भाग में (केतुम्) किरणों को (प्र, आ, अकृत) प्रसिद्ध करती है, वैसा वर्तमान करती हुई स्त्री उत्तम होती है ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। प्रभात वेला से प्रसिद्ध हुआ सूर्यमण्डल का प्रकाश भूगोल के आधे भाग में सब कभी उजेला करता है और आधे भाग में रात्रि होती है, उन दिन रात्रि के बीच में प्रातःसमय की वेला विराजमान है, ऐसे निरन्तर रात्रि प्रभातवेला और दिन क्रम से वर्त्तमान हैं। इससे क्या आया कि जितना पृथिवी का प्रदेश सूर्यमण्डल के आगे होता, उतने में दिन और जितना पीछे होता जाता, उतने में रात्रि होती तथा सायं और प्रातःकाल की सन्धि में उषा होती है, इसी उक्त प्रकार से लोकों के घूमने के द्वारा ये सायं प्रातःकाल भी घूमते से दिखाई देते हैं ॥ ५ ॥

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    विषय

    आधे से पूरे की और

    पदार्थ

    १. (अप्त्यस्य) = सर्वत्र प्राप्त-व्यापक (रजसः) = इस अन्तरिक्षलोक के (पूर्वे अर्धे) = पूर्व के भाग में (गवां जनित्री) = अपनी रश्मियों को प्रादुर्भूत करनेवाली यह उषा (प्रकेतुं अकृत) = प्रकृष्ट ज्ञान को प्रकट करती है । पहले-पहले पूर्व दिशा में उषा की अरुण रश्मियों उदित होती हैं और ये आकाश के उस भाग को प्रकाशमय कर देती हैं । २. (उ) = और अब यह उषा (वितरम्) = खुब ही (वरीयः) = [उरुतरम्] अनन्त विस्तार के साथ (वि प्रथते) = विशेषरूप से फैलती है । इसका प्रकाश अधिक और अधिक फैलता जाता है और कुछ ही देर बाद यह (पित्रोः) = पिता और माता के रूप में विद्यमान द्यावापृथिवी की (उभा उपस्था) = दोनों गोदों को (आ पृणन्ती) = सब ओर भर रही होती है । द्युलोक व पृथिवीलोक के मध्य को यह अपने प्रकाश से पूर्ण कर देती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - पूर्वभाग में उदित होती हुई यह उषा अपने प्रकाश को सर्वत्र फैलानेवाली होती है । अपने आराधकों को भी यही प्रेरणा देती है कि वे अपने ज्ञान-दीपक को ज्ञान-सूर्य में परिवर्तित करने के लिए यत्नशील हों ।

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    विषय

    पक्षान्तर में सेना और योगज विशोका का दिग्दर्शन ।

    भावार्थ

    ( अप्त्यस्य ) व्यापनशील ( रजसः ) अन्तरिक्ष या लोक समूह के ( पूर्वे अर्धे ) पूर्व के आधे मार्ग में उषा जिस प्रकार ( गवां जनित्री ) सूर्य की किरणों को प्रकट करती हुई ( केतुम् प्र अकृत ) ज्ञान और प्रकाश पैदा करती है और ( पित्रोः उपस्थे ) जगत् के पालक भूमि और सूर्य दोनों के बीच में स्थित हो कर ( उभा आ पृणन्ती ) दोनों को अपने प्रकाश से पूरती हुई ( वरीयः वितरं वि प्रथते उ ) श्रेष्ठ स्वरूपको विशेष रूप से प्रकट करती है उसी प्रकार उषाके समान कमनीय, शुभगुणों से युक्त नववधू भी ( अप्तयस्य ) उत्तम ज्ञान और कर्म करने में कुशल ( रजसः ) लोक समूह के ( पूर्वे ) आगे के, पूर्व विद्यमान ( अर्धे ) उत्तम पद में विराजती हुई ( जनित्री ) उत्तम सन्तानों को उत्पन्न करने वाली हो कर ( गवां केतुम् ) वेद वाणियों के ज्ञान को ( प्र अकृत ) अच्छी प्रकार प्रकट करे, तदनुकूल आचरण करे । अथवा ( अप्तयस्व रजसः ) ज्ञान और कर्म के सम्पादन करने के लिये उत्तम ( रजसः पूर्व अर्धे ) राजस युक्त यौवन के सबसे प्रथम के आधे भाग में वह ( जनित्री ) माता बनने वाली नववधू ( गवां केतुम् प्र अकृत ) वेद वाणियों के ज्ञान को भली प्रकार सम्पादन करे । और वह ( पित्रोः उपस्था ) माता पिता दोनों के समीप रहती हुई ( उभा ) दोनों को ( पृणन्ती ) प्रियाचरण से प्रसन्न करती हुई ( वरीयः ) अति श्रेष्ठ गुण को ( वितरं ) विशेष रूप से ( वि प्रथते उ ) विस्तृत करे । इति सप्तमो वर्गः।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कक्षीवान्दैर्घतमस ऋषिः ॥ उषो देवता ॥ छन्दः- १, ३, ६, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ७, ११ त्रिष्टुप् । १२ विराट् त्रिष्टुप् । २, १३ भुरिक् पङ्क्तिः । ५ पङ्क्तिः । ८ विराट् पङ्क्तिश्च ॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. प्रभात समयी उगवलेल्या सूर्यमंडळाचा प्रकाश भूगोलाच्या अर्ध्या भागात पडतो तर अर्ध्या भागात रात्र असते. त्या दिवस व रात्रीच्या मध्ये प्रातःकाळची वेळ विराजमान असते. सदैव रात्र, प्रभातकाळ व दिनक्रम असे चालू असतात. यावरून हे स्पष्ट होते की, पृथ्वीचा जेवढा भाग सूर्यमंडळासमोर येतो त्यावेळी दिवस. जितका मागे जातो तितकी रात्र होते व संध्याकाळ व प्रातःकाळच्या संधीत उषा असते. याचप्रकारे लोक (गोल) फिरल्यामुळे हे सायंकाळ व प्रातःकाळही फिरत असल्यासारखे वाटतात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Radiating the rays of light in the eastern half of the sky, the dawn has unfurled her banner of morning glory. And sitting as if in the lap of her parents, the heaven and the earth, she expands the noblest light of bliss showering on both.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Born in the eastern quarter of the spacious firmament, Usha (Dawn) displays a banner of rays of light Placed on the lap of or near both parents (heaven and earth filling them (with radiance ) she enjoys vast and wide-spread renown. A wife who behaves like the Dawn, giving the light of knowledge to all, is good and respected every where.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (रजसः) लोकसमूहस्य = Of the group of worlds. (अप्त्यस्य) आप्तौ विस्तीर्णे संसारे भवस्य = Existing in the Vast Universe. (वितरम्) विविधानि दुःखानि तरन्ति येन कर्मणा तत् = The act that enables a man to put an end to all miseries.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The light of the sun born out of the Ushas (Dawn) shines in the hemi-sphere while in the other half, there is night. Between them is the Dawn. In this way, the cycle of the night, dawn and the day goes on revolving constantly, turn, by turn. In the part of the globe which is near the "sun, there is day and in the other part which is far off from the sun, there is night and the dawn is between the two. All these also appear rotating, on account of the rotation of the worlds.

    Translator's Notes

    लोका: रजांस्युच्यन्ते (निरुक्ते ४.१९) (पित्रोः) जनकयोरिव भूमिसूर्ययोः = Of the earth and the sun which are like parents. आप्लृ-व्याप्तौ तृ-प्लवनसन्तरणयोः

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