ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 124/ मन्त्र 3
ऋषिः - कक्षीवान् दैर्घतमसः औशिजः
देवता - उषाः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ए॒षा दि॒वो दु॑हि॒ता प्रत्य॑दर्शि॒ ज्योति॒र्वसा॑ना सम॒ना पु॒रस्ता॑त्। ऋ॒तस्य॒ पन्था॒मन्वे॑ति सा॒धु प्र॑जान॒तीव॒ न दिशो॑ मिनाति ॥
स्वर सहित पद पाठए॒षा । दि॒वः । दु॒हि॒ता । प्रति॑ । अ॒द॒र्शि॒ । ज्योतिः॑ । वसा॑ना । स॒म॒ना । पु॒रस्ता॑त् । ऋ॒तस्य॑ । पन्था॑म् । अनु॑ । ए॒ति॒ । सा॒धु । प्र॒जा॒न॒तीऽइ॑व । न । दिशः॑ । मि॒ना॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एषा दिवो दुहिता प्रत्यदर्शि ज्योतिर्वसाना समना पुरस्तात्। ऋतस्य पन्थामन्वेति साधु प्रजानतीव न दिशो मिनाति ॥
स्वर रहित पद पाठएषा। दिवः। दुहिता। प्रति। अदर्शि। ज्योतिः। वसाना। समना। पुरस्तात्। ऋतस्य। पन्थाम्। अनु। एति। साधु। प्रजानतीऽइव। न। दिशः। मिनाति ॥ १.१२४.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 124; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
Acknowledgment
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
यथैवैषा ज्योतिर्वसाना समना दिवो दुहितेवास्माभिः पुरस्तात् प्रत्यदर्शि यथाऽऽप्तो वीर ऋतस्य पन्थामन्वेति साधु प्रजानतीवोषा दिशो न मिनाति तद्वद्वर्त्तमानाः स्त्रियो वराः स्युः ॥ ३ ॥
पदार्थः
(एषा) (दिवः) प्रकाशस्य (दुहिता) कन्येव (प्रति) (अदर्शि) दृश्यते (ज्योतिः) प्रकाशम् (वसाना) स्वीकुर्वती (समना) संग्रामे। अत्र सुपां स्वित्याकारादेशः। (पुरस्तात्) प्रथमतः (ऋतस्य) सत्यस्य कारणस्य (पन्थाम्) मार्गम् (अनु) (एति) (साधु) सम्यक् यथा स्यात् तथा (प्रजानतीव) यथा विज्ञानवती विदुषी (न) निषेधे (दिशः) (मिनाति) त्यजति ॥ ३ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सुनियमेन वर्त्तमाना सत्युषाः सर्वानाह्लादयति सोत्तमं स्वभावं न हिनस्ति तथा स्त्रियो गार्हस्थ्यधर्मे वर्त्तेरन् ॥ ३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जैसे ही (एषा) यह प्रातःसमय की वेला (ज्योतिः) प्रकाश को (वसाना) ग्रहण करती हुई (समना) संग्राम में (दिवः) सूर्य के प्रकाश की (दुहिता) लड़की सी हम लोगों ने (पुरस्तात्) दिन के पहिले (प्रत्यदर्शि) प्रतीति से देखी वा जैसे समस्त विद्या पढ़ा हुआ वीर जन (ऋतस्य) सत्य कारण के (पन्थाम्) मार्ग को (अन्वेति) अनुकूलता से प्राप्त होता वा (साधु) अच्छे प्रकार जैसे हो वैसे (प्रजानतीव) विशेष ज्ञानवाली विदुषी पढ़ी हुई पण्डिता स्त्री के समान प्रभात वेला (दिशः) दिशाओं को (न) नहीं (मिनाति) छोड़ती वैसे अपना वर्त्ताव वर्त्तती हुई स्त्री उत्तम हों ॥ ३ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अच्छे नियम से वर्त्तमान हुई प्रातः समय की वेला सबको आनन्दित कराती और वह अपने उत्तम स्वभाव को नहीं नष्ट करती, वैसे स्त्री लोग गिरस्ती के धर्म में वर्त्तें ॥ ३ ॥
विषय
ज्योतिर्वसाना
पदार्थ
१. (एषा) = यह उषा (दिवः दुहिता) = प्रकाश का चारों ओर पूरण करनेवाली है [दुह प्रपूरणे] । इसी रूप में यह प्रत्येक व्यक्ति से (प्रत्यदर्शि) = देखी जाती है । (ज्योतिः वसाना) = यह प्रकाश को आच्छादित करती हुई आती है । इसके आते ही सब दिशाएँ प्रकाशमय हो जाती हैं, प्रकाश करके यह उषा (समना) = सब प्राणियों के लिए सम्यक् [सम्] चेष्टयित्री [अन्] होती है । सभी इसके प्रकाश में अपने - अपने कार्य में प्रवृत्त होते हैं । २. यह उषा (पुरस्तात्) = आगे-आगे (ऋतस्य पन्थां अनु एति) = सूर्य के मार्ग का लक्ष्य करके चलती है [ऋत - सूर्य] । जिस मार्ग पर सूर्य को चलना होता है, यह उसपर उससे तीस योजन पूर्व चल रही होती है । [ऋ० १ । १२३१८] । सूर्य की भाँति निरन्तर गतिशील होती हुई यह हमें भी गति की प्रेरणा देती है । यह (साधु) = उत्तमता से (प्रजानती इव) = जानती हुई-सी (दिशः न मिनाति) = अपनी गति की दिशाओं को हिंसित नहीं करती । यह ठीक ही मार्ग पर चलती है । हमें भी इस प्रकार ठीक मार्ग पर चलने का उपदेश करती है ।
भावार्थ
भावार्थ - ऋत के मार्ग पर चलती हुई, अपने मार्ग की दिशा का हिंसन न करती हुई उषा हमें भी ठीक मार्ग पर चलने का उपदेश करती है ।
विषय
पक्षान्तर में सेना और योगज विशोका का दिग्दर्शन ।
भावार्थ
( दिवः दुहिता ) प्रकाश से जगत् को पूर्ण कर देनेवाली, या प्रकाशमान् सूर्य की कन्या के समान उषा जिस प्रकार ( प्रति अदर्शि ) प्रत्यक्ष दिखाई देती है वह ( पुरस्तात् ) सबके समक्ष वा पूर्व दिशा में ( ज्योतिः वसानः ) प्रकाश को धारण करती हुई ( ऋतस्य पन्थाम् अनु एति ) सूर्य के मार्ग पर गमन करती है और ( प्रजानती इव ) उत्तम ज्ञानवती विदुषी के समान ( दिशः न प्रमिनाति ) अन्य दिशाओं का लोप नहीं करती। उसी प्रकार (एषा) यह ( दिवः दुहिता ) ज्ञानवान् तेजस्वी पुरुष की कन्या अथवा ( दिवः दुहिता ) समस्त कामनाओं को पूर्ण करने हारी, या रमण क्रीड़ा की इच्छुक, कामनावान् पति के कामनाओं को पूर्ण करने हारी, नववधू ( समना पुरस्तात् ) एकत्र हुए जनसमूह के समक्ष ( ज्योतिः ) उज्ज्वल वस्त्र आभूषणों को ( वसाना ) धारण करती हुई ( प्रति अदर्शि ) प्रत्यक्ष देखी जावे । उसे सब कोई देखें । वह ( ऋतस्य ) सत्यज्ञानमय वेद के उपदिष्ट ( पन्थाम् ) मार्ग को ( साधु ) उत्तम रीति से ( अनु एति ) अनुगमन करे । अथवा (ऋतस्य) प्राप्त हुए सत्य व्यवहारवान् पति के मार्ग का उत्तम रीति से अनुसरण करे । और ( प्रजानती इव ) उत्तम रीति से ज्ञान प्राप्त करती हुई विदुषी होकर ( दिशः ) गुरु जनों के आदेशों को और उपदेष्टा मान्यपुरुषों को ( न मिनाति ) नाश न करे उनको कष्ट न दे और उनके दिये सदुपदेशों का लोप न करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कक्षीवान्दैर्घतमस ऋषिः ॥ उषो देवता ॥ छन्दः- १, ३, ६, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ७, ११ त्रिष्टुप् । १२ विराट् त्रिष्टुप् । २, १३ भुरिक् पङ्क्तिः । ५ पङ्क्तिः । ८ विराट् पङ्क्तिश्च ॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. नियमित असलेली उषा सर्वांना आनंदित करते व आपला उत्तम स्वभाव नष्ट करीत नाही तसे स्त्रियांनी गृहस्थाश्रमात वागावे. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Yonder shines this daughter of heaven clothed in light, rejoicing at heart, following the path of nature’s law well like a lady of omniscience measuring as if but not overstepping the bounds of space.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
As the Dawn that is like the daughter of light, gracious and arranged in garments of light is beheld in the east, so should be a woman, full of the light of knowledge and having a learned father and mother. She should be of one accord with her husband. As the dawn does not violate the path of the sun, so a noble lady should never transgress the injunctions of the Vedas containing absolute Truth, but should follow them well like a learned lady, well-versed in the Holy Scriptures known as the Vedas. Such noble and learned ladies are respected and admired everywhere.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(दिव:) प्रकाशस्य = Of the light. (समनां) संग्रामे = In the battle of life. अत्र सुपां सुलुक इत्यकारादेशः (समत्सु इति संग्रामनाम ) (निघ० २.१७ ) Tr.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the Usha (dawn) gladdens all following the God ordained order, and does not give up her good temperament, so should all ladies be in domestic life.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal