ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 141/ मन्त्र 12
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
उ॒त न॑: सु॒द्योत्मा॑ जी॒राश्वो॒ होता॑ म॒न्द्रः शृ॑णवच्च॒न्द्रर॑थः। स नो॑ नेष॒न्नेष॑तमै॒रमू॑रो॒ऽग्निर्वा॒मं सु॑वि॒तं वस्यो॒ अच्छ॑ ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । नः॒ । सु॒ऽद्योत्मा॑ । जी॒रअ॑श्वः । होता॑ । म॒न्द्रः । शृ॒ण॒व॒त् । च॒न्द्रऽर॑थः । सः । नः॒ । ने॒ष॒त् । नेष॑ऽतमैः । अमू॑रः । अ॒ग्निः । वा॒मम् । सु॒ऽवि॒तम् । वस्यः॑ । अच्छ॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत न: सुद्योत्मा जीराश्वो होता मन्द्रः शृणवच्चन्द्ररथः। स नो नेषन्नेषतमैरमूरोऽग्निर्वामं सुवितं वस्यो अच्छ ॥
स्वर रहित पद पाठउत। नः। सुऽद्योत्मा। जीरअश्वः। होता। मन्द्रः। शृणवत्। चन्द्रऽरथः। सः। नः। नेषत्। नेषऽतमैः। अमूरः। अग्निः। वामम्। सुऽवितम्। वस्यः। अच्छ ॥ १.१४१.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 141; मन्त्र » 12
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 7
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
यो मन्द्रश्चन्द्ररथः सुद्योत्मा जीराश्वो होता नोऽस्मान् शृणवत्। उतापि योऽमूरो वस्योऽग्निरिव सुवितं वामं सुरूपं नेषतमैरच्छ नेषत् स नः प्रशंसितो भवति ॥ १२ ॥
पदार्थः
(उत) (नः) अस्मान् (सुद्योत्मा) सुष्ठुप्रकाशः (जीराश्वः) जीरा वेगवन्तो बहवोऽश्वा यस्य सः (होता) दाता (मन्द्रः) प्रशंसितः (शृणवत्) शृणुयात् (चन्द्ररथः) चन्द्रं रजतं सुवर्णं वा रथे यस्य सः (सः) (नः) अस्माकम् (नेषत्) नयेत् (नेषतमैः) अतिशयेन प्राप्तिकारकैः (अमूरः) गन्ता (अग्निः) (वामम्) सुरूपम् (सुवितम्) उत्पादितम् (वस्यः) वस्तुं योग्यः (अच्छ) सम्यक् ॥ १२ ॥
भावार्थः
यः सर्वेषां न्यायस्य श्रोता साङ्गोपाङ्गसामग्रिर्विद्याप्रकाशयुक्तः सर्वान् विद्योत्सुकान् विद्यायुक्तान् करोति स प्रकाशात्मा जायते ॥ १२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जो (मन्द्रः) प्रशंसायुक्त (चन्द्ररथः) जिसके रथ में चाँदी, सोना विद्यमान जो (सुद्योत्मा) उत्तम प्रकाशवाला (जीराश्वः) जिसके वेगवान् बहुत घोड़े वह (होता) दानशील जन (नः) हम लोगों को (शृणवत्) सुने (उत) और जो (अमूरः) गमनशील (वस्यः) निवास करने योग्य (अग्निः) अग्नि के समान प्रकाशमान जन (सुवितम्) उत्पन्न किये हुए (वामम्) अच्छे रूप को (नेषतमैः) अतीव प्राप्ति करानेवाले गुणों से (अच्छ) अच्छा (नेषत्) प्राप्त करे (सः) वह (नः) हम लोगों के बीच प्रशंसित होता है ॥ १२ ॥
भावार्थ
जो सबके न्याय का सुननेवाला साङ्गोपाङ्ग सामग्रीसहित विद्याप्रकाशयुक्त सब विद्या के उत्साहियों को विद्यायुक्त करता है, वह प्रकाशात्मा होता है ॥ १२ ॥
विषय
सन्तान की उत्तमता
पदार्थ
१. (उत) = और (न:) = हमारा सन्तान (सुद्योत्मा) = उत्तम ज्ञानज्योतिवाला, (जीराश्वः) = गतिशील इन्द्रियोंवाला, (होता) = दानपूर्वक अदन करनेवाला (मन्द्रः) = सदा प्रसन्न अन्तः करणवाला (चन्द्ररथः) = चन्द्रमा के समान उज्ज्वल शरीररूप रथवाला (शृणवत्) = माता-पिता व वृद्धों की आज्ञा सुननेवाला हो। २. इस प्रकार (सः) = वह उत्तम सन्तान (अमूर:) = विषयों में मूढ न बनता हुआ (अग्निः) = प्रगतिशील होता हुआ (नः) = हमें (वामम्) = सुन्दर (सुवितम्) = उत्तम मार्गों से प्राप्त करने योग्य (वस्यः) = निवास के साधनभूत उत्तम वसुओं [धनों] की ओर (नेषतमैः नेषत्) उत्कृष्ट मार्गों से ले चले। ३. वह सन्तान उत्तम मार्गों से धनों को प्राप्त करती हुई हमारी भी उन्नति का कारण बनती है। सन्तान का उत्तम जीवन माता-पिता के चित्त की शान्ति का कारण बनता है और उनके उत्तम निवास का हेतु होता है।
भावार्थ
भावार्थ- सन्तान स्वयं उत्तम जीवनवाली होती हुई माता-पिता की उत्तम स्थिति का कारण बने ।
विषय
वीर नायक और आत्मा का वर्णन ।
भावार्थ
आत्मा का ही वर्णन है । ( उत ) और ( सः ) वह ( नः ) हमारा ( सुद्योत्मा = सुद्यः-आत्मा अथवा सु-द्योत्मा ) उत्तम रीति से चमकने वाला प्रकाश स्वरूप आत्मा ( जीराश्वः ) कर्म फलभोक्ता जीव ही ( होता ) सब विद्याओं और ज्ञानों को ग्रहण करने वाला और ( चन्द्ररथः ) आल्हादक सुवर्ण या चन्द्र के समान प्रकाश स्वरूप (मन्द्रः) अति हर्षकर, उत्तम ( शृणवत् ) सुना जाता है । ( सः ) वह ( अमूरः ) अमर, मृत्यु रहित और मोह रहित होकर (अग्निः) ज्ञानवान् आत्मा (नः) हमें ( नेषतमैः ) उत्तम नायक प्राणों द्वारा (वस्यः) देह में बसने योग्य और उनके द्वारा देह में बसने हारा होकर ( सुवितम् ) सुख प्राप्त करने योग्य (वामं) भजने योग्य उत्तम पद तक ( नेषत् ) ले जावे और उसका (अच्छ) साक्षात् करे । (२) नायक पक्ष में—वह तेजस्वी, वेगवान् अश्वों से युक्त सबको वेतन देने वाला, सुवर्णादि को रथ में धारण करने वाला, या लोह के बने दृढ़ रथ वाला, (मन्द्रः) स्तुत्य होकर ( शृणवत् ) सब की प्रार्थना सुने । वह ( नेषतमैः ) उत्तम नायकों सहित उत्तम प्राप्य पद, या देश को प्राप्त करावे । वह राष्ट्र वसाने हारा होने से ‘वस्य’ है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १, २, ३, ६, ११ जगती । ४, ७,९, १० निचृज्जगती । ५ स्वराट् त्रिष्टुप् । ८ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ भुरिक् पङ्क्तिः। १३ स्वराट् पङ्क्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जो सर्वांचे न्यायाने ऐकणारा सकल विद्यायुक्त असून विद्या शिकण्यास उत्सुक असणाऱ्यास विद्यायुक्त करतो तो प्रकाशमान आत्मा असतो. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
And Agni, lord of divine light, faster than light and omnipresent, generous giver and performer of universal yajna, blissful master of the golden chariot of existence may, we pray, listen to our song of celebration. May the lord omnipotent, inviolable, ever loving and lovable, lead us well to the good life and good fortune by the most virtuous thoughts and actions of faith and piety.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
A benefactor is praised here.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
A learned leader is admired as he is. giver of delight; and possess the light of good knowledge. Such a leader possesses military power, wealth in profuse and a fleet of horses and he has silver or gold in his chariot and is a liberal donor. He should consider our request and earn our admiration. He is wise and active and shines like the fire and leads us to a brilliant future with most efficacious means.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
A capable leader listens to the just demands of all and is endowed with all effective means to disseminate knowledge and enlightenment.
Foot Notes
(अमूर:) गन्ता - Going everywhere or active. ( चन्द्ररथः) चन्द्र रजत सुवर्ण वा रथंयस्य स: = He who has silver or gold in his chariot.
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