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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 141 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 141/ मन्त्र 13
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अस्ता॑व्य॒ग्निः शिमी॑वद्भिर॒र्कैः साम्रा॑ज्याय प्रत॒रं दधा॑नः। अ॒मी च॒ ये म॒घवा॑नो व॒यं च॒ मिहं॒ न सूरो॒ अति॒ निष्ट॑तन्युः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अस्ता॑वि । अ॒ग्निः । शिमी॑वत्ऽभिः । अ॒र्कैः । साम्रा॑ज्याय । प्रऽत॒रम् । दधा॑नः । अ॒मी । च॒ । ये । म॒घवा॑नः । व॒यम् । च॒ । मिह॑म् । न । सूरः॑ । अति॑ । निः । त॒न्युः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्ताव्यग्निः शिमीवद्भिरर्कैः साम्राज्याय प्रतरं दधानः। अमी च ये मघवानो वयं च मिहं न सूरो अति निष्टतन्युः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्तावि। अग्निः। शिमीवत्ऽभिः। अर्कैः। साम्राज्याय। प्रऽतरम्। दधानः। अमी। च। ये। मघवानः। वयम्। च। मिहम्। न। सूरः। अति। निः। तन्युः ॥ १.१४१.१३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 141; मन्त्र » 13
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    यः शिमीवद्भिरर्कैः प्रतरं दधानोऽग्निः साम्राज्यायास्तावि ये चामी मघवानः सूरो मिहन्नेव विद्यामतिनिष्टतन्युः तं ताँश्च वयं प्रशंसेम ॥ १३ ॥

    पदार्थः

    (अस्तावि) स्यूयते (अग्निः) सूर्य इव सुशीलप्रकाशितः (शिमीवद्भिः) प्रशंसितकर्मयुक्तैः (अर्कैः) सत्कर्त्तव्यैर्विद्वद्भिः सह (साम्राज्याय) चक्रवर्त्तिनो भावाय (प्रतरम्) प्रतरति शत्रुबलानि येन तत् सैन्यम् (दधानः) (अमी) (च) (ये) (मघवानः) परमपूजितधनयुक्ताः (वयम्) (च) (मिहम्) वृष्टिम् (न) इव (सूरः) सूर्यः (अति) (निः) (ततन्युः) विस्तृणीयुः ॥ १३ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्ये धार्मिकैर्विद्वद्भिः सुशिक्षिता धर्मेण राज्यं विस्तृणन्तः प्रयतन्ते त एव राज्ये विद्याधर्मोपदेशे च संस्थापनीया इति ॥ १३ ॥अत्र विद्वद्गुणवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिर्वर्तत इति वेद्यम् ॥इत्येकचत्वारिंशदुत्तरं शततमं सूक्तं नवमो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जो (शिमीवद्भिः) प्रशंसित कर्मों से युक्त (अर्कैः) सत्कार करने योग्य विद्वानों के साथ (प्रतरम्) शत्रुबलों को जिससे तरें उस सेनागण को (दधानः) धारण करता हुआ (अग्निः) सूर्य के समान सुशीलता में प्रकाशित (साम्राज्याय) चक्रवर्त्ति राज्य के लिये (अस्तावि) स्तुति पाता है (च) और (ये) जो (अमी) वे (मघवानः) परमपूजित धनयुक्त जन (सुरः) सूर्य (मिहम्) वर्षा को (न) जैसे वैसे विद्या को (अति, नि, ततन्युः) अतीव निरन्तर विस्तारें उस पूर्वोक्त सज्जन (च) (और) पीछे कहे हुए जनों की (वयम्) हम लोग प्रशंसा करें ॥ १३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य धार्मिक विद्वानों से अच्छी शिक्षा को पाये हुए धर्म से राज्य का विस्तार करते हुए प्रयत्न करते हैं, वे ही राज्य, विद्या और धर्म के उपदेश में अच्छे प्रकार स्थापन करने योग्य हैं ॥ १३ ॥इस सूक्त में विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति वर्त्तमान है, यह जानना चाहिये ॥यह एकसौ इकतालीसवाँ सूक्त और नववाँ वर्ग पूरा हुआ ॥

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    विषय

    कर्मयुक्त स्तवन

    पदार्थ

    १. (अग्निः) = वह परमात्मा (शिमीवद्भिः) = उत्तम कर्मों से युक्त (अर्कैः) = स्तोत्रों से (अस्तावि) = स्तुति किया जाता है। हम उत्तम कर्मों से प्रभु का स्तवन करते हैं। जहाँ हम स्तुतियों का उच्चारण करते हैं, वहाँ उत्तम कर्म भी करते हैं। इस प्रकार स्तुत हुए हुए वे प्रभु (साम्राज्याय प्रतरं दधानाः) = हमें साम्राज्य के लिए खूब ही धारण करते हैं। हम अपने शरीर, इन्द्रियों, मन व बुद्धि पर शासन करनेवाले होते हैं। २. (अमी च ये) = ये जो गतमन्त्र में वर्णित (मघवान:) = हमारे ऐश्वर्यसम्पन्न व यज्ञशील सन्तान हैं वयं च- -और हम (अतिनिष्टतन्युः) = प्रभु का खूब ही स्तवन करें, उसी प्रकार स्तवन करें (न) = जैसे कि (सूरः) = सूर्य (मिहं) = वर्षण करनेवाले बादल को शब्दयुक्त करता है। जैसे बादल की गर्जना होती है, उसी प्रकार हमारे जीवन में भी प्रभु के स्तोत्रों का उच्चारण होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारे स्तोत्र कर्मयुक्त हों। हमारी सन्तान व हम प्रभु के स्तोत्रों का उच्चारण करनेवाले बनें।

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    विषय

    वीर नायक और आत्मा का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( अग्निः ) ज्ञानवान्, विद्वान् नायक, परमेश्वर और देह के अंग में व्यापक जीव ( शिमीवद्भिः ) उत्तम कर्मों का अनुष्ठान करने वाले धर्मात्माओं और शान्ति या शम की साधना वाले तेजस्वी और ( अर्कैः ) अर्चनाशील और सूर्य के समान तेजस्वी पुरुषों से ( अस्तावि ) नित्य स्तुति किया जाता है, उसका वे नित्य वर्णन करते हैं । वह ( साम्राज्याय ) साम्राज्य पद, और सम्राट् परम प्रभु के अद्वितीय पद के लाभ के लिये ( प्रतरं ) शत्रुगण और भवसागर को पार करने वाले सैन्य और ज्ञानानुष्ठान को (दधानः) धारण करता है । और (ये च ) जो (अमी) ये ( मघवानः ) ऐश्वर्यवान् और निष्पाप, ( वयंच ) और हम सब ( सूरः मिहं न ) मेघ को सूर्य के समान ( निः ततन्युः ) नित्य स्तुति कर उसको प्रसिद्ध करें । उसके गुणों को प्रकट करें । इति नवमो वर्गः ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १, २, ३, ६, ११ जगती । ४, ७,९, १० निचृज्जगती । ५ स्वराट् त्रिष्टुप् । ८ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ भुरिक् पङ्क्तिः। १३ स्वराट् पङ्क्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी माणसे धार्मिक विद्वानांकडून चांगले शिक्षण घेऊन धर्माने राज्याचा विस्तार करण्याचा प्रयत्न करतात त्यांनाच राज्य, विद्या व धर्माचा उपदेश करण्यास नेमावे. ॥ १३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Thus is Agni, wielding power and splendour for world governance, praised with songs of success and thankfulness. And thus the yajakas and we, celebrants all blest with wealth and power by the Lord’s grace, raise our songs of adoration to the skies loud and bold as thunder of the clouds under power of the sun.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The praise of learned scrupulous leaders is mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    A great leader is like the sun and illuminated with good character and conduct. He with his equally learned respectable colleagues controls a powerful army capable to crush enemies. He is highly elevated in the public eyes. We admire such persons endowed with rare wealth of wisdom, because of spread of knowledge far and wide. Such persons are like sun which causes the rains with its natural phenomena.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    A ruler should appoint only such administrators for preaching Dharma and taking people on right path, who have been intensely trained by righteous and enlightened scholars and who aim at development of the State on right lines.

    Foot Notes

    (अग्नि) सूर्य इव सुशील प्रकाशितः — Illuminated with good character and conduct like the sun. (शिमिव्दिभ:) प्रशासित कर्मयुक्तैः—With men of good deeds. (अर्कै:) सत्कर्तव्यैविद्वद्भिः सह = With learned men who are worthy of respect. (अर्कै:) = The verb (अर्च) denotes worship (NKT). (मिह्म्) वृष्टिम् — Rain.

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