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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 141 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 141/ मन्त्र 2
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    पृ॒क्षो वपु॑: पितु॒मान्नित्य॒ आ श॑ये द्वि॒तीय॒मा स॒प्तशि॑वासु मा॒तृषु॑। तृ॒तीय॑मस्य वृष॒भस्य॑ दो॒हसे॒ दश॑प्रमतिं जनयन्त॒ योष॑णः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पृ॒क्षः । वपुः॑ । पि॒तु॒ऽमान् । नित्यः॑ । आ । श॒ये॒ । द्वि॒तीय॑म् । आ । स॒प्तऽशि॑वासु । मा॒तृषु॑ । तृ॒तीय॑म् । अ॒स्य॒ । वृ॒ष॒भस्य॑ । दो॒हसे॑ । दश॑ऽप्रमतिम् । ज॒न॒य॒न्त॒ । योष॑णः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पृक्षो वपु: पितुमान्नित्य आ शये द्वितीयमा सप्तशिवासु मातृषु। तृतीयमस्य वृषभस्य दोहसे दशप्रमतिं जनयन्त योषणः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पृक्षः। वपुः। पितुऽमान्। नित्यः। आ। शये। द्वितीयम्। आ। सप्तऽशिवासु। मातृषु। तृतीयम्। अस्य। वृषभस्य। दोहसे। दशऽप्रमतिम्। जनयन्त। योषणः ॥ १.१४१.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 141; मन्त्र » 2
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    नित्यः पितुमान् अहं प्रथमं पृक्षो वपुराशयेऽस्य वृषभस्य मम द्वितीयं सप्तशिवासु मातृष्वावर्त्तते तृतीयं दशप्रमतिं वपुर्दोहसे योषणो जनयन्त ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (पृक्षः) प्रष्टव्यम् (वपुः) सुन्दरं रूपम् (पितुमान्) प्रशस्तान्नयुक्तः (नित्यः) नित्यस्वरूपः (आ) (शये) (द्वितीयम्) (आ) (सप्तशिवासु) सप्तविधासु कल्याणकारिणीषु (मातृषु) मान्यकारिकासु (तृतीयम्) (अस्य) (वृषभस्य) यज्ञादिकर्मद्वारा वृष्टिकरस्य (दोहसे) कामानां प्रपूर्णाय (दशप्रमतिम्) दशधा प्रकृष्टा मतिर्यस्मिँस्तम् (जनयन्त) प्रकटयन्ति (योषणः) मिश्रणशीला युवतयः ॥ २ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या अत्र सप्तविधेषु लोकेषु ब्रह्मचर्य्येणादिमं गृहाश्रमेण द्वितीयं वानप्रस्थसंन्यासाभ्यां तृतीयं कर्मोपासनविज्ञानं लभन्ते ते दशानामिन्द्रियाणां प्राणानां च विषयमनोबुद्धिचित्ताऽहङ्कारजीवानां च ज्ञानं प्राप्नुवन्ति ॥ २ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (नित्यः) नित्य (पितुमान्) प्रशंसित अन्नयुक्त मैं पहिले (पृक्षः) पूँछने कहने योग्य (वपुः) सुन्दररूप का (आशये) आशय लेता अर्थात् आश्रित होता हूँ (अस्य) इस (वृषभस्य) यज्ञादि कर्म द्वारा जल वर्षानेवाले का मेरा (द्वितीयम्) दूसरा सुन्दर रूप (सप्तशिवासु) सात प्रकार की कल्याण करने (मातृषु) और मान्य करनेवाले माताओं के समीप (आ) अच्छे प्रकार वर्त्तमान और (तृतीयम्) तीसरा (दशप्रमतिम्) दश प्रकार की उत्तम मति जिसमें होती उस सुन्दर रूप को (दोहसे) कामों की परिपूरणता के लिये (योषणः) प्रत्येक व्यवहारों को मिलानेवाली स्त्री (जनयन्त) प्रकट करती हैं ॥ २ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य इस जगत् में सात प्रकार के लोकों में ब्रह्मचर्य से प्रथम, गृहाश्रम से दूसरे और वानप्रस्थ वा संन्यास से तीसरे कर्म और उपासना के विज्ञान को प्राप्त होते, वे दश इन्द्रियों, दश प्राणों के विषयक मन बुद्धि चित्त अहङ्कार और जीव के ज्ञान को प्राप्त होते हैं ॥ २ ॥

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    विषय

    प्रभु में वास

    पदार्थ

    १. (पृक्षः) = [पृच् । I-to come in contact with] पिछले मन्त्र के अनुसार जिसे वेदवाणियाँ ब्रह्म की ओर ले जानेवाली होती हैं, वह पृक्ष, अर्थात् प्रभु के सम्पर्कवाला होता है। इस प्रभु- सम्पर्क से यह (वपुः) = वासनाओं का वपन व छेदन करनेवाला होता है। वासनाओं को दूर करने के उद्देश्य से ही (पितुमान्) = यह प्रशस्त अन्नवाला होता है और इस प्रशस्त अन्न से सत्त्व को- अन्तःकरण को शुद्ध करनेवाला यह उपासक नित्ये सनातन पुरुष में आशये निवास करता है। यह प्रभु को कभी विस्मृत नहीं करता। २. अब (द्वितीयम्) = दूसरे स्थान में यह (सप्त- शिवासु) = शरीरस्थ सप्तर्षियों [कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्] का कल्याण करनेवाली मातृषु वेदवाणीरूप माताओं में आ सब प्रकार से निवास करता है। सारे खाली समय का उपयोग यह वेदवाणियों के अध्ययन में करता है। ३. (तृतीयम्) = तीसरे स्थान में यह (अस्य वृषभस्य) = इस शक्तिशाली प्रभु का दोहसे दोहन करने के लिए होता है। यह प्रभु का अपने में पूरण (दुह प्रपूरणे) करता है। प्रभु में निवास करने से इसे वेदवाणियों का ज्ञान प्राप्त होता है। इस ज्ञान से यह अपने जीवन में प्रभु का पूरण करनेवाला बनता है। ४. इस प्रकार (योषण:) = यह अच्छाइयों का मिश्रण व बुराइयों का अमिश्रण करनेवाली वेदवाणियाँ (दशप्रमतिम्) = दसों इन्द्रियों के विषय में प्रकृष्टमति व विचारवाला (जनयन्त) = बना देती हैं। यह व्यक्ति किसी भी इन्द्रिय के विषय में अशुभ मार्ग पर जाने का झुकाव नहीं रखता। यह कानों से भद्र शब्द ही सुनता है, आँखों से भद्र ही देखता है, रसना से सात्त्विक भोजन में ही आनन्द लेता है। इस प्रकार सब इन्द्रियों के संयम के दृष्टिकोण से कभी ग़लत मार्ग पर जाता ही नहीं।

    भावार्थ

    भावार्थ- सर्वप्रथम हमारा निवास प्रभु में हो, दूसरा वेदवाणियों में और तीसरा शक्तिशाली प्रभु को अपने में धारण करने में।

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    विषय

    जीवात्मा और मनुष्य की हान दशाएं ।

    भावार्थ

    जीवात्मा की तीन दशाएं – [ १ ] ( अस्य पृक्षः ) इसके सेचन करने योग्य स्वरूप जो ( वपुः) सन्तान उत्पन्न करने में मूल कारण है उसको ( पितुमान् ) उत्तम अन्न खाने वाला, वा वीर्य पालक पुरुष ( नित्यः ) सदा स्थिर होकर ( आशये ) धारण करता है । और जो उसका स्वरूप ( सप्त शिवासु मातृषु ) सातों प्राणों या शिरोगत सातों इन्द्रियों में कल्याण युक्त रूप और शक्ति को धारण करने वाली ( मातृषु ) माताओं के बीच गर्भ रूप से रहता है वह इसका ( द्वितीयम् ) द्वितीय स्वरूप है । और जो ( वृषभस्य ) वीर्य सेक्ता पुरुष के ( दोहसे ) पुत्र कामना को पूर्ण करने के लिये ( योषणाः ) स्त्रियें जिस ( दशप्रमतिम् ) दसों उत्तम ज्ञान कर्म साधनों से युक्त पूर्णाङ्ग बालक को ( जनयन्त ) जनती हैं वह उत्पन्न जीव के रूप में आत्मा का तीसरा स्वरूप है । ( २ ) इसी प्रकार प्रारम्भ में ( पितुमान् ) अन्नादि पालन के साधनों वाला रक्षक ( अस्य ) इस पुरुष के ( पृक्ष: वपुः ) पोषणीय देह को बाल्यकाल में ( नित्यः आशये ) पुष्ट करता है । ( द्वितीयं वपुः ) दूसरा कौमार काल के देह को ( सप्तशिवासु ) सातो सुखकारी पदार्थों को धारण करने वाली माताओं के बीच में पाला जाता है । और ( अस्य वृषभस्य तृतीयं वपुः ) फिर यौवन में इस सेचन समर्थ श्रेष्ठ पुरुष का तीसरा पूर्ण यौवन का समय है ( दोहसे ) कामना पूर्ति के लिए जिस ( दशप्रमतिं ) दश धर्म लक्षणों से सम्पन्न पुरुष को प्राप्त कर ( पोषणः जनयन्त ) स्त्रियें सन्तान उत्पन्न करती है । ( ३ ) इसी प्रकार इस देह में अन्न द्वारा उत्पन्न जीवनाग्नि के तीन स्वरूप हैं । ( १ ) एक को अन्नवान् धारण करता है (२) दूसरे को जीव ज्ञान गृहीत इन्द्रियों या शिरोगत सात प्राणों में धारता है ( ३ ) तीसरा वीर्य जिसे स्त्रियें धारण करती और सेक्ता पुरुष की स्त्रियें उसकी इच्छा पूर्त्यर्थ जनती है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १, २, ३, ६, ११ जगती । ४, ७,९, १० निचृज्जगती । ५ स्वराट् त्रिष्टुप् । ८ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ भुरिक् पङ्क्तिः। १३ स्वराट् पङ्क्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे या जगात सात प्रकारच्या लोकात ब्रह्मचर्याने प्रथम, गृहस्थाश्रमाने दुसरे व वानप्रस्थ संन्यासाने तिसरे कर्म व उपासना विज्ञान प्राप्त करतात, ती दहा इंद्रिये, दहा प्राणविषयक मन, बुद्धी, चित्त, अहंकार व जीवाचे ज्ञान प्राप्त करतात. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The eternal Agni, which nourishes and matures the body of life with food, lives in the physical body (as vital heat and abides with the earth). The second form of it abides in the seven motherly forms of nature (which are the seven lokas bhuh, bhuvah, svah, maha, janah, tapah and satyam), which empowers seven grades of natural energy, and matures the seven grades of natural life. The third form of this generous divinity which matures and distils the essences of natural life abides in the sun. And the form which energises ten intelligential faculties (five senses of hearing, touch, sigh, taste and smell, mana or mind, buddhi or intellect, chitta or memory and imagination, ahankara or sense of identity consciousness, and the soul, the dynamic spirit), young mothers with love bring into the living world.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Divine source of knowledge is underlined here.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    I have harnessed several kinds of material benefits and knowledge by observing Brahamcharya (celibacy or control of senses). The second form of Yajnas produces rains in seven auspicious mother-like worlds. The same is true of the discharge of the duties by a householder. The third beautiful form possesses the knowledge of ten Pranas or of ten senses as well as the knowledge of the objects of senses, mind, intellect, Chitta, Ahankara and the soul. It is manifested by highly educated women who collect all knowledge for the fulfilment of their noble desires.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The knowledge o, Karma (action) and Upasana (devotion or communion) is acquired in seven worlds first through the Brahmacharya, second through the family life and third through the discharge of the duties of the Banaprastha (hermit's life) and Sanyasa (renouncement) acquire knowledge of ten senses (Five senses of perception and five of action) and ten Pranas along with the knowledge of the objects of the senses, mind, intellect, Chitta, and Ahankara (ego) and the soul.

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