ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 141/ मन्त्र 6
आदिद्धोता॑रं वृणते॒ दिवि॑ष्टिषु॒ भग॑मिव पपृचा॒नास॑ ऋञ्जते। दे॒वान्यत्क्रत्वा॑ म॒ज्मना॑ पुरुष्टु॒तो मर्तं॒ शंसं॑ वि॒श्वधा॒ वेति॒ धाय॑से ॥
स्वर सहित पद पाठआत् । इत् । होता॑रम् । वृ॒ण॒ते॒ । दिवि॑ष्टिषु । भग॑म्ऽइव । प॒पृ॒चा॒नासः॑ । ऋ॒ञ्ज॒ते॒ । दे॒वान् । यत् । क्रत्वा॑ । म॒ज्मना॑ । पु॒रु॒ऽस्तु॒तः । मर्त॑म् । शंस॑म् । वि॒श्वधा॑ । वेति॑ । धाय॑से ॥
स्वर रहित मन्त्र
आदिद्धोतारं वृणते दिविष्टिषु भगमिव पपृचानास ऋञ्जते। देवान्यत्क्रत्वा मज्मना पुरुष्टुतो मर्तं शंसं विश्वधा वेति धायसे ॥
स्वर रहित पद पाठआत्। इत्। होतारम्। वृणते। दिविष्टिषु। भगम्ऽइव। पपृचानासः। ऋञ्जते। देवान्। यत्। क्रत्वा। मज्मना। पुरुऽस्तुतः। मर्तम्। शंसम्। विश्वधा। वेति। धायसे ॥ १.१४१.६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 141; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
यद्यः पुरुष्टुतो विश्वधा क्रत्वा मज्मना धायसे शंसं मर्त्त देवाँश्च वेति तमाद्धोतारं ये पपृचानासो दिविष्टिषु भगमिव वृणते त इद्दुःखान्यृञ्जते दहन्ति ॥ ६ ॥
पदार्थः
(आत्) (इत्) (होतारम्) दातारम् (वृणते) संभजन्ति (दिविष्टिषु) दिव्यासु इष्टिषु (भगमिव) यथा धनैश्वर्यम् (पपृचानासः) संपर्कं कुर्वाणाः (ऋञ्जते) भृञ्जति (देवान्) दिव्यान् गुणान् (यत्) यः (क्रत्वा) कर्मणा प्रज्ञया वा (मज्मना) बलेन (पुरुष्टुतः) पुरुभिर्बहुभिः प्रशंसितः (मर्त्तम्) मनुष्यम् (शंसम्) प्रशंसितम् (विश्वधा) यो विश्वं दधाति सः (वेति) प्राप्नोति (धायसे) धारणाय ॥ ६ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। ये सद्वैद्यं रत्नमिव सेवन्ते ते शरीरात्मबला भूत्वा सुखिनो जायन्ते ॥ ६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(यत्) जो (पुरुष्टुतः) बहुतों ने प्रशंसा किया हुआ (विश्वधा) विश्व को धारण करनेवाला (क्रत्वा) कर्म वा विशेष बुद्धि से और (मज्मना) बल से (धायसे) धारणा के लिये (शंसम्) प्रशंसायुक्त (मर्त्तम्) मनुष्य को और (देवान्) दिव्य गुणों को (वेति) प्राप्त होता है, उसको (आत्) और (होतारम्) देनेवाले को जो (पपृचानासः) सम्बन्ध करते हुए जन (दिविष्टिषु) सुन्दर यज्ञों में (भगमिव) धन ऐश्वर्य्य के समान (वृणते) सेवते हैं वे (इत्) ही दुःखों को (ऋञ्जते) भूँजते हैं अर्थात् जलाते हैं ॥ ६ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो अच्छे वैद्य का रत्न के समान सेवन करते हैं, वे शरीर और आत्मा के बलवाले होकर सुखी होते हैं ॥ ६ ॥
विषय
ज्ञानयज्ञों में प्रभु का वरण
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार श्रुति व स्मृति [ऋषि-मुनियों के उपदेश] के अनुसार जीवन को चलाते हुए व्यक्ति, जीवन को पवित्र बनाते हुए आत् इत् अब शीघ्र ही (दिविष्टिषु) = ज्ञानयज्ञों में (होतारम्) = सृष्टियज्ञ के महान् होता प्रभु का (वृणते) = वरण करते हैं। ज्ञानयज्ञ के द्वारा वे प्रभु का उपासन करते हैं। (भगम् इव) = ऐश्वर्य के समान वे इस प्रभु का (पपृचानासः) = सम्पर्क करनेवाले होते हैं। जिस प्रकार मनुष्य को ऐश्वर्य प्रिय होता है, उसी प्रकार इन ज्ञानयज्ञों के द्वारा प्रभु के उपासकों को प्रभु प्रिय होते हैं। प्रभु के सम्पर्क में ये (देवान् ऋञ्जते) = दिव्यगुणों को प्रसाधित करते हैं, दिव्य गुणों से अपने जीवन को अलंकृत करते हैं। २. (यत्) = जब ये प्रभु (क्रत्वा) = यज्ञादि उत्तम कर्मों द्वारा तथा (मज्मना) = शक्ति के द्वारा (पुरुष्टुतः) = खूब स्तुत होते हैं तब (विश्वधा:) = सम्पूर्ण विश्व का धारण करनेवाले वे प्रभु इस (शंसं मर्तम्) = स्तवन करनेवाले मनुष्य को (धायसे) = धारण करने के लिए वेति प्राप्त होते हैं [वी गतौ]। प्रभु का सच्चा स्तवन इसी प्रकार होता है कि हम यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त रहें तथा अपने में शक्ति का सम्पादन करें। ऐसा स्तवन करने पर हम प्रभु से धारणीय होंगे।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु को वरण करनेवाला अपने जीवन को दिव्यगुणों से प्रसाधित करता है। यज्ञशील व शक्तिशाली बनकर प्रभु का सच्चा स्तोता होता है। इसके धारण के लिए प्रभु इसे प्राप्त होते हैं।
विषय
अविनाशी आत्मा का जन्म लेने का रहस्य ।
भावार्थ
जीवात्मा का ही पुनः वर्णन है । जब ( पचानासः ) संग या संपर्क करते हुए ( दिविष्टिषु ) कामना की एषणाओं में (भगम् इव) ऐश्वर्य के समान सुखजनक भोग को ( ऋञ्जते ) साधते हैं ( आत् इत् ) तब भी लोग ( होतारम् ) सब संस्कारों के ग्रहण करने वाले या कर्मफलों के भोक्ता को ही ( वृणते ) पुत्र रूप से चाहते हैं । ( यत् ) जो ( विश्वधा ) आत्मा को धारण करने वाला जीव ( पुरुस्तुतः ) बहुधा, बहुतों द्वारा वर्णित होता है, और जो ( क्रत्वा ) ज्ञान और (मज्मना) बल से ( देवान् ) प्राणों को और ( शंसं मर्तं ) स्तुति योग्य उत्तम मरण शील देह को भी ( धायसे ) धारण पोषण करने के लिये प्राप्त होता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १, २, ३, ६, ११ जगती । ४, ७,९, १० निचृज्जगती । ५ स्वराट् त्रिष्टुप् । ८ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ भुरिक् पङ्क्तिः। १३ स्वराट् पङ्क्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे चांगल्या वैद्याचा रत्नाप्रमाणे स्वीकार करतात ते शरीर व आत्मा बलवान करून सुखी होतात. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Yajnic lovers, admirers and worshippers of Agni, light and life of the world, choose, invoke and invite this lord of life and yajnic evolution of nature and humanity in their cherished holy projects and offer hospitality and gifts of oblations to it as to the lord of world wealth and power. And then this lord, worshipped and favourable by pious acts and power joins the noble humanity in many many ways to the devas, divine and generous powers of the universe, for sustenance and progress under the divine eye.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The efficacy of medicinal research is further indicated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
A person should choose a right type of admired person as his guide. Such a man is upholder of cardinal principles and gives happiness, to all men of intellect or action and strength, if he is invited by them for their benefit. They recognize his worth for the fulfilment of their noble desires like the great wealth. On contact, such a man cures their diseases and agonies.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons who serve a good physician like a jewel, enjoy happiness being endowed with physical and spiritual power.
Translator's Notes
(ऋञ्जते) भृंजति = Consumes or burns. (मज्मना) बलेन = With power.
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