ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 141/ मन्त्र 8
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
रथो॒ न या॒तः शिक्व॑भिः कृ॒तो द्यामङ्गे॑भिररु॒षेभि॑रीयते। आद॑स्य॒ ते कृ॒ष्णासो॑ दक्षि सू॒रय॒: शूर॑स्येव त्वे॒षथा॑दीषते॒ वय॑: ॥
स्वर सहित पद पाठरथः॑ । न । या॒तः । शिक्व॑ऽभिः । कृ॒तः । द्याम् । अङ्गे॑भिः । अ॒रु॒षेभिः॑ । ई॒य॒ते॒ । आत् । अ॒स्य॒ । ते । कृ॒ष्णासः॑ । ध॒क्षि॒ । सू॒रयः॑ । शूर॑स्यऽइव । त्वे॒षथा॑त् । ई॒ष॒ते॒ । वयः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
रथो न यातः शिक्वभिः कृतो द्यामङ्गेभिररुषेभिरीयते। आदस्य ते कृष्णासो दक्षि सूरय: शूरस्येव त्वेषथादीषते वय: ॥
स्वर रहित पद पाठरथः। न। यातः। शिक्वऽभिः। कृतः। द्याम्। अङ्गेभिः। अरुषेभिः। ईयते। आत्। अस्य। ते। कृष्णासः। धक्षि। सूरयः। शूरस्यऽइव। त्वेषथात्। ईषते। वयः ॥ १.१४१.८
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 141; मन्त्र » 8
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
कृष्णासः सूरयः शिक्वभिः कृतो द्यामरुषेभिरङ्गेभिस्सह यातो रथ ईयते नेव वय इव शूरस्येव त्वेषथाद् व्यवहारादिव कलाकौशलादीषते सुखमाप्नुवन्ति हे विद्वन्नाद्यस्त्वमग्निरिव पापानि धक्षि। अस्य ते सुखं जायते ॥ ८ ॥
पदार्थः
(रथः) रमणीयं यानम् (न) इव (यातः) प्राप्तः (शिक्वभिः) कीलकबन्धनादिभिः (कृतः) संपादितः (द्याम्) आकाशम् (अङ्गेभिः) अङ्गैः (अरुषेभिः) रक्तैर्गुणैः (ईयते) गच्छति (आत्) आनन्तर्ये (अस्य) (ते) (कृष्णासः) ये कृषन्ति ते (धक्षि) दहसि। अत्र शपो लुक्। (सूरयः) विद्वांसः (शूरस्येव) यथा शूरवीरस्य (त्वेषथात्) प्रदीप्तात् (ईषते) पश्यन्ति (वयः) पक्षिण इव ॥ ८ ॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा शोभनेन विमानेनान्तरिक्षे गमनाऽऽगमने सुखेन जनाः कुर्वन्ति तथा विद्वांसो विद्यया धर्म्ये मार्गे विचरितुं शक्नुवन्ति ॥ ८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(कृष्णासः) जो खींचते हैं वे (सूरयः) विद्वान् जन जैसे (शिक्वभिः) कीलें और बन्धनों से (कृतः) सिद्ध किया (द्याम्) आकाश को (अरुषेभिः) लाल रङ्गवाले (अङ्गेभिः) अङ्गों के साथ (यातः) प्राप्त हुआ (रथः) रथ (ईयते) चलता है (न) वैसे वा (वयः) पक्षि और (शूरस्येव, त्वेषथात्) शूरवीर के प्रकाशित व्यवहार से जैसे वैसे कला-कुशलता से (ईषते) देखते हैं वे सुख पाते हैं, हे विद्वन् ! (आत्) इसके अनन्तर जो आप अग्नि के समान पापों को (धक्षि) जलाते हो (अस्य) इन (ते) आपको सुख होता है ॥ ८ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे उत्तम विमान से अन्तरिक्ष में आना-जाना सुख से जन करते हैं, वैसे विद्वान् जन विद्या से धर्म सम्बन्धी मार्ग में विचरने को समर्थ होते हैं ॥ ८ ॥
विषय
दृढ़ता व प्रकाश के साथ गति
पदार्थ
१. गतमन्त्र का प्रभुभक्त (शिक्वभिः कृतः) = रज्जु आदि से दृढ़ता से बाँधे गये (रथः न यातः) = रथ के समान [यातमस्यास्तीति] गतिवाला होता है। जैसे रज्जु आदि से दृढ़ बन्धनोंवाला रथ मार्ग पर उत्तमता से चलता है, इसी प्रकार यह प्रभुभक्त भी सुगठित शरीरवाला होता हुआ जीवनयात्रा में आगे बढ़ता है। यह (अरुषेभिः अङ्गेभिः) = आरोचमान अङ्गों से (द्याम् ईयते) = द्युलोक को प्राप्त होता है, अर्थात् यह उत्तम कर्म करता हुआ यहाँ तेजस्वी व प्रकाशमय जीवनवाला होता है अगले जन्म में द्युलोक में जन्म लेनेवाला होता है। वहाँ इसका शरीर (आग्नेय) = होता है और इसके सब अङ्ग आरोचमान होते हैं। २. (आत्) = अब (अस्य सूरयः) = [सूरेः] इस ज्ञानी पुरुष की (ते कृष्णासः) = वे मलिनताएँ (दक्षि) = दग्ध हो जाती हैं। इसके जीवन में राग-द्वेष नहीं रहता। यह (वयः कर्मतन्तु) = का सन्तान करनेवाला- सदा क्रियाशील व्यक्ति (शूरस्य इव) = एक शूरवीर के समान (त्वेषथात्) = अपनी ज्ञानदीप्ति से (ईषते) = इन वासनाओं पर आक्रमण करता है। अपनी ज्ञानाग्नि में इन वासनाओं को दग्ध कर देता है।
भावार्थ
भावार्थ- हमें चाहिए कि दृढ़ अङ्गों से गतिशील बनें, ज्ञानाग्नि द्वारा वासनाओं को दग्ध कर दें।
विषय
उसकी प्राप्ति बन्धनों के नाश का उपदेश ।
भावार्थ
(रथः न) जिस प्रकार रथ वा विमान ( शिक्वभिः) रज्जुओं और कीलादि के बंधनों से ( कृतः ) तैयार किया जाकर ( द्याम् ईयते ) अपने ही अंगों से आकाश और भूमि पर गमन करता है उसी प्रकार यह जीवात्मा भी (शिक्वभिः कृतः) निषेक आदि आधान संस्कारों द्वारा उत्पन्न और संस्कृत होकर ( द्याम् यातः ) इस पृथ्वी पर आता, तेजोमय ज्ञानमय प्रभु और आचार्य से विवेक दीप्ति को प्राप्त होकर ( अङ्गेभिः ) कर चरण आदि अवयवों और योग के साधनाङ्ग प्राणायाम आदि ( अरुषेभिः ) तेजोमय, दीप्ति युक्त एवं रोष रहित शान्तिजनक अंगों से ( द्याम् ईयते ) इस तेजोमय, कमनीय परमेश्वर को प्राप्त होता है । ( शूरस्य = सूरस्य सूरयः इव कृष्णासः वयः ) सूर्य के जिस प्रकार जलाकर्षण करने वाले दीप्तिमान् किरण गण ( त्वेषथात् ईषते ) अपने तेज से सर्वत्र व्यापते हैं उसी प्रकार ( आत् ) बाद में ( शूरस्य इव ) शूरवीर के समान अति बलवान् निर्भय ( अस्य ) इस जीव के भी (ते) वे ( सूरयः ) उत्तम ज्ञान उत्पन्न करने वाले, (कृष्णासः) दुखों के काटने वाले ( वयः ) हंस पक्षियों के समान निर्विघ्न ज्ञानी पुरुष ( त्वेषथात् ) अपने ज्ञान प्रकाश से ( ईषते ) तुझे प्राप्त होते ओर तू (दक्षि) पापादि बन्धनों को दग्ध कर देता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १, २, ३, ६, ११ जगती । ४, ७,९, १० निचृज्जगती । ५ स्वराट् त्रिष्टुप् । ८ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ भुरिक् पङ्क्तिः। १३ स्वराट् पङ्क्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे लोक अंतरिक्षात उत्तम विमानाने सहजतेने गमनागमन करतात तसे विद्वान लोक धर्ममार्गात चालण्यास समर्थ असतात. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
As a chariot created by scientists and driven by expert drivers flies across the sky with the brilliant parts of the machine, so does Agni rise across space with its blazing flames of fire. Lord of life and light, enlighten the ignorant, light the paths of darkness, and strengthen your warriors because, otherwise, at the blaze of fiery violence like the terror of a demonic hero, life flies away.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Exportation to human beings to be industrious to overcome the destinies is underlined.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
A learned person writes down his ideas in various ways. He visualizes a giant venture in the form of an aero craft manufactured through his technology. That craft goes, to the sky fast like a bird or like an enemy fleeing the Warfield. O scholar! you are foremost among the learned persons, hence enjoy happiness and shine like the fire.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
This mantra attaches supreme importance to travel in the sky with the help of good aero planes. It became possible through the vigorous efforts made after a thorough study in particular field.
Foot Notes
कृष्णास: ये कर्सन्ति-विलेखने = Those who write down their ideas variously or till the ground. (ईस्ते ) पश्यन्ति = See.
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