ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 141/ मन्त्र 5
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आदिन्मा॒तॄरावि॑श॒द्यास्वा शुचि॒रहिं॑स्यमान उर्वि॒या वि वा॑वृधे। अनु॒ यत्पूर्वा॒ अरु॑हत्सना॒जुवो॒ नि नव्य॑सी॒ष्वव॑रासु धावते ॥
स्वर सहित पद पाठआत् । इत् । मा॒तॄः । आ । अ॒वि॒श॒त् । यासु॑ । आ । शुचिः॑ । अहिं॑स्यमानः । उ॒र्वि॒या । वि । व॒वृ॒धे॒ । अनु॑ । यत् । पूर्वा॑ । अरु॑हत् । स॒ना॒ऽजुवः॑ । नि । नव्य॑सीषु । अव॑रासु । धा॒व॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आदिन्मातॄराविशद्यास्वा शुचिरहिंस्यमान उर्विया वि वावृधे। अनु यत्पूर्वा अरुहत्सनाजुवो नि नव्यसीष्ववरासु धावते ॥
स्वर रहित पद पाठआत्। इत्। मातॄः। आ। अविशत्। यासु। आ। शुचिः। अहिंस्यमानः। उर्विया। वि। ववृधे। अनु। यत्। पूर्वा। अरुहत्। सनाऽजुवः। नि। नव्यसीषु। अवरासु। धावते ॥ १.१४१.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 141; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
ये यासु नव्यसीष्ववरास्वोषधीषु निधावते यद्यस्सनाजुवः पूर्वा ओषधीरन्वरुहत् स तास्वाशुचिरहिंस्यमानः सन् उर्विया विवावृध आदिन्मातॄराविशत् ॥ ५ ॥
पदार्थः
(आत्) आनन्तर्य्ये (इत्) एव (मातॄः) मातृवन्मान्यप्रदा ओषधीः (आ) (अविशत्) विशति (यासु) (आ) (शुचिः) (अहिंस्यमानः) अहिंसितः सन् (उर्विया) बहुना (वि) (वावृधे) वर्द्धते। अत्र तुजादीनामित्यभ्यासदैर्घ्यम्। (अनु) (यत्) यः (पूर्वाः) (अरुहत्) वर्धयति (सनाजुवः) सनातनी जूर्वेगो यासां ताः (न) (नव्यसीषु) अतिशयेन नवीनासु (अवरासु) अर्वाचीनासु (धावते) सद्यो गच्छति ॥ ५ ॥
भावार्थः
ये पुरुषा वैद्यकविद्यामधीत्य महौषधानि युक्त्या सेवन्ते ते बहु वर्द्धन्ते। ओषधयो द्विविधा भवन्ति प्राक्तना नवीनाश्च तासु ये विचक्षणा भवन्ति त एवारोगा जायन्ते ॥ ५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जो (यासु) जिन (नव्यसीषु) अत्यन्त नवीन और (अवरासु) पिछली ओषधियों के निमित्त (नि, धावते) निरन्तर शीघ्र जाता है वा (यत्) जो (सनाजुवः) सनातन वेगवाली (पूर्वाः) पिछली ओषधियों को (अनु, अरुहत्) बढ़ाता है वह उन ओषधियों में (आ, शुचिः) अच्छे प्रकार पवित्र और (अहिंस्यमानः) विनाश को न प्राप्त होता हुआ (उर्विया) बहुत प्रकार (विवावृधे) विशेषता से बढ़ता है (आत्) इसके पीछे (इत्) ही (मातॄः) माता के समान मान करनेवाली ओषधियों को (आ, अविशत्) अच्छे प्रकार प्रवेश करता है ॥ ५ ॥
भावार्थ
जो पुरुष वैद्यक विद्या को पढ़, बड़ी-बड़ी ओषधियों का युक्ति के साथ सेवन करते हैं, वे बहुत बढ़ते हैं। ओषधी दो प्रकार की होती हैं अर्थात् पुरानी और नवीन। उनमें जो विचक्षण चतुर होते हैं, वे ही नीरोग होते हैं ॥ ५ ॥
विषय
श्रुति में स्नान
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार प्रभु को अपना पथ-प्रदर्शक बनानेवाला (आत् इत्) = अब निश्चय से (मातृः) = जीवन का निर्माण करनेवाली इन वेदवाणीरूप माताओं में (आविशत्) = प्रवेश करता है, (यासु) = जिनमें प्रवेश करने पर यह (आशुचिः) = शरीर, मन व बुद्धि में सर्वत्र पवित्र होता है, (अहिंस्यमानः) = वासनाओं से हिंसित न होता हुआ (उर्विया विवावृधे) = खूब ही वृद्धि को प्राप्त होता है। २. (यत्) = जब (सनाजुवः) = सनातनकाल से प्रेरणा देनेवाली (पूर्वाः) = सृष्टि के आरम्भ में होनेवाली इन वाणियों का (अनु आरुहत्) = अनुक्रमेण आरोहण करता है, अर्थात् इनका अध्ययन करता हुआ इन्हें अपने जीवन का अङ्ग बनाता है तो (नव्यसीषु) = नवीन (अवरासु) = अवरकाल में होनेवाली ऋषियों से प्रतिपादित वेदानुकूल ज्ञानवाणियों में भी (निधावते) = निश्चय से अपने जीवन है। जैसे पावितात्यों में स्नान करता हुआ यह अपने जीवन को शब्द बनाता है,उसी प्रकार वेदानुकूल स्मृतिवाक्य इसके जीवन को शुद्ध बनाते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- वेदवाणियाँ जीवन को पवित्र बनाती हैं, स्मृतिवाक्यों के अनुसार चलते हुए भी हम अपने जीवनों को शुद्ध बनाते हैं।
विषय
अविनाशी आत्मा का जन्म लेने का रहस्य ।
भावार्थ
आत्मा का ही वर्णन है । वह जीव (मातॄः) माताओं के गर्भ में ( आविशत् ) प्रथम प्रविष्ट होता है ( आत् इत् ) और अनन्तर ( यासु ) जिनके बीच में वह ( अहिंस्यमानः ) किसी प्रकार भी पीड़ित न होता हुआ ( उर्विया ) बहुत अच्छी प्रकार ( शुचिः ) शुद्ध रक्त से सिक्त होकर अग्नि के समान ( आ वि वावृधे ) विशेष रूप से वृद्धि को प्राप्त होता है । वह जीवात्मा ( सना-जुवः ) सनातन काल से चला आया ( पूर्वाः ) पूर्व की ( मातॄः ) माताओं को प्राप्त होकर जिस प्रकार बीज रूप में स्थित होकर ( अनु अरुहत् ) अनुकूल स्थिति में जन्म को प्राप्त करता रहा ठीक उसी प्रकार (अवरासु) अब के उरे के काल में विद्यमान ( नव्यसीषु ) नये काल की अब की माताओं में भी उसी रीति से (नि धावते) नियम पूर्वक जन्म को प्राप्त होता है, अर्थात् जीवोत्पत्ति का क्रम अनादि काल से एक समान ही है । इत्यष्टमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १, २, ३, ६, ११ जगती । ४, ७,९, १० निचृज्जगती । ५ स्वराट् त्रिष्टुप् । ८ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ भुरिक् पङ्क्तिः। १३ स्वराट् पङ्क्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे पुरुष वैद्यक विद्या शिकून महाऔषधींचे युक्तीने सेवन करतात त्यांची उन्नती होते. औषधी दोन प्रकारची असतात. एक जुनी व दुसरी नवीन. त्यात जे विलक्षण चतुर असतात ते निरोगी राहतात. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
In the course of evolution, Agni, the vitality of life, which enters the mother forms of nature, now grows, pure, brilliant and unhurt, with the soil of its germination and generation, and then, the one which grew on the earlier one with the earlier forms of life, self-impulsive with the eternal will to live, now lives, vibrates and runs in the latest and most delicate mother forms.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Importance of taking herbs prescribed in AYURVEDA (Science of Life) is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The man who conducts research on new herbs and medicines, and moreover puts oblations of proven medicinal herbs in the Yajna without any break, he develops his physical and mental powers extensively. They were pure and unharmful, and with his repeated researches on the medicines, he saves himself from various diseases, as well as other human beings, like a mother.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The researches conducted on proven and new herbs and medicines make human beings happy and healthy.
Foot Notes
(मातू:) मातृवन्मान्यप्रदा औषधी: = The herb or medicine that. saves from diseases and nourishes like the mother. (अरुहत्) वर्धयति = Grows or increases.
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