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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 141 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 141/ मन्त्र 9
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    त्वया॒ ह्य॑ग्ने॒ वरु॑णो धृ॒तव्र॑तो मि॒त्रः शा॑श॒द्रे अ॑र्य॒मा सु॒दान॑वः। यत्सी॒मनु॒ क्रतु॑ना वि॒श्वथा॑ वि॒भुर॒रान्न ने॒मिः प॑रि॒भूरजा॑यथाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वया॑ । हि । अ॒ग्ने॒ । वरु॑णः । धृ॒तऽव्र॑तः । मि॒त्रः । शा॒श॒द्रे । अ॒र्य॒मा । सु॒ऽदान॑वः । यत् । सी॒म् । अनु॑ । क्रतु॑ना । वि॒श्वऽथा॑ । वि॒ऽभुः । अ॒रान् । न । ने॒मिः । प॒रि॒ऽभूः । अजा॑यथाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वया ह्यग्ने वरुणो धृतव्रतो मित्रः शाशद्रे अर्यमा सुदानवः। यत्सीमनु क्रतुना विश्वथा विभुररान्न नेमिः परिभूरजायथाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वया। हि। अग्ने। वरुणः। धृतऽव्रतः। मित्रः। शाशद्रे। अर्यमा। सुऽदानवः। यत्। सीम्। अनु। क्रतुना। विश्वऽथा। विऽभुः। अरान्। न। नेमिः। परिऽभूः। अजायथाः ॥ १.१४१.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 141; मन्त्र » 9
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे अग्ने यथा त्वया सह यद्ये वरुणो धृतव्रतो मित्रोऽर्यमा च सुदानवो हि भवन्ति तथा तत्सङ्गेन त्वं नेमिररान्नेव विश्वथा विभुरीश्वर इव क्रतुना परिभूः सीमन्वजायथा यतो दुःखं शाशद्रे छिन्नं कुर्याः ॥ ९ ॥

    पदार्थः

    (त्वया) (हि) खलु (अग्ने) विद्वन् (वरुणः) श्रेष्ठः (धृतव्रतः) धृतसत्यः (मित्रः) (शाशद्रे) शातयेः (अर्यमा) न्यायाधीशः (सुदानवः) सुष्ठु दानं येषान्ते (यत्) ये (सीम्) सर्वतः (अनु) (क्रतुना) प्रज्ञया (विश्वथा) सर्वथा (विभुः) व्यापक ईश्वरः (अरान्) चकस्याऽवयवान् (न) इव (नेमिः) चक्रम् (परिभूः) सर्वेषामुपरि भवतीति (अजायथाः) जायेथाः ॥ ९ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथेश्वरो न्यायकारी सर्वासु विद्यासु प्रवीणोऽस्ति तथा विदुषां सङ्गेन प्राज्ञो न्यायकारी पूर्णविद्यश्च स्यात् ॥ ९ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विद्वान् ! जैसे (त्वया) तुम्हारे साथ (यत्) जो (वरुणः) श्रेष्ठ (धृतव्रतः) सत्य व्यवहार को धारण किये हुए (मित्रः) सबका मित्र और (अर्यमा) न्यायाधीश (सुदानवः) अच्छे दानशील (हि) ही होते हैं वैसे उनके सङ्ग से आप (नेमिः) पहिआ (अरान्, न) अरों को जैसे वैसे (विश्वथा) वा जैसे सब प्रकार से (विभुः) ईश्वर व्यापक है वैसे (क्रतुना) उत्तम बुद्धि से (परिभूः) सर्वोपरि (सीम्) सब ओर से (अनु, अजायथाः) अनुक्रम से होओ जिससे दुःख को (शाशद्रे) नष्ट करो ॥ ९ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे ईश्वर न्यायकारी और सब विद्याओं में प्रवीण है, वैसे विद्वानों के सङ्ग से बुद्धिमान्, न्यायकारी और पूरी विद्यावाला हो ॥ ९ ॥

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    विषय

    उपासना व सुन्दर जीवन

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = परमात्मन्! (त्वया) = आपके द्वारा (हि) = निश्चय से यह भक्त (वरुणः) = द्वेष निवारण करनेवाला, (धृतव्रतः) = धारण किये हुए व्रतोंवाला, (मित्र:) = सबके साथ स्नेह करनेवाला बनता है और (शाशद्रे) = [शातयति तमः] तमोगुण को नष्ट करता है। यह (अर्यमा) = 'अरीन् यच्छति' काम-क्रोधादि शत्रुओं का नियन्त्रण करता है, (सुदानवः) = उत्तम दानशील होता है। २. (यत्) = जब (सीम्) = (सर्वतः) सब ओर से (क्रतुना) = अपने कर्मों व संकल्पों के द्वारा (विश्वथा) = सब प्रकार से (विभुः) = व्यापक शक्तिवाला होता है। (अरान् नेमिः न) = अरों के चारों ओर जैसे नेमि होती है [प्रधि], उसी प्रकार यह (परिभूः) = सब शक्तियों के चारों ओर होनेवाला (अजायथाः) = हो जाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - उपासना द्वारा प्रभु के सम्पर्क में आने पर हम 'वरुण, धृतव्रत, मित्र, अर्यमा व सुदानु बनकर तमोगुण का संहार करनेवाले' बनते हैं, सब शक्तियों से युक्त होते हैं।

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    विषय

    नायकवत् प्रभु का वर्णन ।

    भावार्थ

    व्यापक परमेश्वर, बलवान् आत्मा और नायक का वर्णन । हे ( अग्ने ) अग्रणी नायक ( त्वया हि ) तेरे ही बल से ( धृतव्रतः वरुणः ) सब कार्यों को धारण करने वाला, सर्वश्रेष्ठ सूर्य और ( मित्रः ) प्राण के समान प्रिय चन्द्र, दिन या रात और ( सुदानवः ) उत्तम सुखों के देने वाले ये दोनों और ( अर्यमा ) गमनशील प्राणों का नियामक वायु ये सब ( शाशद्रे ) तीक्ष्ण होकर कार्य करते हैं, ( यत् ) जो तू ( सीम् ) सब प्रकार ( अरान् नेमिः न ) अरों पर चक्रधारा के समान अपने ( क्रतुना ) महान् क्रिया सामर्थ्य, शक्ति और ज्ञान समर्थ्य से ( विश्वथा अनु ) समस्त जनों और प्राणों पर ही ( परिभूः अजायथाः ) सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान्, उनका रक्षक, स्वामी हो रहा है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १, २, ३, ६, ११ जगती । ४, ७,९, १० निचृज्जगती । ५ स्वराट् त्रिष्टुप् । ८ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ भुरिक् पङ्क्तिः। १३ स्वराट् पङ्क्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसा ईश्वर न्यायी व सर्व विद्येत प्रवीण असतो तसे विद्वानांच्या संगतीने बुद्धिमान, न्यायी व पूर्ण विद्यावान व्हावे. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, lord of light, life and power, it is by you that Varuna, the sea as the sky holds on to its law, Mitra, the sun, dispels the darkness, and Aryama, the abundant and dynamic nature and the philanthropic humanity are creative and generous. For the reason of your nature and divine action, you are universal, omnipresent, and omnipotent over all and you manifest as immanent and concurrent just like the rim of a wheel holding the spokes together running and working together.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Attributes of a learned man mentioned here.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    There are some most acceptable noble men, upholders of the truth, dispensers of justice and philanthropists and donors. O learned persons ! they are with you. So through their association, you should encompass them all, like a circumference encompasses the spokes of a wheel. Like Omnipresent God, such a person should surpass all, by your intellect or wisdom, in order to end all missies.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    God is just and Omniscient, likewise an intelligent person should be just and possessive of complete knowledge, because of his association with enlightened ones.

    Foot Notes

    (शाशद्रे) शातये, छिन्नं कुर्या: = Destroy. (अग्ने) विद्वन् = Learned leader!

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