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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 141 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 141/ मन्त्र 3
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    निर्यदीं॑ बु॒ध्नान्म॑हि॒षस्य॒ वर्प॑स ईशा॒नास॒: शव॑सा॒ क्रन्त॑ सू॒रय॑:। यदी॒मनु॑ प्र॒दिवो॒ मध्व॑ आध॒वे गुहा॒ सन्तं॑ मात॒रिश्वा॑ मथा॒यति॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    निः । यत् । ई॒म् । बु॒ध्नात् । म॒हि॒षस्य॑ । वर्प॑सः । ई॒शा॒नासः॑ । शव॑सा । क्रन्त॑ । सू॒रयः॑ । यत् । ई॒म् । अनु॑ । प्र॒ऽदिवः॑ । मध्वः॑ । आ॒ऽध॒वे । गुहा॑ । सन्त॑म् । मा॒त॒रिश्वा॑ । म॒था॒यति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    निर्यदीं बुध्नान्महिषस्य वर्पस ईशानास: शवसा क्रन्त सूरय:। यदीमनु प्रदिवो मध्व आधवे गुहा सन्तं मातरिश्वा मथायति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    निः। यत्। ईम्। बुध्नात्। महिषस्य। वर्पसः। ईशानासः। शवसा। क्रन्त। सूरयः। यत्। ईम्। अनु। प्रऽदिवः। मध्वः। आऽधवे। गुहा। सन्तम्। मातरिश्वा। मथायति ॥ १.१४१.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 141; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    यत् ईशानासः सूरयश्शवसा यथाधवे मातरिश्वाऽग्निं मथायति तथा महिषस्य वर्पसः सम्बन्धे स्थितं बुध्नादीमनुक्रन्तमध्वः प्रदिवो गुहा सन्तमीं यत् निष्क्रन्त ततस्ते सुखिनो जायन्ते ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (नि) नितराम् (यत्) यम् (ईम्) इमं प्रत्यक्षम् (बुध्नात्) अन्तरिक्षात् (महिषस्य) महतः। महिष इति महन्ना० ३। ३। (वर्पसः) रूपस्य। वर्प इति रूपना०। निघं० ३। ७। (ईशानासः) ऐश्वर्ययुक्ताः (शवसा) बलेन (क्रन्त) क्रमन्तु (सूरयः) विद्वांसः (यत्) ये (ईम्) (अनु) (प्रदिवः) प्रकृष्टद्युतिमतः (मध्वः) विज्ञानयुक्तस्य (आधवे) समन्तात्प्रक्षेपणे (गुहा) बुद्धौ (सन्तम्) (मातरिश्वा) प्राणः (मथायति) मथ्नाति। अत्र छन्दसि शायजपीति शायच् ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। त एव ब्रह्मविदो जायन्ते ये धर्माऽनुष्ठानयोगाभ्यासं सत्सङ्गं च कृत्वा स्वात्मानं विदित्वा परमात्मानं विदन्ति त एव मुमुक्षुभ्य एतं ज्ञापयितुमर्हन्ति ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (यत्) जो (ईशानासः) ऐश्वर्ययुक्त (सूरयः) विद्वान् जन (शवसा) बल से जैसे (आधवे) सब ओर से अन्न आदि के अलग करने के निमित्त (मातरिश्वा) प्राण वायु जाठराग्नि को (मथायति) मथता है वैसे (महिषस्य) बड़े (वर्पसः) रूप अर्थात् सूर्यमण्डल के सम्बन्ध में स्थित (बुध्नात्) अन्तरिक्ष से (ईम्) इस प्रत्यक्ष व्यवहार को (अनुक्रन्त) अनुक्रम से प्राप्त हों वा (मध्वः) विशेष ज्ञानयुक्त (प्रदिवः) कान्तिमान् आत्मा के (गुहा) गुहाशय में अर्थात् बुद्धि में (सन्तम्) वर्त्तमान (ईम्) प्रत्यक्ष (यत्) जिस ज्ञान को (निष्क्रन्त) निरन्तर क्रम से प्राप्त हों, उससे वे सुखी होते हैं ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। वे ही ब्रह्मवेत्ता विद्वान् होते हैं, जो धर्मानुष्ठान, योगाभ्यास और सत्सङ्ग करके अपने आत्मा को जान परमात्मा को जानते हैं और वे ही मुमुक्षु जनों के लिये इस ज्ञान को विदित कराने के योग्य होते हैं ॥ ३ ॥

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    विषय

    प्रभुदर्शन कब

    पदार्थ

    १. (यत्) = यदि (ईम्) = निश्चय से (महिषस्य वर्षसः) = इस महनीय शरीर के [वर्पस् - रूप] (ईशानासः) = ईशान व संयम करनेवाले (सूरयः) = ज्ञानी लोग (शवसः) = शक्ति व गति के द्वारा-शक्ति के सम्पादन तथा गतिशीलता के द्वारा (बुध्नात्) = [बद्धा धृता अस्मिन्प्राणा इति, शरीरम्- निरु० १० । ४४] शरीर बन्धन से (निक्रन्त) = अपने को पृथक् करते हैं इनकी शरीर में आसक्ति नहीं रहती। २. और (यत्) = यदि (ईम्) = निश्चय से (प्रदिवः) = प्रकृष्ट ज्ञानी बनकर (मध्वः) = इस अत्यन्त प्रिय अहं [अहंकार] के (आधवे) = प्रक्षेप में, दूर करने में समर्थ होते हैं ३. तो उस समय (मातरिश्वा) = प्राणसाधना करनेवाला पुरुष गुहा (सन्तम्) = हृदयरूपी गुहा में निवास करनेवाले प्रभु को (मथायति) = अपने चिन्तन का विषय बनाता है [उद्बोधयति - सा०] । ४. प्रभु को अपने हृदय में उद्बुद्ध करने के लिए आवश्यक है कि [क] हम शरीर के बन्धन व आसक्ति से ऊपर उठें,[ख] ज्ञान के द्वारा अहंकार को नष्ट करें, [ग] प्राणायाम के अभ्यासी बनें।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभुदर्शन उसी को होता है, जो आसक्ति से ऊपर उठता है, अहं को जीतता है और नियमित रूप से प्राणसाधना करता है।

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    विषय

    असंग आत्मा के ज्ञान करने का उपदेश ।

    भावार्थ

    ( यद् ईम् ) इस जीव को ( ईशानासः ) अधिक सामर्थ्यवान्, वशी ( सूरयः ) विद्वान् लोग ( महिषस्य वर्पसः ) बड़े रूपवान् देह के ( बुध्नात् ) बन्धन से ( निः क्रन्त ) निर्मुक्त करते हैं और ( यत् ईम् ) जिसको ( प्रदिवः मध्वः आधवे ) पुरातन, सनातन से चले आये, अति उत्तम अभिलाषा योग्य तेजोमय मधुर रस के प्राप्त करने के निमित्त ( गुहा सन्तम् ) अन्तर्गुहा, हृदय के भीतर विराजमान आत्मा को ( मातरिश्वा ) प्राण वायु ( मथायति ) अग्नि को पवन के समान प्रज्वलित करता है उसका साक्षात् कर ज्ञान करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १, २, ३, ६, ११ जगती । ४, ७,९, १० निचृज्जगती । ५ स्वराट् त्रिष्टुप् । ८ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ भुरिक् पङ्क्तिः। १३ स्वराट् पङ्क्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. तेच ब्रह्मवेत्ते विद्वान असतात जे धर्मानुष्ठान, योगाभ्यास व सत्संग करून आपल्या आत्म्याला जाणून परमात्म्याला जाणतात. तेच मुमुक्षु लोकांना हे ज्ञान प्राप्त करून देतात. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Brilliant scholars of commanding eminence from the middle regions of the light of the great sun collect the vitality and convert it into ripening waves for the maturity of grain. Similarly the vision of the yogis collects the spiritual vitality of the honey sweets of heavenly light unto itself in communion and the pranic energy chums the latent spirit in the depths of the soul to join it with the heavenly light.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The real visualizer of God can only teach the seekers of truth.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Keepers of the great wealth of wisdom and controllers of their senses and mind, find the proof of their power within divinity. As the Pranas move the abdominal energy (known as Jatharagni, it helps digestion); likewise, the seekers of God feel that God pervades the vast firmament and other planets and is a controlling agency. They find him in the heart of a wiseman because of brilliance wisdom and other virtues. Consequently, they realize His presence within their own hearts and souls.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons only know of Brahma (God) who by the observance of Dharma (righteousness), practice of Yoga and association of the holy enlightened persons, grasp the soul and then the Supreme Being.

    Foot Notes

    ( महिषस्य ) महत: महिषः इति महन्नाम (NG 3.5 ) = Great Vast. (बुघ्नात्) अंतरिक्षात् = From the firmament. ( मध्व:) विज्ञानयुक्तस्य = Of the wise.

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