ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 141/ मन्त्र 4
प्र यत्पि॒तुः प॑र॒मान्नी॒यते॒ पर्या पृ॒क्षुधो॑ वी॒रुधो॒ दंसु॑ रोहति। उ॒भा यद॑स्य ज॒नुषं॒ यदिन्व॑त॒ आदिद्यवि॑ष्ठो अभवद्घृ॒णा शुचि॑: ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । यत् । पि॒तुः । प॒र॒मात् । नी॒यते॑ । परि॑ । आ । पृ॒क्षुधः॑ । वी॒रुधः॑ । दम्ऽसु॑ । रो॒ह॒ति॒ । उ॒भा । यत् । अ॒स्य॒ । ज॒नुष॑म् । यत् । इन्व॑तः । आत् । इत् । यवि॑ष्ठः । अ॒भ॒व॒त् । घृ॒णा । शुचिः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र यत्पितुः परमान्नीयते पर्या पृक्षुधो वीरुधो दंसु रोहति। उभा यदस्य जनुषं यदिन्वत आदिद्यविष्ठो अभवद्घृणा शुचि: ॥
स्वर रहित पद पाठप्र। यत्। पितुः। परमात्। नीयते। परि। आ। पृक्षुधः। वीरुधः। दम्ऽसु। रोहति। उभा। यत्। अस्य। जनुषम्। यत्। इन्वतः। आत्। इत्। यविष्ठः। अभवत्। घृणा। शुचिः ॥ १.१४१.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 141; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
पुरुषेण परमात् यदस्य पितुः प्रणीयते यो दंसु पृक्षुधो वीरुधः पर्य्यारोहत्यादिन्वतो यज्जनुषमभवत् यद्यः शुचिर्घृणाऽभवत् तावुभा इदेव यविष्ठो जनः प्राप्नुयात् ॥ ४ ॥
पदार्थः
(प्र) (यत्) (पितुः) अन्नम् (परमात्) उत्कृष्टात् प्रयत्नात् (नीयते) प्राप्यते (परि) (आ) (पृक्षुधः) प्रकर्षेण क्षोधितुं भोक्तुमिष्टाः। क्षुध बुभुक्षायाम्। अतः कर्मणि क्विप् पृषोदरादित्वात्पूर्वसंप्रसारणं च। (वीरुधः) अतिविस्तृता लताः (दंसु) दमेषु (रोहति) वर्द्धते (उभा) उभौ (यत्) (अस्य) वृक्षजातेः (जनुषम्) जन्म (यत्) (इन्वतः) प्रियस्य (आत्) आनन्तर्य्ये (इत्) एव (यविष्ठः) अतिशयेन युवा यविष्ठः (अभवत्) भवेत् (घृणा) दीप्तिः (शुचिः) पवित्रा ॥ ४ ॥
भावार्थः
मनुष्यैरन्नमौषधं च सर्वतो ग्राह्यं तत्संस्कृतेन भुक्तेन सर्वं सुखं भवतीति मन्तव्यम् ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
पुरुष से (परमात्) उत्कृष्ट उत्तम यत्न के साथ (यत्) जो (अस्य) प्रत्यक्ष वृक्षजाति का सम्बन्धी (पितुः) अन्न (प्रणीयते) प्राप्त किया जाता है वा जो (दंसु) दूसरों के दबाने आदि के निमित्त में (पृक्षुधः) अत्यन्त भोगने को इष्ट (वीरुधः) अत्यन्त पौंडी हुई लताओं पर (पर्य्यारोहति) चारों ओर से पौंड़ता है (आत्) और (इन्वतः) प्रिय इस यजमान का (यत्) जो (जनुषम्) जन्म (अभवत्) हो तथा (यत्) जो (शुचिः) पवित्र (घृणा) चमक-दमक हो उन (उभा) दोनों को (इत्) ही (यविष्ठः) अत्यन्त तरुण जन प्राप्त होवे ॥ ४ ॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि अन्न और औषध सब से लेवें और संस्कार किये अर्थात् बनाये हुए उस अन्न के भोजन से समस्त सुख होता है, ऐसा जानना चाहिये ॥ ४ ॥
विषय
'यविष्ठ, घृणा (वान्), शुचि'
पदार्थ
१. (यत्) = जब यह साधक (परमात् पितुः) = उस परमपिता से, उस पिता के द्वारा (प्र नीयते) = प्रकृष्ट मार्ग पर ले जाया जाता है, अर्थात् जब अन्तःस्थित प्रभु की प्रेरणा के अनुसार यह अपने व्यवहारों को करता है, २. और (पृक्षुधा) = [पृङ् व्यायामे, क्षुध् to be hungry] व्यायाम द्वारा-श्रम द्वारा क्षुधित होनेवाले इस पुरुष के (दंसु) = दाँतों पर (वीरुधः) = पृथिवी से उत्पन्न होनेवाली ये लताएँ ही (रोहति) = आरूढ़ होती हैं [रोहन्ति- सा०], अर्थात् जब यह शुद्ध वानस्पतिक भोजन ही करता है। ३. और (यत्) = जब (अस्य) = इसके (उभा) = शरीर व मस्तिष्क दोनों ही जनुषम् विकास को (यत्) = यदि (इन्वतः) = व्याप्त करते हैं, अर्थात् यदि इसकी शक्ति और ज्ञान- दोनों का विकास होता है तो (आत् इत्) = अब शीघ्र ही (यविष्ठः) = युवतम (अभवत्) = हो जाता है, जीर्ण रहकर युवा बन जाता है, इसकी शक्तियाँ खूब बढ़ जाती हैं। घृणादीति के साथ यह (शुचि:) = पवित्र जीवनवाला होता है। शरीर में 'यविष्ठ' होता है, मस्तिष्क में 'घृणा' दीप्तिवाला और हृदय में 'शुचि' होता है।
भावार्थ
भावार्थ - (क) हम प्रभु को अपना पथ-प्रदर्शक बनाएँ, (ख) श्रम द्वारा भूख अनुभव होने पर वानस्पतिक पदार्थों को ही खाएँ, (ग) ज्ञान व शक्ति दोनों का विकास करें, तब हम शरीर से युवा, मस्तिष्क में दीप्त और मन में निर्मल बनेंगे।
विषय
वनस्पतिवत् जीवों के जन्म लेने आदि का वर्णन ।
भावार्थ
वह जीव आत्मा कैसा है ? ( यत् ) जो जीव ( परमात् ) सर्वोत्कृष्ट ( पितुः ) देह के पालक अन्न के सार से ही ( प्रणीयते ) प्रकट होता है और जो ( वीरुधः ) लताओं पर लगने वाले फूल के समान ( वृक्षुधः वीरुधः ) अन्नादि के द्वारा पुष्ट होने वाले या (पृक्-सु-धः) सम्पर्क, संग द्वारा उत्तम रीति से निषेक संस्कार द्वारा धारण कराने वाले ( वीरुधः ) विशेष रूप से वीज को जन्म देने वाले पुरुष के (दंसु) गृहों में या गृही जीवों, या जायाओं में ( परि रोहति ) गर्भ रूप: से वृद्धि को प्राप्त होता है । उभा और दोनों स्त्री और पुरुष ( यत् ) जब ( अस्य ) इस जीव के ( जनुषं ) जन्म के लिये ( इन्वते ) यत्न करते हैं ( आत् इत् ) तभी वह ( यविष्ठः ) यव से भी अधिक सूक्ष्म, अथवा अति सुन्दर, बलवान् ( घृणा ) तेजोमय ( शुचिः ) शुद्ध कान्तिमान् आत्मा ( अभवत् ) प्रकट होता है ।
टिप्पणी
‘दंसु’—जाया शब्दस्य जंभावोदम्भावश्च जंपती दम्पत्यादिषु दृष्टः । अत्र च छान्दसो दम्भावो द्रष्टव्यः । अथवा दंसु दमेषु । दमो जायापर्यायः स्त्रीवाचको द्रष्टव्यः ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १, २, ३, ६, ११ जगती । ४, ७,९, १० निचृज्जगती । ५ स्वराट् त्रिष्टुप् । ८ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ भुरिक् पङ्क्तिः। १३ स्वराट् पङ्क्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी अन्न व औषध सर्वांकडून घ्यावे व त्या संस्कारित केलेल्या अन्न भोजनाने संपूर्ण सुख प्राप्त होते, हे जाणावे. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The food and nourishment which is collected, received and assimilated from the highest light of heaven and the middle regions wonderfully rises and grows into the hungry herbs and trees and vegetation. And when both nourish the yajamana and his progeny, the person grows most youthful, kind and compassionate, and brilliant and pure.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Significance of good food and herbs is underlined.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Man gets corn and other food material after hard labor. Some eatable creepers even satisfy hunger and are produced at homes. When a man takes and the medicines made out of the herbs etc. he becomes strong clean proper well-cooked food and illustrious.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Man should take ideal food and herbs from everywhere, if it makes him happy.
Foot Notes
(पृक्षुध:) प्रकर्षेण क्षोधितुय् भोक्तुम् इष्टा: = Desirable for eating or satisfying hunger. (दनेषु) = At Homes (घृणा) दीप्तिः = Luster.
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